आरएसएस-भाजपा के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को निकालने के मार्ग की एक पहली बाधा राहुल गांधी पार करते हुए दिख रहे हैं। पहली चीज यह समझनी और कहनी थी कि आरएसएस-भाजपा से संघर्ष सामान्य राजनीतिक संघर्ष नहीं है, जिसमें एक पार्टी सत्ता में आती है और दूसरी पार्टी उसे चुनावों में सत्ता से बेदखल कर देती है। कमोबेश जैसी राजनीति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के केंद्रीय सत्ता पर कब्जा करने से पहले थी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता पर कब्जा करने के बाद स्थिति गुणात्मक तौर पर बदल गई थी। यह पिछले 10 सालों में और साफ हो गया है।
भाजपा ने सरकार नहीं बनाई है, बल्कि भारत की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर आरएसएस-भाजपा ने कब्जा कर लिया है। इन संस्थाओं में न्यायपालिका, स्थायी कार्यपालिका (नौकरशाही), मीडिया और राज्य की अन्य संस्थाएं शामिल हैं। इसमें वौद्धिक विचार-विर्मश के केंद्र उच्च शिक्षा-संस्थाएं और इस तरह की अन्य संस्थाएं भी शामिल हैं। सीबीआई, ईडी आदि की बात छोड़ दीजिए। सेना और अर्द्धसैनिक और पुलिस व्यवस्था तक का काफी हद तक हिंदुत्वादीकरण कर दिया गया है।
राजनीतिक लोकतंत्र निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र चुनावों पर निर्भर करता है। जिसकी पूरी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर होती है। चुनाव आयोग भाजपा की कठपुतली बन चुका है। कार्पोरेट के धन, द्विज-सवर्ण कार्पोरेट मीडिया और चुनाव आयोग ने चुनाव को भाजपा के पक्ष में करीब-करीब मोड़ दिया है। कार्पोरेट धन से सरकारे गिराई और बनाई जा रही हैं और बनाई जा सकती हैं। इस स्थिति में आरएसएस-भाजपा के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र को निकालने की तीन शर्तें थीं-
1- इनके खिलाफ वैचारिका संघर्ष शुरू करना और इस संघर्ष में दोस्त-दुश्मन शक्तियों की पहचान करना।
2- कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे को इस वैचारिक संघर्ष के अनुकूल बनाना।
3- इस देश के लोकतंत्र और संविधान की दुश्मन शक्तियों के खिलाफ व्यापक जन गोलबंदी करना,सिर्फ वोट के लिए नहीं, बल्कि बड़े पैमाने के जन-संघर्ष के लिए।
राहुल गांधी ने आरएसएस-भाजपा और उसके वैचारिक संगठन और उनके साथ मुट्ठी भर कार्पोरेट का गठजोड़ इस देश के संविधान, लोकतंत्र और व्यापक जन का दुश्मन है, इसे काफी हद चिन्हित कर लिया है। वे इसे बार-बार सीधे, साफ लफ्जों में साहस के साथ कह रहे हैं। संघर्ष मनुवाद और संविधान के बीच है, यह बोल रहे हैं।
इसके साथ ही उन्होंने यह ठीक से पहचान लिया है कि इस देश के दलित,आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक (देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी) संविधान और लोकतंत्र के साथ हैं। राहुल गांधी ने इसे चिन्हित भी कर लिया है। संविधान, जाति आधारित आर्थिक-सामाजिक जनगणना और आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी जैसे शब्दों में इसे अभिव्यक्त कर चुके हैं।
इस तरह उन्होंने आरएसएस-भाजपा की वैचारिकी और उसके मनुवाद और कार्पोरेट परस्त एजेंडे को संविधान, लोकतंत्र और व्यापक जनता के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं, जो सच है। वे साफ शब्दों में कह रहे हैं और सही कह रहे हैं कि आज का संघर्ष वैचारिक संघर्ष हैं यह सिर्फ सरकार के बदलाव का संघर्ष नहीं है, यहां तक वे यह भी कह रहे हैं कि यह इंडियन स्टेट के खिलाफ संघर्ष है। इंडियन स्टेट से उनका साफ मतलब है, भारतीय राज्य की संस्थाएं, जो आरएसएस-भाजपा चंगुल में चली गई हैं।
अब राहुल गांधी के सामने दो बड़ी चुनौतियां है-
1-पहला यह है कि द्विज-सवर्णों और कार्पोरेट के स्वार्थों और हितों के पूर्ति के लिए बने कांग्रेस के संगठन को दलितों, आदिवासियों, पिछड़े और पसमांदा मुसलमानों के लिए हितों के लिए काम करने वाले संगठन में बदलना, यह तभी संभव है, जब ऊपर से नीचे तक कांग्रेस के संगठन में नेतृत्व मुख्य रूप में इस बहुसंख्यक समूहों के हाथ में हो।
2- इस कांग्रेस को बदलने से काम नहीं चलेगा, देश व्यापक जनमानस को संघर्ष और बदलाव के लिए तैयार करना पड़ेगा। इसके लिए संविधान, लोकतंत्र और जाति जनगणना के मुद्दे के साथ ही जनता के अन्य बुनियादी मुद्दों पर व्यापक जन गोलबंदी करनी पड़ेगी। इन मुद्दों में लोकतांत्रिक-संवैधानिक मुद्दों के साथ और समान रूप ही आर्थिक सवालों को उठाना पड़ेगा। विभिन्न सवालों पर किसान आंदोलन जैसे बड़े आंदोलन की जरूरत है।
सही यह है कि देश की दूसरी आजादी का आंदोलन होगा, तभी लोकतंत्र-संविधान की रक्षा की जा सकती है और व्यापक जनता ही हित में देश को चलाने के बारे सोचा जा सकता है।
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लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।