समाज और संस्थानों में भले ही दलितों का शोषण, भेदभाव और अत्याचार बदस्तूर जारी हो, लेकिन राजनीति में ‘दलित’ शब्द अब तक ब्रांड वैल्यू बनाए हुए है, इसका बाजार गर्म है. कम से कम इतना तो मानना पड़ेगा कि डॉक्टर आंबेडकर और संविधान द्वारा प्रदत्त राजनीतिक समानता अर्थात एक व्यक्ति और एक वोट के अधिकार ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को विवश किया है कि सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन सदियों से उपेक्षित जमात को स्वीकार करें.
भारत में एक व्यक्ति बहुल अस्मिताओं के साथ जन्म लेता है, जिसमें सबसे प्रमुख जातिगत पहचान है. ‘जाति’ जन्मना है और ‘वर्ग’ कर्मणा. धर्म, क्षेत्र, राष्ट्रीयता, भाषा, वर्ग इत्यादि बदले जा सकते हैं, पर जाति नहीं. गर्भधारण से लेकर देहावसान तक जाति वजूद का हिस्सा बनी रहती है.
भारतीय लोकशाही की एक दिलचस्प त्रासदी है कि जब कोई ‘गैर-दलित’ किसी सार्वजनिक संस्था के लिए उम्मीदवार होता है या चुना जाता है तब उसकी जातीय पहचान की नहीं बल्कि उसके तथाकथित ‘गुणों’, अनुभवों और ‘काबिलियत’ की चर्चा होती है. लेकिन अगर कोई अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग से आए तो उसके समुदाय की चर्चा पहले होती है. इसके ऐतिहासिक कारण हैं. गैर-दलित के लिए यह उम्मीदवारी या अधिकार नैसर्गिक मान लिया जाता है, अर्थात यह उसका जन्मजात अधिकार है. ‘दलितों’ का यह अधिकार नहीं है, इसलिए खबर बन जाती है. वहीं दलित अस्मिता के शोर में जस्टिस कर्णन के मामले पर घोर चुप्पी बरती जाती है.
बहरहाल, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया, जो अगले तीन दिन तक मीडिया से लेकर चौक-चौराहों तक चर्चा का विषय रहा. उसके बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना कर तुरुप का पत्ता खेला. कई मामलों में यह चुनाव दिलचस्प होने वाला है– विशेष रूप से जाति और लैंगिक प्रश्न को लेकर. जरा दोनों उम्मीदवारों के अनुभव और परिचय पर एक नजर डालें.
दोनों उम्मीदवार लगभग एक ही आयु वर्ग के हैं. मीरा कुमार स्वतंत्रता-सेनानी व भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं. राजनीति में आने से पहले मीरा कुमार कुछ सालों तक भारतीय विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हैं. बिजनौर से पहली बार 1985 में सांसद बनीं, पांच बार सांसद रह चुकी हैं. इसके साथ उनके पास केंद्रीय मंत्री और लोकसभा स्पीकर होने का अनुभव भी है. पहली महिला और दूसरी दलित लोकसभा अध्यक्ष.
रामनाथ कोविंद उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं. पेशे से वकील हैं, लोकसभा या विधानसभा में नहीं आए, 1994-2006 तक राज्यसभा के सांसद बेशक रहे हैं और अभी राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने पर बिहार के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिया है.
चूंकि इस चुनाव की उम्मीदवारी में दलित अस्मिता का खेल खेला जा रहा है, इसलिए जातिगत समीक्षा जरूरी लगती है. मीरा कुमार जाटव जाति से हैं, जो पूरे भारत में अनुसूचित वर्ग से संबद्ध हैं. रामनाथ कोविंद, कोरी/कोली जाति से हैं जो उत्तर प्रदेश से अनुसूचित जाति से संबद्ध हैं. कई प्रदेशों में उनकी जाति पिछड़े वर्ग से संबंधित है, जैसा कि गुजरात भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघाणी बाकायदा पोस्टर निकाल कर यह प्रचार कर रहे हैं कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद इस समुदाय के एक प्रतिष्ठित नेता हैं.
बहरहाल, दोनों उम्मीदवारों में एक बात समान है, दोनों दलित आंदोलन या किसी भी प्रगतिशील आंदोलन की उपज नहीं हैं. एक को अगर विरासती कांग्रेसी दलित नेता कहा जा सकता है तो दूसरे को कागजी भाजपाई दलित नेता! लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या राष्ट्रपति जैसे पद की उम्मीदवारी के लिए उम्मीदवार की घोषणा करते समय उसकी जातीय पहचान की घोषणा जरूरी थी? क्या किसी गैर-दलित की उम्मीदवारी के मामले में ऐसा कभी हुआ? फिर, 19 जून 2017 को कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा करते समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को क्यों कहना पड़ा कि रामनाथ कोविंद दलित समाज से उठकर आए हैं और उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए बहुत काम किया है.
शाह सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं इसलिए उनकी यह घोषणा कहीं रोहित वेमुला, उना, और सहारनपुर की घटनाओं से उपजे दलित आक्रोश, जिसकी अभिव्यक्ति 21 मई और 18 जून की जंतर मंतर की ऐतिहासिक और अप्रत्याशित रैली में देखी गई, के प्रति हताशा का परिणाम तो नहीं? क्या कोविंद, सरकार और भाजपा के विरुद्ध उभरे दलित आक्रोश को शांत करने की रणनीति के प्रतीक स्वरूप पेश किए गए? जाहिर है इन घटनाओं के अलावा अबाध निजीकरण और आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना से दलित वर्ग आक्रोशित तो है ही. इन मुद्दों पर दलित नेताओं की चुप्पी ने पूना पैक्ट की याद ताजा कर दी है.
अब प्रश्न है कि क्या किसी व्यक्ति का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बनना दलितमुक्ति का पर्याय है? क्या इससे दलितों के सम्मान, सुरक्षा, रोजगार, अधिकार की समस्या हल हो जाएगी? यदि नहीं तो जाहिर है इस तरह किसी व्यक्ति की जाति को प्राथमिकता देकर उम्मीदवार बनाने का महत्त्व सिर्फ श्रृंगारिक ही है. व्यक्तिगत मुक्ति संभव है, लेकिन जमात की मुक्ति नहीं. इस परंपरा की जड़ें भारतीय इतिहास में देखी जा सकती है– ‘शूद्र’ के राजा बनने के बाद ‘पुरोहित’ घोषणा करता है. अब आप शूद्र नहीं क्षत्रिय हुए और आपका धर्म है वर्णाश्रम धर्म की रक्षा. नंद, मौर्य से लेकर शिवाजी तक में इस परंपरा के साक्ष्य देख सकते हैं. यह अकारण नहीं था कि शिवाजी को काशी के ब्राह्मण के बाएं पैर के अंगूठे से राजतिलक कराना पड़ा था.
लोकशाही की मर्यादा है, किसी न किसी को तो चुनना है. मायावती ने वादे के अनुसार मीरा कुमार के समर्थन में घोषणा कर दी है. बिहार के दलित नेता रामविलास पासवान ने घोषणा की थी कि कोविंद का विरोध दलित का विरोध समझा जाएगा, अब उन्हें बताना होगा कि क्या मीरा कुमार का विरोध दलित महिला का विरोध होगा या नहीं? बिहार में महिला ‘सशक्तीकरण’ के प्रतीक और महादलितों के ‘शुभचिंतक’, कांग्रेस के गठबंधन में चुनाव जीतने और सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार के राजनीतिक व्याकरण में राजेंद्र प्रसाद के बाद बिहार से दूसरी राष्ट्रपति उम्मीदवार जगजीवन बाबू की बेटी ‘महादलित’ महिला मीरा कुमार कहां फिट बैठती हैं? महिला आरक्षण और सशक्तिकरण पर मुखर आवाज बुलंद करने वालीं सुषमा स्वराज जैसे नेताओं का निर्णय भी दिलचस्प होगा– पार्टी लाइन या महिला?
-डॉ. रतन लाल, लेखक हिंदू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
जनसत्ता से साभार प्रकाशित

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