नौकरी में पदोन्नति हेतु मलाईदार वर्ग की अवधारणा अनुसूचित जाति (एस.सी.) और अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) पर लागू की जानी चाहिए या नहीं, यह जाँचने के लिए केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय से सात न्यायधीशों की पीठ गठित करने की अपील की है. इस बारे में दि हिंदू के लिए के. वेंकटरमन द्वारा एक बातचीत सुखदेव थोराट और अश्विनी देशपांडे से की गई. यहां हम सुखदेव थोराट के पक्ष को दे रहे हैं.
मलाईदार वर्ग की अवधारणा को आरक्षण पर और विशेष तौर पर एस.सी. और एस.टी. पर लागू करने के विचार विषयक एक संदर्भ क्या आप हमें दे सकते हैंॽ
सुखदेव थोराट: राजनीति, नौकरियों और संस्थानों में एस.सी. को आरक्षण विशेष रूप से इसलिए दिया गया है क्योंकि वे लगभग 2000 सालों तक संपत्ति, शिक्षा और उद्योगों के अधिकार से वंचित थे. इसके अतिरिक्त उनके साथ अस्पृश्यों सरीखा व्यवहार किया जाता था. समाज में भेदभाव आज भी जारी है. अतीत के बहिष्कार के लिए एक सीमा तक (भेदभाव के खिलाफ) सुरक्षा उपाय और क्षतिपूर्ति मुहैया कराना ही आरक्षण के पीछे का मुख्य तर्क था. अपनी आबादी के हिस्से के अनुसार उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए. कारण कि अन्यथा नौकरियों, उद्योगों और कृषि में जारी भेदभाव के कारण वे अपना देय भाग नहीं पा सकेंगे.
वे भूमिहीन ही बने हुए हैं. मेरा मानना है कि पुनरुद्धार या क्षतिपूर्ति की नीति होनी चाहिए थी. ऐसा नहीं हुआ है. जो हम कर रहे हैं, वह वर्तमान में भेदभाव के खिलाफ कुछ संरक्षण दे रहे हैं और जनसंख्या के अनुपात में कुछ हिस्सा दे रहे हैं. अत: सर्वोच्च अदालत जाने की जगह सरकार को एक समिति गठित करनी चाहिए थी और जांचना चाहिए था कि नौकरी के अंदर लोग भेदभाव का सामना करते हैं या नहीं करते. मेरा अनुभव है कि एक बार जब आप नौकरी में घुस जाते हैं तो भारी भेदभाव होता है. नौकरियों में भेदभाव की शिकायत करते हुए एस.सी./एस.टी. आयोग के पास लगभग 12,000 मामले लंबित हैं. इसलिए उन्हें पदोन्नति में भी आरक्षण की जरूरत है.
आपको किसी सीमा तक ऐसा लगता है कि पिछड़ेपन की परख, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और प्रशासनिक कार्यकुशलता पर आरक्षण का असर एस.सी./एस.टी. उम्मीदवारों के भविष्य को प्रभावित करता है या नहीं करता हैॽ
सुखदेव थोराट: आरक्षण नीति जैसे विधेयात्मक कदम भेदभाव विरोधी हैं; यह आर्थिक विचार पर आधारित नहीं है क्योंकि भेदभाव आपकी आर्थिक स्थिति से स्वतंत्र होता है. महिलाएं आरक्षण की मांग कर रही हैं. क्या उन्होंने कभी यह मुद्दा उठाया है कि अपेक्षाकृत समृद्ध महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण नहीं लेना चाहिएॽ कारण कि उनके साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है, चाहे वे गरीब हों या न हों. अत: मेरा मानना है कि यह स्पष्टता वहां रखनी होगी.
मेरा दृष्टिकोण यह है कि आर्थिक रियायत नहीं देनी चाहिए. उन्हें अनुदान, छात्रवृत्ति मत दीजिए क्योंकि उनमें से कुछ आर्थिक रूप से समृद्ध होते हैं. किंतु आप इस तर्क को इस सीमा तक विस्तारित नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से समृद्ध लोगों को आरक्षण नहीं देना चाहिए. इसलिए मेरा मानना है कि सर्वोच्च अदालत को अकादमिक ढंग से इस बिंदु को समझना है; मैं नहीं मानता कि यह कोई वैधानिक मुद्दा है.
अगर सीमा को लेकर कोई सवाल है, तो सीमा को संशोधित किया जा सकता है. अगर पदोन्नति से दूसरों को नुकसान होता है तो उनकी सहायता करने के दूसरे तरीके भी हैं. सर्वोच्च अदालत को इसके ऊपर 50 प्रतिशत या कोई अन्य कानूनी सीमा नहीं थोपनी चाहिए. एस.सी./एस.टी. के लिए आरक्षण को बनाये रखते हुए गैर एस.सी./एस.टी. को लाभ पहुंचाने के वैकल्पिक रास्ते पता कीजिए.
पिछड़ेपन की जाँच एक अन्य आयाम है. जरनैल सिंह वाले मामले में अदालत को लगा कि पिछड़ेपन की परख सभी एस.सी./एस.टी. पर लागू नहीं होनी चाहिए. लेकिन उसी समय इसने मलाईदार तबके की अवधारणा को लागू करने की वकालत भी कर डाली. क्या यहाँ कुछ विरोधाभास नहीं है ॽ
सुखदेव थोराट: हाँ, मेरा मानना है कि विरोधाभास है. एक तरफ वे कहते हैं कि पिछड़ेपन का कोई पैमाना या सूचकांक एस.सी. और एस.टी. पर लागू नहीं होना चाहिए. दूसरी तरफ वे अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से समृद्ध कुछ एस.सी. लोगों को बाहर करने के लिए उसी आर्थिक पैमाने को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर न्यायालय को कोई फैसला लेना ही है तो इसे एस.सी. और एस.टी. के लोगों द्वारा झेली जा रही अस्पृश्यता और भेदभाव के रिवाज के अध्ययन हेतु सरकार से एक व्यापक समीति गठित करने के लिए कहना चाहिए. अदालत को अपनी स्थिति संशोधित करनी चाहिए और देखना चाहिए कि जीवन के सभी क्षेत्रों में वे लगातार भेदभाव झेल रहे हैं. अगर कोई समुदाय भेदभाव का सामना नहीं करता है तो आप गरीबों के लिए गरीबी विरोधी नीति विकसित कर सकते हैं. लेकिन जब भेदभाव रहता है तो आप दुनियाभर में पृथक नीति रखते हैं.
जिस बिंदु को हम दोनों दोहरा रहे हैं, वह यह है कि दलितों के आरक्षण का कारण आर्थिक पिछड़ापन नहीं है. यह तो वह लांछन है जो अस्पृश्यता की स्थिति के कारण आता है. और यद्यपि कानूनी रूप से अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिया गया है लेकिन बहुत सारे आंकड़ें हैं जो दिखाते हैं कि लोग अभी भी अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं. इसलिए जो कलंक अछूतपन की स्थिति के कारण आता है… आरक्षण तो उसके लिए एक छोटा सा प्रतिकारी उपाय है. अस्पृश्यता के कारण आर्थिक पिछड़ेपन और लांछन को एक साथ जोड़ने का यह सतत् प्रयास गलत है. कारण कि आप आर्थिक पिछड़ेपन पर बात कर सकते हैं, लेकिन दलितों के लिए आपको इस लांछन को दूर करना होगा.
एक तर्क यह था कि जबकि प्रवेश स्तर पर एक व्यक्ति वास्तविक रूप से वंचित होता है और आरक्षण एक उपचारात्मक साधन है, किंतु जैसे ही वह आय और पद, दोनों की सीढ़ी पर ऊपर पहुँचता है, तो पदोन्नति में आरक्षण की संभवत: कोई आवश्यकता ही उसे न हो. और यह भी कि उस स्तर पर मलाईदार वर्ग की अवधारणा लागू होनी चाहिए.
सुखदेव थोराट: हम इस बिंदु पर बल दे रहे हैं कि आरक्षण या सकारात्मक कार्रवाई भेदभाव पर आधारित होती है जो उन समान अवसरों को नकारना है जिनसे दूसरे लाभ उठाते हैं. और आर्थिक रूप से समृद्ध लोग भी भेदभाव का शिकार होते हैं, ये भेदभाव का शिकार होते हैं नौकरी में और दूसरे क्षेत्रों में. उन्हें भी सुरक्षा उपाय की आवश्यकता पड़ती है और यह सुरक्षा उपाय होता है- सकारात्मक कार्रवाई की नीति. जो मैंने कहा था, वह यह भी है कि चूँकि वे आर्थिक तौर पर बेहतर स्थिति में होते हैं, तो उन्हें अनुदान सरीखे आर्थिक फायदें मत दीजिए. वे इनका वहन कर सकते हैं किंतु आप इस तर्क को यह कहने तक विस्तारित नहीं कर सकते कि समृद्ध लोगों से आरक्षण छीन लेना चाहिए. पदोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि वे पदोन्नति में भेदभाव झेलते हैं. इसे लेकर हमारे पास अध्ययन नहीं हैं. सर्वोच्च अदालत और सरकार को ऐसे अध्ययन पर हाथ लगाना चाहिए.
आरक्षण एक प्रकार की क्षतिपूर्ति है. सार्वजनिक क्षेत्र नौकरियों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही रखता है. और वहीं वे कुछ हिस्सा पाते हैं. निजी क्षेत्र में भेदभाव के खिलाफ उन्हें कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है. आप जो अपेक्षा रखते हैं, वह है दो हजार साल के दमन की क्षतिपूर्ति. हमें उन्हें भूमि देनी होगी, उद्योग आरंभ करने और शिक्षा के लिए वित्त जुटाना होगा. आपको आरक्षण द्वारा अनुपूरक क्षतिपूर्ति और नुकसान की भरपाई वाली व्यापक नीति की आवश्यकता है.
अदालत मात्रात्मक आंकड़ों पर जोर देती है- चाहे ये पिछड़ेपन को लेकर हों या चाहे अपर्याप्त प्रतिनिधित्व या कार्य कुशलता के सवाल को लेकर हों. क्या आप मानते हैं कि यह सरकार से एक बहुत ही भारी अपेक्षा है कि हर चीज को मात्रात्मक आंकड़ों में प्रदर्शित किया जाएॽ
सुखदेव थोराट: मैं यह कहना चाहूँगा कि एस.सी. और एस.टी. (अत्याचार निवारण) अधिनियम और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत यह सरकार की जबावदेही है कि दलितों के द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव और अस्पृश्यता की प्रकृति को सामने लाने के लिए वह हर पाँच साल पर अध्ययन कराए. सरकारी एस.सी./एस.टी. आयोग की रपटों में अस्पृश्यता पर एक पृथक अध्ययन होना अपेक्षित होता है. वह रपट पिछले 20 सालों से या लगभग इतने ही समय से सामने नहीं आई है. सरकार ने कोई अध्ययन भी नहीं करवाया है. गुणात्मक रिश्तों को चिह्नित करने वाली संख्यात्मक पद्धतियाँ हैं जो लेकिन दुर्भाग्य से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा ऐसे सर्वेक्षणों को अनदेखा किया गया है.
जिस रूप में आरक्षण नीति आज अस्तित्व में है, वह सहायक रही है और यह गरीब हितैषी नीति है. 60 प्रतिशत से ज्यादा सरकारी कर्मचारी तृतीय या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं और वे गरीब तथा कम पढ़े-लिखे हैं. ठीक इसी समय सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र तेजी से संविदा पर नौकरियों निकाल रहा है जिनके लिए कोई आरक्षण नहीं है. अत: निजी क्षेत्र तक भी समान रूप से आरक्षण को विस्तारित करने की आवश्यकता है.
(इस साक्षात्कार को डॉ. प्रमोद मीणा ने अनुवाद किया है। वह महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी में शिक्षक हैं। संपर्कः7320920958)
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