जब भी हम किसान के बारे में बात करते हैं तो पंजाब में इसका मतलब जाट सिक्ख होता है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि पंजाब में ज्यादातर किसान इसी समुदाय से आते हैं। इस जाट सिख की तस्वीर का संत रैदास से कोई सीधा रिश्ता नजर नहीं आता था। हालांकि जाट सिख भी संत रैदास में श्रद्धा रखते हैं लेकिन फिर भी जाटों और रविदासिया समाज में कुछ दूरियाँ बनी हुई हैं। अभी तक जाट सिख बड़े पैमाने पर संत रैदास की जयंती मनाने के लिए भी आगे नहीं आ रहे थे। सामाजिक भेदभाव और छुआछूत के कारण जाट सिख समुदाय के लोग रविदासिया समाज के सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पा रहे थे।
लेकिन हाल ही में मजबूत हो रहे किसान आंदोलन में स्थिति बदल गई है और अब जाट सिख समुदाय भी संत रैदास के प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन कर रहा है। यह भारत के आंतरिक सामाजिक ताने-बाने और लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक बहुत बड़ी बात है। अभी 24 फरवरी को संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले किसान नेताओं ने घोषणा की कि वे संत रैदास की 645 वी जयंती सिंघु बॉर्डर पर मनाएंगे। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक निर्णय है। इस निर्णय की घोषणा करते हुए उन्होंने सभी किसानों से अपील की कि वह लोग सिंघु बॉर्डर पर जाएं और रैदास जयंती मनाए। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई नहीं आ सकता है तो अपने ही गांव और शहर में रैदास जयंती के कार्यक्रम में शिरकत करें।
अब सोचने वाली बात यह है कि किसान नेता रैदास जयंती के दिन ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए एक नई सोशल इंजीनियरिंग है? क्या यह किसान आंदोलन को मजबूत करने के लिए दो समुदाय में भाईचारा पैदा करने की रणनीति है? और इसका किसान आंदोलन सहित भारत के लोकतंत्र की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है?
आईए इस बात को समझने की कोशिश करते हैं।
पंजाब हरियाणा क्षेत्र में जब भी हम किसानों की बात करते हैं तो मन में तस्वीर उभरती है एक पगड़ी वाले सरदार की जो हाल जोत रहा है, या ट्रैक्टर चला रहा है। एक दलित या रविदासिया समाज के आदमी को किसान की तरह देखना लोगों की आदत में शुमार नहीं है। इस इलाके में जातिवाद भी भयानक तौर पर फैला हुआ है इसके कारण जाट सिख लोग गुरु रैदास जयंती मनाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में नहीं आते थे। रैदास जयंती मनाने के लिए सिर्फ दलित समझे जाने वाले रैदास या समुदाय के लोग एक बड़े पैमाने पर इकट्ठा हुआ करते थे। इसी पंजाब और हरियाणा इलाके में अगर गौर से देखें तो पता चलता है कि दलित समुदाय पर जाट सिख समुदाय द्वारा अत्याचार किए जाते हैं।
इसी तरह पूरे भारत में दलित और ओबीसी समुदाय के आपसे रिश्ते हमेशा नरम गरम होते रहे। किसान आंदोलन के बीच दलित समुदाय और ओबीसी किसान समुदाय के द्वारा आपस में रणनीतिक साझेदारी और रैदास जयंती एक साथ बड़े पैमाने पर मनाने का बहुत बड़ा मतलब भी निकाला जा सकता है। इस विषय में बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटी एंप्लॉय फेडरेशन अर्थात बामसेफ के एक प्रमुख नेता ने जो कहा वह समझना जरूरी है। बामसेफ के श्री जसवंत राय ने कहा कि “यदि किसान लोगों के बीच में गुरु रैदास की जयंती मनाई जाती है तो, यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम होगा। इसके जरिए जाट समुदाय भी गुरु रैदास जयंती में शिरकत कर सकेगा।” आगे उन्होंने यह भी कहा कि या भाईचारा केवल किसानों ताकि नहीं रहना चाहिए बल्कि समाज में गहराई से इसे हर गली हर मोहल्ले तक पहुंचना होगा।
सदियों से दलितों और जाट सिख समुदाय के रिश्तो में कड़वाहट बनी हुई है। आजादी के दौरान और आजादी के बाद जब दलितों में चेतना आई, तब पंजाब हरियाणा के जाट समुदायों ने इसका खुले मन से स्वागत नहीं किया। जाट सिख समुदायों के लोगों ने इसे अपने खिलाफ एक बगावत की तरह देखा। उन्हें लग रहा था कि अगर यह दलित चेतना फैल गई तो परंपरागत जमीदारो को आसानी से जो मजदूर मिलते थे वह सब मिलने बंद हो जाएंगे। इस तरह बड़े जमीदारों को अपनी जमीदारी खत्म होने का डर सताने लगा। इसीलिए संपन्न ओबीसी तब का दलितों में आजाद चेतना के जन्म से डरने लगा। ओबीसी के दिल में बैठा यही डर दलितों और ओबीसी के बीच में रिश्ते नहीं सुधरने दे रहा था।
इस विषय में जालंधर के प्रोफेसर इसी कौल बताते हैं कि दलितों पर ऊंची जाति के जाति के जमीदारों और वह भी सिंह के जमीदारों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों के कारण आदि धर्म मंडल आंदोलन 1920 में पैदा हुआ था। एक अलग धर्म की स्थापना इसका लक्ष्य था। अभी हाल ही में यूरोप में वियना में रविदासिया समुदाय के एक बड़े संत की हत्या के बाद स्थिति और बिगड़ गई थी। डेरा सचखंड बलान के प्रमुख संत की पंजाबी समुदाय द्वारा की गई हत्या के बाद रविदासिया समुदाय और जाट सिख समुदाय के बीच में संबंध और खराब हो गए थे। इस डेरा ने 2010 में सद्गुरु रैदास के जन्म स्थल बनारस में रविदासिया धर्म को एक अलग धर्म घोषित कर दिया था। इसके बाद इन लोगों ने गुरु ग्रंथ साहिब के 200 लोगों को अलग करके एक नई अमृतवाणी बनाई थी। इस प्रक्रिया के दौरान दोआबा क्षेत्र में सिखों और रावदासिया समुदाय के बीच में बहुत संघर्ष भी हुआ था।
सन 2021 की जनगणना के लिए भी कई रविदासिया लोग अलग धर्म के कॉलम की मांग कर रहे हैं। इसके लिए कई गीत भी बनाए गए हैं जो कि समाज में इस विषय में मांग उठाते रहते हैं। लेकिन इस सब के बावजूद जैसे ही कुछ समय पहले किसान आंदोलन शुरू हुआ इन समुदायों को आपसी भाईचारे का महत्व पता चला। अब यह समुदाय नजदीक आ रहे हैं और अपनी जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर इकट्ठा संघर्ष करना चाहते हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि अगर यह दोनों समुदाय रैदास साहब की जयंती मनाते हैं तो इनके बीच में दुश्मनी कम होगी और प्यार बढ़ जाएगा। इस बारे में प्रोफेसर कौल कहते हैं कि “इन दोनों समुदाय के द्वारा रैदास जयंती मनाया जाना बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को और भेदभाव को खत्म कर देगा”।
विशेषज्ञ भी बताते हैं कि नासिर भाई इससे इन समुदायों में कड़वाहट कम होगी, बल्कि इससे किसान आंदोलन को मजबूत करने में और मदद मिलेगी। एक ही उद्देश्य के लिए आवाज उठाने वाले करोड़ों लोग जब एक साथ आते हैं अब कोई भी आंदोलन बहुत मजबूत होकर उभरता। अगर यह दोनों समुदाय अलग-अलग बटे रहे तो आंदोलन स्वाभाविक रूप से कमजोर होगा। इसीलिए रैदास जयंती पर इन दोनों समुदायों का एक साथ आना कोई साधारण घटना नहीं है। के जरिए करोड़ों लोग एक मंच पर एक साथ आ जाएंगे। इसका एक और बहुत महत्वपूर्ण परिणाम निकलेगा। अभी तक किसान आंदोलन को सिखों और जाटों से जोड़कर देखा जा रहा है। रैदास जयंती मनाने से यह साबित हो जाएगा इस आंदोलन में बड़ी संख्या में दलित समुदाय भी शामिल है। इस प्रकार इस आंदोलन को किसी एक या दो समुदाय से जोड़कर देखने और दिखाने वाली षड्यंत्र पूर्ण रणनीति अपने आप कमजोर हो जाएगी।
इस प्रकार संत रैदास जयंती, न सिर्फ इंसानियत के लिए, और बहुजन भारत के भविष्य के लिए एक बहुत खूबसूरत सौगात लेकर आई है बल्कि भारत में करोड़ों गरीब और मजबूर किसानों के लिए एक बहुत बड़ा मौका लेकर भी आई है। संत रैदास की जयंती पर हजारों साल से दुश्मन बने हुए दो समुदाय अगर गले मिल जाते हैं तो यह संत रैदास को भी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। संत रैदास का अपना सपना था कि बेगमपुरा में सभी जन निवास करें जहां पर कोई गम ना हो। संत रैदास जयंती पर इस तरह के सोशल इंजीनियरिंग को सामने होते देखना भारत के लोकतंत्र को मजबूत होते हुए देखने के समान है। संत रैदास और बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों पर चलते हुए सभी समुदायों को आपसी मतभेद भुलाकर अपने साझा उद्देश्यों के लिए इकट्ठा संघर्ष करना चाहिए।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।