उत्तर प्रदेश में अति-पिछड़ी जातियों को अनुसूचित-जातियों की सूची में शामिल करने की राजनीति

कल योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश की 17 अति-पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र जारी करने का आदेश जारी किया है जोकि पूरी तरह से असंवैधानिक एवं दलित विरोधी है. यह आदेश इलाहबाद हाई कोर्ट के अखिलेश यादव सरकार द्वारा 17 अति–पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के आदेश पर लगे स्टे के हट जाने के परिणामस्वरूप जारी किया गया है जबकि इसमें इस मामले के अंतिम निर्णय के अधीन होने की शर्त लगायी गयी है. इससे पहले अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने दिसंबर 2016 को 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का निर्णय लिया था जिनमें निषाद, बिन्द, मल्लाह,केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति,राजभर,कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा तथा गौड़ आदि जातियां शामिल हैं. यह ज्ञातव्य है कि सरकार का यह कदम इन जातियों को कोई वास्तविक लाभ न पहुंचा कर केवल उनको भुलावा देकर वोट बटोरने की चाल थी. यह काम लगभग सभी पार्टियाँ करती रही हैं / कर रही हैं.
इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इस से पहले भी वर्ष 2006 में मुलायम सिंह की सरकार ने 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची तथा 3 अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का शासनादेश जारी किया था जिसे आंबेडकर महासभा तथा अन्य दलित संगठनों द्वारा न्यायालय में चुनौती देकर रद्द करवा दिया गया था. परन्तु सपा ने यह दुष्प्रचार किया था कि इसे मायावती ने 2007 में सत्ता में आने पर रद्द कर दिया था.

वर्ष 2007 में सत्ता में आने पर 2011 में मायावाती, जो कि अपने आप को दलितों का मसीहा घोषित करती है, ने भी इसी प्रकार से 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने की संस्तुति केन्द्रीय सरकार को भेजी थी. इस पर केन्द्रीय सरकार ने इस के औचित्य के बारे में उस से सूचनाएं मांगी तो वह इस का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी और केन्द्रीय सरकार ने उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया था.

इस विवरण से स्पष्ट है कि समाजवादी पार्टी और बसपा तथा अब भाजपा इन अति-पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल कराकर उन्हें अधिक आरक्षण दिलवाने का लालच देकर केवल उनका वोट प्राप्त करने की राजनीति कर रही हैं क्योंकि वे अच्छी तरह जानती हैं कि न तो उन्हें स्वयं इन जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल करने का अधिकार है और न ही यह जातियां अनुसूचित जातियों के माप दंड पर पूरा ही उतरती हैं. वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति को अनुसूचित जातियो की सूची में शामिल करने अथवा इस से निकालने का अधिकार केवल पार्लियामेंट को ही है. राज्य सरकार औचित्य सहित केवल अपनी संस्तुति केन्द्रीय सरकार को भेज सकती है जो इस सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार ही रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया तथा रष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से परामर्श के बाद पार्लियामेंट के माध्यम से ही किसी जाति को सूचि में शामिल कर अथवा निकाल सकती है. संविधान की धारा 341 में राष्ट्रपति ही राज्यपाल से परामर्श करके संसद द्वारा कानून पास करवा कर इस सूचि में किसी जाति का प्रवेश अथवा निष्कासन कर सकता है. इस में राज्य सरकार को कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं है. वास्तव में यह पार्टियाँ अपनी संस्तुति केन्द्रीय सरकार को भेज कर सारा मामला कांग्रेस की झोली में डालकर यह प्रचार करती हैं कि हम तो आप को अनुसूचित जातियों की सूचि में डलवाना चाहते हैं परन्तु केंद्र सरकार उसे नहीं कर रही है. यह अति पिछड़ी जातियों को केवल गुमराह करके वोट बटोरने की राजनीति रही है जिसे अब शायद ये जातियां भी बहुत अच्छी तरह से समझ गयी हैं. इसके पहले भाजपा सरकार ने सोनभद्र की धांगर जाति को अनुसूचित जाति की सूची से बाहर करके पिछड़ी जाति की धनगर (पाल/गडरिया) को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र जारी करने का अवैधानिक आदेश पारित किया था जिस पर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की आदिवासी वनवासी महासभा ने हाई कोर्ट से स्थगन आदेश प्राप्त कर रोक लगवा रखी है.

इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि अखिलेश यादव अथवा मायावती की बसपा एवं अब भाजपा सरकार द्वारा जिन अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूचि में डालने की जो संस्तुति पहले की गयी थी अथवा अब की गयी है वह मान्य नहीं होगी क्योंकि यह जातियां अनुसूचित जातियों की अस्पृश्यता की आवश्यक शर्त को पूरा नहीं करती हैं. यह सर्व विदित है कि अनुसूचित जातियां सवर्ण हिन्दुओं के लिए अछूत हैं जबकि सम्बंधित पिछड़ी जातियां उन के लिए सछूत हैं. इस प्रकार उनका किसी भी हालत में अनुसूचित जातियों की सूचि में शामिल किया जाना संभव नहीं है.

यदि भाजपा सरकार इन पिछड़ी जातियों को आरक्षण का वांछित लाभ वास्तव में देना चाहती है जोकि वार्तमान में उन्हें पिछड़ों में समृद्ध जातियों (यादव, कुर्मी तथा जाट आदि ) के शामिल रहने से नहीं मिल पा रहा है तो उसे इन जातियों की सूची को तीन हिस्सों में बाँट कर उनके लिए 27% के आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए. देश के अन्य कई राज्य बिहार, तमिलनाडु, कर्नाटक अदि में यह व्यवस्था पहले से ही लागू है. मंडल आयोग की रिपोर्ट में भी इस प्रकार की संस्तुति की गयी थी.

उत्तर प्रदेश में इस सम्बन्ध में 1975 में डॉ. छेदी लाल साथी की अध्यक्षता में सर्वाधिक पिछड़ा आयोग गठित किया गया था जिस ने अपनी रिपोर्ट 1977 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपी थी परन्तु उस पर आज तक कोई भी कार्रवाही नही की गयी. साथी आयोग ने पिछड़े वर्ग की जातियों को तीन श्रेणियों में निम्न प्रकार बाँटने तथा उन्हें 29.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की थी:

“अ” श्रेणी में उन जातियों को रखा गया था जो पूर्ण रूपेण भूमिहीन, गैर-दस्तकार, अकुशल श्रमिक, घरेलू सेवक हैं और हर प्रकार से ऊँची जातियों पर निर्भर हैं. इनको 17% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी.
“ब” श्रेणी में पिछड़े वर्ग की वह जातियां, जो कृषक या दस्तकार हैं. इनको 10% आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी.
“स” श्रेणी में मुस्लिम पिछड़े वर्ग की जातियां हैं जिनको 2.5 % आरक्षण देने की संस्तुति की गयी थी.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों के लिए 27% आरक्षण उपलब्ध है. अतः इसे डॉ. छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप पिछड़ी जातियों को तीन हिस्सों में बाँट कर उपलब्ध आरक्षण को उनकी आबादी के अनुपात में बाँटना अधिक न्यायोचित होगा. इस से अति पिछड़ी जातियों को अपने हिस्से के अंतर्गत आरक्षण मिलना संभव हो सकेगा.

इन अति पिछड़ी जातियों को यह भी समझना होगा कि भाजपा सरकार इन जातियों को इस सूची से हटा कर समृद्ध जातियों यादव, कुर्मी और जाट के लिए आरक्षण बढ़ाना चाहती है और उन्हें अनुसूचित जातियों से लड़ाना चाहती है. अतः उन्हें भाजपा की इस चाल को समझाना चाहिए और उन के इस झांसे में न आ कर डॉ. छेदी लाल साथी आयोग की संस्तुतियों के अनुसार अपना आरक्षण अलग कराने की मांग उठानी चाहिए. इसी प्रकार कुछ जातियां जो वर्तमान में अनुसूचित जातियों की सूचि में हैं परन्तु उन्हें अनुसूचित जनजातियों की सूचि में पीपुल्स फ्रंट ने पैरवी करके सोनभद्र जिले की कई जनजातियों को अनुसूचित जातियों की सूची से हटवा कर अनुसूचित जनजातियों की सूची में डलवाया भी है. इतना ही नहीं सोनभद्र जिले में जनजातियों के लिए विधानसभा की दो सीटें भी 2013 में अरक्षित करवाई हैं. वर्तमान में कोल जनजाति को अनुसूचित जाति से निकलवा कर अनुसूचित जाति की सूचि में डलवाने की कार्रवाही चल रही है.

यह भी विचारणीय है कि जब निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियां लगातार कम हो रही है तो फिर आरक्षण को बाँटने अथवा नया आरक्षण देना का क्या लाभ है. असली ज़रुरत तो रोज़गार के अवसर पैदा करने की है जो कि बढ़ने की बजाये कम हो रहे हैं. बेरोज़गारी की समस्या तभी हल होगी जब बड़ी संख्या में रोज़गार सृजन किया जाये, रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाया जाये तथा बेरोज़गारी भत्ता दिया जाये. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट इस मांग को काफी लम्बे समय से उठाता आ रहा है.

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