Sunday, February 23, 2025
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लोक सेवाओं में लैटरल एंट्री को लेकर सरकार की नीयत पर उठते सवाल

केंद्र सरकार द्वारा संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक स्तर के पदों पर चरणबद्ध तरीके से भारी संख्या में निजी क्षेत्र के व्यक्तियों को रखने और इस नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों को किसी तरह का आरक्षण नहीं देने के निर्णय के बाद इन वर्गों में भारी रोष व्याप्त है. डीओपीटी द्वारा विस्तृत दिशानिर्देश के साथ जारी अधिसूचना के अनुसार लैटरल एंट्री के लिए आवेदक के पास सामान्य स्नातक स्तर की शिक्षा के साथ किसी सरकारी या पब्लिक सेक्टर यूनिट या यूनिवर्सिटी के अलावा किसी निजी कंपनी में 15 साल का कार्य अनुभव होना चाहिए. लेकिन इसमें आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है. सरकारी सेवा में कार्यरत एससी, एसटी, ओबीसी के अधिकारियों की मानें तो सरकार का यह फैसला न सिर्फ अन्यायपूर्ण, मनमाना बल्कि संविधान के भी विरुद्ध है, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियो में आरक्षण की स्पष्ट व्यवस्था की गई है.

वहीं सरकार इन पदों को एकल पद और एक व्यक्ति तथा सरकार के मध्य करार बताकर आरक्षण के दायरे से बाहर बता रही है. यह बात और है कि स्वयं डीओपीटी के अपने नियम के अनुसार कोई भी सरकारी नौकरी सिर्फ तभी आरक्षण नीति के दायरे से बाहर हो सकती है यदि वह 45 दिनों से कम के लिए हो, जबकि यह नियुक्तियां 3 से 5 साल की अवधि के लिए हैं. ऐसे में कुछ सवाल हैं जो मन में उभरते हैं. इसमें सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में सरकार को निजी क्षेत्र से लोगों को लेने की क्या जरूरत है? दूसरा, नौकरशाही नाकाम हुई है या उसे नाकाम किया गया है? तीसरा, एससी, एसटी, ओबीसी के अवसरों को छीनने की साजिश तो नहीं है लैटरल एंट्री सिस्टम? चैथा प्रश्न, सरकार को यदि आरक्षण से इतनी ही दिक्कत है तो वह इसे समाप्त ही क्यों नहीं कर देती? और सबसे आखिरी लेकिन बेहद महत्वपूर्ण सवाल कि सरकार ने इस तरह से निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को नौकरियों पर रखने से जुड़े समस्यात्मक पक्षों पर विचार किया है या नहीं?

सरकार को क्यों चाहिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ

सरकार को लोक सेवा के लिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ किस उद्देश्य से चाहिए यह बड़ा प्रश्न है. जिन पदों के लिए सरकार निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों को ला रही है वह सीधे-सीधे नीति निर्माण से जुड़े हैं, ऐसे में जो सरकारी अधिकारी लाइन, स्टाफ और सहायक तीनों एजेंसियों में काम कर संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक के पदों पर पहुंचते हैं उनका व्यावहारिक अनुभव और समझ किसी भी रूप में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों से कम नहीं है, फिर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लाने से सरकार को क्या हासिल होने वाला है? गौरतलब है कि एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज, हैदराबाद में लोक और निजी क्षेत्र दोनों के ही उच्च अधिकारियों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जाता है. साथ ही सरकार समय-समय पर अपने अधिकारियों को रिफ्रेशर कोर्स और नवाचार सीखने के लिए विदेशों में भी प्रशिक्षण व अध्ययन हेतु भेजती है. फिर लोक सेवकों पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को वरीयता देने का आधार क्या है? हालांकि सरकार की इस नयी घोषणा में सिर्फ निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लेने की बात नहीं की गई है लेकिन सरकार के इस फैसले से निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की बहाली का रास्ता साफ हो चुका है. जिसे लेकर सबसे अधिक आपत्ति जताई जा रही है और जो बेबुनियाद भी नहीं है.

नौकरशाही नाकाम हुई है या उसे नाकाम बना दिया गया है

सरकार लोक सेवा के उच्च पदों पर बाहरी लोगों को इस तर्क के आधार पर भी रख रही है कि नौकरशाही का प्रदर्शन समय की बदलती जरूरतों व सरकार तथा लोक अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा है. लेकिन जैसा कि विदित है लोकसेवा सदैव राजनीतिक परिवेश में कार्य करती है. ऐसे में लोक सेवकों की विफलता की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व को भी लेनी होगी. ऐसे एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों नीतिगत फैसले हैं जो नौकरशाही पर दबाव डालकर क्रियान्वित कराए गए हैं और जब उनके अपेक्षित परिणाम नहीं निकले तब उनकी नाकामी का ठीकरा नौकरशाही के सर पर फोड़ दिया गया है. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण नोटबंदी का फैसला है जो सरकार ने सभी विशेषज्ञों यहाँ तक कि आरबीआई गवर्नर की राय को भी नजरअंदाज कर लिया. जिससे हुई अफरा-तफरी और आर्थिक तबाही को हम सभी ने देखा. इसी तरह अभी हाल ही में दिल्ली मेट्रो समेत दिल्ली में तमाम सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को महिलाओं के लिए निःशुल्क करने का फैसला भी विशुद्ध राजनीतिक लाभ-हानि का आकलन करते हुए लिया गया है न कि इसके वित्तीय व अन्य व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रखकर. इसके बावजूद योजना नाकाम हुई या क्रियान्वयन संबंधी समस्याएं आयीं तो बलि का बकरा बनने के लिए नौकरशाह तो हैं हीं. हालांकि ऐसा नहीं है कि नौकरशाही हमेशा सही ही होती है हो लेकिन प्रायः यह नौकरशाही से अधिक राजनीतिक नेतृत्व की विफलता होती है कि उसे नौकरशाही से सही तरीके से काम लेना नहीं आता. इसके पीछे एक बड़ी वजह राजनीतिक सत्ता का एक व्यक्ति में केंद्रित हो जाना और गैर अनुभवी बल्कि अधिक साफगोई से कहे तो अयोग्य लोगों को मंत्री पद पर नियुक्त करना है. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि एक सरकार के समय में बेहतर काम करने वाले नौकरशाह अचानक दूसरी सरकार के आने पर इतने अयोग्य हो जाते हैं कि सरकार को बाहर से विशेषज्ञों की भर्ती करनी पड़ती है.

एससी, एसटी, ओबीसी के अवसरों को छीनने की साजिश तो नहीं है लैटरल एंट्री सिस्टम

सरकार जिन पदों पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को बहाल करने जा रही है उन पदों पर एससी, एसटी, ओबीसी का आरक्षण शून्य हो जाएगा और अघोषित तौर पर यह सारे पद सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित हो जाएंगे. ऐसे में एससी, एसटी, ओबीसी के वे अधिकारी जो नीचे से पदोन्नत होकर इन पदों पर पहुंचते उनकी संख्या (जो अभी ही बेहद कम है) लगभग नगण्य रह जाएगी. यह एक तरह से इन वर्गों के अधिकारियों के हिस्से को हड़पने जैसा कार्य है. यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण को सही ठहराया है, जिसके बाद सरकार को आरक्षित वर्गों के अधिकारियों को पदोन्नति में आरक्षण देते हुए शीर्ष पदों पर इन वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना चाहिए. लेकिन यहां उलटे सरकार तो एससी, एसटी, ओबीसी को अब तक प्राप्त अवसरों को भी छीनने में लग गई है. सरकार के इस फैसले के बाद निःसंदेह नीति निर्माण से जुड़े इन महत्वपूर्ण पदों पर आरक्षित श्रेणी के अधिकारियों की पहुंच समाप्त हो जाएगी और वहां सामाजिक विविधता की बजाय एक खास वर्ग लोगों का ही वर्चस्व स्थापित हो जाएगा.

सरकार सीधे सीधे आरक्षण खत्म क्यों नहीं कर देती

केंद्र सरकार द्वारा तमाम हथकंडे अपनाकर कभी विनिवेश तो कभी लेटरल एंट्री जैसे प्रावधानों के माध्यम से आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने और उसे सीमित करने के अनवरत जारी प्रयासों को देखकर किसी भी व्यक्ति के मन में यह विचार स्वभाविक रूप से उभरता है कि सरकार घुमा फिरा कर काम करने की बजाय सीधे सीधे आरक्षण को समाप्त क्यों नहीं कर देती. इस सवाल का कोई एक जवाब नहीं है. सरकार द्वारा ऐसा नहीं करने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार हैं. सबसे पहली वजह तो यह है कि सरकार के लिए आरक्षण को निष्प्रभावी बनाना आसान है बनिस्पत उसे समाप्त करने के. सरकार विज्ञापन में आरक्षण की व्यवस्था कर आरक्षित सीटों को रिक्त छोड़ दे तो अधिक समस्या नहीं होगी लेकिन यदि वह विज्ञापन में आरक्षण ही नहीं दे तो आरक्षित वर्गों के सदस्य सड़कों पर उतर जाएंगे, क्योंकि यहां उन्हें अपना अधिकार स्पष्ट रूप से खतरे में नजर आएगा. दूसरी वजह यह है कि सरकार के लिए अपने फैसले को अदालत में सही ठहराने में समस्या आ सकती है. जिस उद्देश्य से नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी वह अभी तक पूरा नहीं हुआ है. अभी भी शासन-प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर एससी, एसटी, ओबीसी के सदस्यों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी की तुलना में बेहद कम है. ऐसी स्थिति में सरकार आरक्षण समाप्त करने के लिए शायद ही कोई ठोस आधार बता सकती है. लेकिन इन सबसे बढ़कर एक अन्य वजह भी है जो आमतौर पर लोगों के सामने नहीं आती. असल में मौजूदा सरकार हो या पूर्वर्ती सरकारें भारत में अब तक शायद ही कोई सरकार एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के हितों को लेकर ईमानदार रही है. यह सभी सरकारें आरक्षण को दिखावे के लिए ही सही बनाए रखना चाहती हैं ताकि आरक्षित वर्गों के सदस्य लगातार समाप्ति की तरफ अग्रसर सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा के मायाजाल से बाहर नहीं निकल सके. सरकार उन्हें उस तरफ उलझाए रखना चाहती है जिधर उनके लिए अवसर निरंतर सीमित होते जा रहे हैं.

निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लोक प्रशासन के शीर्ष पदों पर बैठाने के हैं अपने खतरे

एक समय था जब हम नव लोक प्रशासन की अवधारणा में विश्वास करते थे और मानते थे कि लोक प्रशासन को प्रासंगिक, मूल्योन्मुख, परिवर्तनकारी तथा सामाजिक समानता का पोषक होना चाहिए. फिर हमने नव लोक प्रबंधन की अवधारणा को अपनाया और दक्षता प्रभाविता तथा कार्य कुशलता के लिए बाजार को वरीयता देते हुए कम सरकार की वकालत की और माना कि सरकार या प्रशासन की भूमिका मुख्य रूप से नियामकीय हो जो लोक तथा निजी प्रशासन दोनों को लेवल प्लेइंग फील्ड उपलब्ध कराए. आज हम नव लोक प्रबंधन से भी आगे की अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं जहां निजी क्षेत्र के लोग ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के लिए नीति निर्माण व समान अवसर की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के कार्य को करेंगे. यह राज्य के पश्चबेलन की अवस्था से बढ़कर राज्य द्वारा बाजार की शक्तियों के हक में अपनी नीति निर्माण से जुड़ी जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र के साथ साझा करना है. ऐसा करते समय सरकार समाज के सबसे वंचित वर्गों के अधिकारों पर तो प्रहार कर ही रही है साथ ही हितों के टकराव से जुड़े एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष को भी नजरअंदाज कर रही है जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. सरकार निजी क्षेत्र के जिन विशेषज्ञों को नीति निर्माण से जुड़े उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठाने जा रही है उनकी अपने औद्योगिक प्रतिष्ठानों के साथ संबद्धता को देखते हुए इस बात की संभावना हमेशा बनी रहेगी कि वह अपने अपने प्रतिष्ठानों को गलत तरीके से लाभ पहुंचाने का प्रयास करें. क्योंकि शासन के उच्च पदों पर कार्य करते हुए निजी क्षेत्र के यह विशेषज्ञ न सिर्फ सभी गोपनीय दस्तावेजों तक पहुंच प्राप्त कर सकते हैं बल्कि अपने अपने औद्योगिक प्रतिष्ठानों के हित में नीति निर्माण और नीतिगत बदलाव की पहल भी कर सकते हैं.

इतना ही नहीं इससे सत्ताधारी दल को डोनेशन या अन्य तरीके से लाभ पहुंचाकर अलग-अलग औद्योगिक घराने अपने अधिक से अधिक लोगों को इन पदों पर बैठाने की कोशिश कर सकते हैं जो एक तरह से श्पदों की बिक्री प्रणालीश् की पुनर्स्थापना के जैसा कदम हो सकता है. यहां यह बात विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है कि केंद्र सरकार पिछले दरवाजे से प्रवेश (लैटरल एंट्री) के जरिए जिन मंत्रालय या विभागों में संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक स्तर के पद निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों से भरने जा रही है उनमें राजस्व, वित्तीय सेवा, आर्थिक मामले, किसान कल्याण, सड़क परिवहन और हाईवे के साथ-साथ जहाजरानी और पर्यावरण जैसे बेहद संवेदनशील मंत्रालय व विभाग शामिल हैं. ऐसी स्थिति में जबकि अनेक निजी कंपनियां बैंकों का हजारों करोड़ का कर्ज दबाए बैठी हैं, अनेक उद्योगपति बैंकों का अरबों खरबों लेकर विदेश भाग चुके हैं, अनेक औद्योगिक घरानों पर गलत तरीके से किसानों की जमीन हड़पने के आरोप लग रहे हैं तथा अनेक कंपनियां अपने प्लांट लगाने और खनन हेतु पहाड़ से लेकर जंगल तक को नष्ट करने पर तुली हुई हैं यह सोचकर भी डर लगता है कि वैसी कंपनियों के अधिकारियों को अब यह भी तय करने का काम मिलने वाला है कि क्या सही है और क्या गलत. क्या होना चाहिए और क्या नहीं. यह कल्पना से भी परे खतरनाक स्थिति होने वाली है. लिहाजा कोई भी गंभीर व्यक्ति जिसे सविधान, राज व्यवस्था तथा प्रशासन का थोड़ा सा भी ज्ञान और अनुभव है इस व्यवस्था की वकालत करने से पूर्व इससे जुड़े इन समस्यात्मक पहलुओं पर विचार जरूर करेगा.

उपसंहार

भारत में लोक सेवाओं में पिछले दरवाजे से नियुक्ति एक बेहद संवेदनशील मसला है. ’टैलेंटेड और मोटिवेटेड’ भारतीयों को लोक सेवा से जोड़ने के नाम पर की जा रही इस कवायद के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों व परिणामों पर सम्यक विचार कर ठोस तर्क के साथ ही इस तरह का कोई निर्णय लिया जाना चाहिए. अभी सरकार इस निर्णय के पीछे जो तर्क दे रही है वह बड़ी संख्या में आम लोगों, विशेषकर एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के लोगों व अधिकारियों के गले नहीं उतर रहा है. इससे न सिर्फ एससी, एसटी और ओबीसी के अधिकारियों के संविधान प्रदत अधिकारों का अतिक्रमण होता है बल्कि शासन की नैतिकता, सच्चरित्रता और साख के भी खतरे में पड़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है. अनेक लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जो सरकार यह कदम उठा रही है उसे जनता ने चुना है लेकिन यदि सब कुछ चुनावी नतीजों से ही तय किया जा सकता तो फिर संविधान, अदालत, मीडिया, नागरिक समाज और लोकमत आदि की तो जरूरत ही समाप्त हो जानी चाहिए. कुल मिलाकर यह फैसला बेहद गंभीर खामियों से युक्त है जिसे स्वीकार करने का अर्थ भारतीय संविधान, लोकतंत्र व न्याय की मूल भावना के विरुद्ध जाना होगा जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत घातक होंगे.

लेखकः मनीष चन्द्रा

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