अमेरिका में नस्लीय हमले और भारतीय मीडिया

अमेरिका एक बार फिर नस्लीय हमलों से दहल उठा है. नए सिरे से इसकी शुरुआत जुलाई के पहले सप्ताह के शेष में पुलिस की गोली से दो दिन में दो अश्वेतों की मौत से हुई है. पहली घटना पांच जुलाई की है. उस दिन लुसियाना पुलिस ने एल्टन स्टर्लिंग नाम के एक अश्वेत को पार्किंग स्थल पर रोका. पुलिस को उस पर हथियार रखने का शक था. कहासुनी और हाथापाई के बाद 37 वर्षीय एल्टन को पुलिस वालों ने जमीन पर गिरा दिया और उस पर कई गोलियां झोंक दिया, जिससे मौके वारदात पर ही उसकी मौत हो गयी. दूसरी घटना अगले ही दिन मिनेसोटा में घट गयी. वहां अपनी महिला मित्र के साथ कार में सवार फिलांडो क्रेस्टीले नामक अश्वेत से पुलिस ने ड्राइविंग लाइसेंस दिखाने को कहा. फिलांडो जब लाइसेंस निकाल रहा तब पुलिस को लगा वह गन निकाल रहा है. ऐसा लगते ही पुलिस ने उसे गोलीयों से उड़ा दिया. फिलांडो की महिला मित्र ने उस घटना की वीडियो बना लिया. उस वीडियो के वायरल होते ही एल्टन की मौत से शुरू हुआ विरोध-प्रदर्शन और विकराल रूप धारण कर लिया और अगले दिन डलास में 800 लोग विरोध प्रदर्शन के लिए जमा हो गये. विरोध को देखते हुए मौके पर सौ के करीब पुलिस तैनात की गयी थी.

विरोध प्रदर्शन शांति से चल रहा था लेकिन अचानक गोलीबारी शुरू हो गयी. निशाना श्वेत पुलिस अधिकारियों को साध कर लगाया जा रहा था. गोलीबारी में13 लोग जख्मी हुए. घायल होने वालों 12 पुलिस अधिकारी थे, जिनमे पांच की मौत हो गयी. आत्मसमर्पण करने से इनकार करने पर हत्यारे को रोबोट बम से उड़ा दिया गया. बाद में हत्यारे की पहचान अफगान युद्ध में शिरकत किये अश्वेत मीकाह जॉनसन के रूप में हुई. अमेरिका के इतिहास में वहां पुलिस के लिए यह सबसे दुखद दिनों में एक था. इससे पहले अमेरिकी पुलिस को सबसे बड़ी चुनौती कुख्यात 9/11 को मिली थी जिसमें 72 पुलिस वाले हताहत हुए थे. जॉनसन ने बम से उड़ाए जाने के पूर्व पुलिस वालों को खुलकर बताया था कि वह अश्वेतों की हत्या से नाराज है और गोरे लोगों की हत्या करना चाहता है, खासकर गोरे पुलिस वालों की. बहरहाल डलास के इस हत्याकांड ने फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के याद ताजा कर दी.

लोग भूले नहीं होंगे अमेरिका के मिसौरी प्रान्त के फर्ग्यूसन इलाके की अगस्त 2014 की वह घटना है जिसमें 18 साल के अश्वेत युवक माइकल ब्राउन द्वारा एक स्टोर से जबरन सिगार का पैकेट उठा लिए जाने के बाद मौके पर पहुंचे गोरे पुलिस आफिसर डरेन विल्सन से उसकी तकरार हो गयी और देखते ही देखते उस पुलिस अधिकारी ने उस पर गोलियां बरसा दी थी. बाद में नवम्बर 2014 के तीसरे सप्ताह में जब डरेन विल्सन पर ग्रांड ज्यूरी ने अभियोग चलाने से इंकार कर दिया,वहां के लगभग दर्जन भर शहरों में दंगे भड़क उठे. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के दौरान ही पुलिस की गोली से दो और अश्वेतों की हत्या हो गयी. अश्वेतों ने इन मौतों को फर्ग्युसन कांड से जोड़ते हुए उग्र धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला अमेरिका के अन्य शहरों तक फैला दिया.

फर्ग्युसन प्रोटेस्ट शुरू होने के ठीक एक महीने बाद एक व्यक्ति ने न्यूयार्क पुलिस के दो अफसरों को काफी करीब से गोली मार कर हत्या करने के बाद खुद को भी अपनी ही बन्दूक की गोली से उड़ा लिया. बंदूकधारी की पहचान 28 वर्षीय इस्माइल ब्रिन्स्ले के रूप में हुई है जो हत्या कांड को अंजाम देने के लिए बाल्टीमोर से 300 किलोमीटर का सफ़र कर न्यूयार्क पहुंचा था. पुलिस अधिकारयों के मुताबिक ब्रिन्स्ले ने सोशल मीडिया पर लिखा था कि माइकल ब्राउन और एरिक गार्नर नामक दो अश्वेतों की पुलिस अधिकारियों द्वारा की गयी हत्या के कारण वह पुलिस अधिकारियों की जान लेना चाहता है. उसने घात लगाकर गश्ती कार में बैठे दोनों अफसरों पर बन्दूक तान कर खिड़की से उनके सिर और शरीर के उपरी हिस्से पर गोली मार दी. इसके बाद वह एक मेट्रो स्टेशन की ओर भाग गया और वहां खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली.इस घटना से न्यूयार्क सिटी वैसे ही शोक में डूब गयी थी, जैसे आज डलास डूबा है. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के न्यूयार्क और अब डलास पुलिस हत्याकांड में जो सबसे बड़ी साम्यता है वह यह कि तबके इस्माइल ब्रिन्सले और आज के मीकाह जॉनसन दोनों में ही अपने अश्वेत भाइयों के पुलिस द्वारा मारे जाने से बेहद दुखी थे और इससे दोनों के ही मन में गोरों, खासकर गोरे पुलिसवालों के प्रति अपार घृणा पैदा हो गयी थी जिस कारण उन्होंने लगभग फिदायिनी अंदाज में हमला अंजाम दे दिया.

 

बहरहाल पिछले दो सालों में फर्ग्युसन से शुरू होकर डलास तक पहुचे नस्लभेद के खिलाफ अश्वेतों में बढ़ता आक्रोश अमेरिका के 1960 के दशक की और मुड़ने का संकेत देने लगा है. सचमुच कुछ ऐसा होता दिख रहा है इसलिए राष्ट्रपति ओबामा को जोर देकर कहना पड़ा है अमेरिका में साठ के दशक वाले हालात नहीं पैदा हुए हैं. पर पैदा न होने के बावजूद ओबामा की सफाई बताती है स्थिति गंभीर है. किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि नस्लभेद के चलते साठ के दशक की ओर लौटने का संकेत देने वाली डलास की घटना को भारतीय मीडिया मुख्य रूप से अमेरिकी नागरिकों के पास बड़ी तादाद में पड़े हथियारों की परिणति बता रही है. इसके मुताबिक़ इस हत्याकांड के बाद बंदूकों पर नियंत्रण को लेकर फिर से बहस शुरू होगी. लेकिन अमेरिका में बंदूकों की बहुतायतता निश्चय ही एक समस्या है, पर फर्ग्युशन और डलास कांड के पीछे क्रियाशील कारणों में इसका स्थान सर्वनिम्न पर है. डलास नस्लभेदी घटनाओं के खिलाफ वंचित अश्वेतों के आक्रोश की उपेक्षा कर, हथियारों की बड़े पैमाने पर मौजूदगी को सबसे बड़ा सबब बताने से क्या ऐसा नहीं लगता कि भारत की सवर्णवादी मीडिया सुनियोजित तरीके से अमेरिकी युवकों में नस्लभेद के खिलाफ उभरे आक्रोश से बहुजनों का ध्यान भिन्न दिशा में खीचना चाहती है ताकि बहुजन युवा जातिभेद के खिलाफ अश्वेत अमरीकियों की भूमिका न अख्तियार करने लगें? यह शक इसलिए पैदा हो रहा है कि व्यवसाय-वाणिज्य, फैशन,टेक्नोलाजी, फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित अमेरिका की जीवन शैली तक का अन्धानुकरण करने तथा अपने बच्चों को वहां बसाने का सपना देखने वाले किसी सवर्ण नेता, लेखक, कलाकार इत्यादि ने कभी मीडिया में ऐसा सन्देश नहीं दिया, जिससे अमेरिका के अश्वेतों की भांति भारत के बहुजन भी वहां से कुछ प्रेरणा ले सकें. अगर ऐसा नहीं होता तो अमेरिका में 70 के दशक से लागू वहां की सर्वव्यापी आरक्षण पद्धति (डाइवर्सिटी) से भारत का बहुजन पिछली सदी में ही भलीभांति वाकिफ हो जाता. लेकिन इससे अवगत होने के लिए बहुजनों को नयी सदी में चंद्रभान प्रसाद के उदय का इन्तजार करना पड़ गया.

दरअसल अमरीका में पिछले दो सालों से वंचित अश्वेत एक से एक जो भयावह काण्ड अंजाम दिए जा रहे हैं उसके पीछे वहां की न्यायपालिका और पुलिस प्रशासन में उचित भागीदारी की मांग है. अमेरिका में डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत वहां के अश्वेतों को उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, ज्ञान क्षेत्र इत्यादि में शेयर जरुर मिला, पर पुलिस विभाग और न्यायपालिका में वह अपर्याप्त है. मसलन 2014 में जिस फर्ग्यूसन से दंगे भड़के, वहां की 70 प्रतिशत आबादी अश्वेतों की संख्या स्थानीय पुलिस बल के 53 सदस्यों में सिर्फ तीन थी .जिस ग्रांड ज्यूरी के फैसले से लोगों का गुस्सा फूटा है, वहां उसके बारह सदस्यों में नौ श्वेत और तीन ही अश्वेत थे. पुलिस बल और ग्रैंड ज्यूरी में अश्वेतों जो स्थिति फर्ग्युसन में है, उससे बहुत भिन्न डलास की भी नहीं है. पुलिस बल और न्यायपालिका में श्वेतों का भरमार वहां के अश्वेतों के न्याय के मार्ग में बाधा है. ऐसा है तभी तो अमेरिका के 13 प्रतिशत कालों की जेलों में उपस्थिति 35 प्रतिशत है.पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका पूर्वाग्रही तभी तो गोरों के 5.9 के मुकाबले कालों के पूरे जीवन में जेल जाने की सम्भावना 32.2 है. खुद अमेरिका के न्याय विभाग की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि ट्रैफिक स्टॉप पर गोरों के मुकाबले तीन गुनी ज्यादा चेकिंग कालों की होती है. कालों के प्रति अमेरिकी पुलिस बल और न्यायपालिका के भीषण पूर्वाग्रही होने के यह सबूत क्या कम है? बहरहाल इसका इल्म भारतीय मीडिया को हो या न हो, पर राष्ट्रपति ओबामा को है इसलिए 2014 में ग्रांड ज्यूरी के फैसले के सम्मान का अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने यह कह डाला था-‘अश्वेत अमेरिकियों और कानून प्रवर्तन के बीच बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’

इधर 70 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले जिस गोरे अमेरिकी प्रभुवर्ग ने अश्वेतों के लिए उद्योग-व्यापार,शासन-प्रशासन, फिल्म-टीवी इत्यादि में सर्वव्यापी आरक्षण नीति (डाइवर्सिटी) लागू करवाने में सदाशयता का परिचय दिया पिछले कुछ वर्षों से वह अब धीरे-धीरे उनके प्रति अनुदार व पूर्वाग्रही होने लगा है. अगर ऐसा नहीं होता तो वहां हाल दिनों में कैसे अश्वेतों के विरुद्ध सक्रिय श्वेतों के 95 हेट- ग्रुप वजूद में आ गए? अमेरिकियों में आये इस नकारात्मक बदलाव के कारण ही डोनाल्ड ट्रंपों का उदय होने लगा है. इस बदलाव के चलते वहां के पुलिस और न्यायपालिका में हावी श्वेत भी अश्वेतों के प्रति अतिरिक्त रूप से पूर्वाग्रही होते जा रहे हैं. अश्वेतों का मानना है कि यदि न्यायपालिका और पुलिस बल में पर्याप्त शेयर मिल जाय तो उनपर नस्लीय भेदभाव में और कमी आएगी. लेकिन फिलहाल वैसा होता दिख नहीं रहा है, इसलिए प्रभुवर्ग पर दबाव बनाने के लिए किसी भी घटना की आड़ में वे भयावह कांड अंजाम दिए जा रहे हैं. इस असल कारण को सवर्ण प्रभुत्व वाली भारतीय मीडिया दबा कर रखना चाहती है, ताकि भारत के बहुजन युवा ब्रिन्सले और जॉनसनों से प्रेरणा न लेने लगें.

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ,मो-9654816191 )

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