Wednesday, March 26, 2025
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आदिवासियों में गरीबी का आलम, दादी ने पोते को दो सौ रुपये में बेचा

जब चुनाव आते हैं, तब ‘आदिवासी राष्ट्रपति’, ‘आदिवासी मुख्यमंत्री’, और ‘आदिवासी गौरव दिवस’ जैसे तमाशे किए जाते हैं, लेकिन जब आदिवासी भूख से मरते हैं, अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर होते हैं, तब सरकार और संघ के ठेकेदार पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं।

सांकेतिक तस्वीरओडिशा के आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में भूखमरी के कारण एक दादी को अपने पोते को मात्र 200 रुपये में बेच दिया। पोते की उम्र सात साल है। यह सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि इस देश की असलियत है। यह कोई पहली घटना नहीं है। 2023 में इसी जिले में एक माँ ने 800 रुपये में अपने नवजात शिशु को बेचा था। लेकिन क्या इस देश की सरकारों को इससे कोई फर्क पड़ता है?

मोदी सरकार ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा करती है, लेकिन हकीकत यह है कि हम भुखमरी और गरीबी में फिसलते जा रहे हैं। अगर यह ‘अमृतकाल’ है, तो फिर ‘काल’ कैसा होगा? मोदी सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारें आदिवासियों को केवल वोट बैंक और प्रचार सामग्री के रूप में देखती हैं। जब चुनाव आते हैं, तब ‘आदिवासी राष्ट्रपति’, ‘आदिवासी मुख्यमंत्री’, और ‘आदिवासी गौरव दिवस’ जैसे तमाशे किए जाते हैं, लेकिन जब आदिवासी भूख से मरते हैं, अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर होते हैं, तब सरकार और संघ के ठेकेदार पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं। यही असली चेहरा है इस सरकार का, जहाँ एक ओर भव्य महाकुंभ, मंदिर, और कॉर्पोरेट महोत्सवों पर खरबों रुपये उड़ाए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के असली मालिक, आदिवासी समाज, भूख और गरीबी में दम तोड़ रहे हैं।

 

बीजेपी और मोदी सरकार सिर्फ़ पोस्टरबाज़ी में व्यस्त है, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का झूठा नारा लगाकर सिर्फ़ अपने पूंजीपति मित्रों को फायदा पहुँचाने में लगी है। आदिवासी इलाकों में राशन की किल्लत, बेरोज़गारी और विस्थापन चरम पर है। क्या यही ‘अमृतकाल’ है? क्या यही ‘नया भारत’ है, जहाँ गरीबों के बच्चे बिक रहे हैं और सरकारें अपने जुमलों में मस्त हैं? अगर इस देश में सरकारों में ज़रा भी इंसानियत बची है, तो आदिवासियों के लिए भूखमरी और विस्थापन खत्म करने की ठोस योजना लागू की जाए। अब भाषण नहीं, जवाब चाहिए, न्याय चाहिए!

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