इस उदघाटन सत्र में मंच पर आसीन सम्मानित विद्वान साथियों, और उपस्थिति श्रोताओं, आप सभी को सप्रेम जय भीम, जय भारत!!
सत्यशोधक समाज की 151वीं वर्षगाँठ पर विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन के अंतर्गत औरंगाबाद में आयोजित इस 19वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का उदघाटन करते हुए, मुझे आज विशेष ख़ुशी हो रही है। यह जानकार अच्छा लगा कि विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन 1999 से महाराष्ट्र भर में समतावादी मूल्यों का जागरण करने का काम कर रहा है। इसके तहत आप 2007 से अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कर रहे हैं, जिसकी कड़ी में इस19वें सम्मेलन में मुझे भाग लेने का गौरव प्राप्त हुआ है। मैं इसके लिए आयोजन के पदाधिकारियों को, ख़ास तौर से किशोर धमाले जी को, धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिनके प्रेमपूर्ण आग्रह पर मैं यहाँ उपस्थित हुआ। मैं सचमुच आप लोगों के एक बड़े योगदान से अनभिज्ञ रहता, अगर मैं यहाँ न आता। आज मुझे इस मंच से महान साहित्यकारों को सुनने का अवसर मिलेगा। हालाँकि भाषाई समस्या मेरे साथ रहेगी, पर मन की भाषा सब साध लेती है।
साथियों, हिंदी क्षेत्र में, बल्कि कहना चाहिए कि हिंदी साहित्य में विद्रोह का स्वर बहुत ही आधुनिक घटना है। हिंदी में यह क्रान्ति मार्क्सवाद के कारण आई। अगर मार्क्सवाद न आता, तो हिंदी के लेखक अभी भी गगन-विहारी लेखन करते होते। मार्क्सवाद ने प्रगतिशील चेतना का निर्माण किया। किन्तु इसने हिंदी से ज्यादा उर्दू वालों को बहुत प्रभावित किया। हिंदी में प्रेमचन्द इसी प्रगतिशील चेतना का परिणाम हैं। इसीलिए मैं प्रेमचंद से पहले के हिन्दी साहित्य को ख़ारिज करता हूँ। लेकिन दलित क्रान्ति की साहित्यिक चेतना उसके परिवेश से जन्मी है। दलितों ने अपने जन्म से ही अपने इर्दगिर्द अस्पृश्यता, भूख, गरीबी, अपमान, जलालत और तिरस्कार का वातावरण ही देखा। दलित जब अपनी बस्ती से निकलता था, तो सड़क पार करते ही उसके लिये संस्कृति बदल जाती थी। दलितों में विद्रोह की चेतना इसी परिवेश ने पैदा की। दलितों का विद्रोह मौलिक है। उन्नीसवीं सदी में डा. आंबेडकर की क्रान्ति ने दस्तक दी, तो उसे एक नई धार मिली। इसलिए हिंदी में दलित-विद्रोह वास्तव में विद्रोह की पहली और मौलिक धारा है। यह याद रखियेगा।
अब मैं कुछ संक्षिप्त चर्चा इतिहास पर करूँगा।
साथियों ! इस देश में दो विचारधाराएँ रही हैं: एक श्रमण विचारधारा और दूसरी वैदिक विचारधारा। इसमें पहली समतावादी विचारधारा है, और दूसरी विषमतावादी। बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने इसे क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति की विचारधारा कहा है। क्रान्ति की धारा का नेतृत्व किसी एक जाति और वर्ग के हाथ में नहीं है, किन्तु प्रतिक्रान्ति की धारा, यानी विषमतावादी विचारधारा का नेतृत्व हमेशा एक ख़ास जाति और वर्ण, ब्राह्मण के हाथ में रहा है। वह आज भी उसके हाथ से किसी अन्य वर्ग या जाति के हाथ में नहीं गया है, और आगे भी इसकी सम्भावना नहीं है। इसलिए विषमतावादी विचारधारा को ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी विचारधारा भी कहा जाता है। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को सामाजिक भेदभाव पसंद है, ऊंच-नीच का भाव पसंद है, बहुत सारे देवी-देवता पसंद हैं। वैदिक विचारधारा को एक ईश्वर पसंद नहीं है, क्योंकि एक ईश्वर के नाम पर अलग-अलग मंदिर और आडम्बर खड़े नहीं किये जा सकते, एक ईश्वर के नाम से भोग और दंड की संस्कृति खड़ी नहीं की जा सकती, और सबसे बड़ी बात, एक ईश्वर के नाम पर लोगों को डराने-धमकाने का उन्माद पैदा नहीं किया जा सकता। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को स्त्रियों और निम्न वर्गों की शिक्षा पसंद नहीं है, क्योंकि निम्न वर्गों का शिक्षित होना ब्राह्मण के प्रभुत्व के लिए खतरा पैदा करती है। उसे देश में भौतिक आविष्कार और नई तकनीक पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसके गढ़े हुए ज्ञान पर सवाल खड़े होते हैं। उसे विज्ञान पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसकी धर्म-सत्ता पर आंच आती है। वह शास्त्रों में विश्वास करता है, और लोक-यथार्थ की उपेक्षा करता है।
असल में यह श्रमण विचारधारा के विरुद्ध ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति थी। दूसरे शब्दों में यह आजीवकों, लोकायतों और बुद्ध की क्रान्ति के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति थी। प्रतिक्रान्ति का एक दौर होता है, एक कालखंड होता है, पर वह हमेशा नहीं रहता। भारत में ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति का कालखंड पुष्यमित्र शुंग का समय है। इसी काल में ब्राह्मण ग्रन्थ लिखे गए, मनुस्मृति लिखी गई, बौद्धों के खिलाफ जनता में नफरत फैलाई गई, बौद्ध मंदिर ध्वस्त किए गए और एक बड़े पैमाने पर बौद्धों का कत्लेआम हुआ। इसी काल में स्त्री-शूद्रों के खिलाफ कठोर कानून बनाए गए, उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया, और स्त्रियों को घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। अंतरजातीय विवाह सख्ती से रोक दिए गए। ये सारी कठोरताएं इससे पहले के समय में नहीं थीं। ब्राह्मणवाद की यह प्रतिक्रान्ति लगभग दो सौ साल रही। उसके बाद हर्षवर्धन का समय आया, और ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक बहुत बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह का समय चौथी-पांचवी शताब्दी का है। यही समय भक्ति आन्दोलन के आरम्भिक चरण का भी है।
यह आन्दोलन एक बहुत बड़ा विद्रोह था। विद्रोह नहीं, विद्रोह का सैलाब था। इस काल में ज्ञान के क्षेत्र में शूद्रों और स्त्री-संतों ने तूफ़ान की तरह प्रवेश किया। जिस स्त्री को ब्राह्मण-धर्म ने घर की चौखट तक सीमित कर दिया था, जिसके लिए मनु ने सिर्फ पति-सेवा ही एकमात्र धर्म बना दिया था, और जिसे शिक्षा तक से वंचित कर दिया था, उस स्त्री ने इस काल-खंड में संत बनकर ब्राह्मण-धर्म के विरुद्ध ऐसा विद्रोह किया, जिसे रोकने का साहस आज भी ब्राह्मण-नेतृत्व में नहीं है।
इसी सदी में आजीवक दर्शन ने ब्राह्मणधर्म के खिलाफ ऐसा विद्रोह किया कि शंकर भी तिलमिला गए। उसने ‘ब्रह्मसूत्र’ के अपने भाष्य में आजीवकों को ‘प्राकृत जन’ यानी असभ्य, यानी गंवार कहा। इसके बाद आठवीं सदी में विद्रोह का एक दूसरा सैलाव सिद्धों के रूप में आया, जिनका बारहवीं सदी तक समाज में अमिट प्रभाव बना रहा। इन सिद्धों में सभी वर्णों के स्त्री-पुरुष थे, जिनमें 28 शूद्र और 4 स्त्रियाँ भी सिद्ध थीं। इसके बाद, दसवीं सदी में गोरखनाथ हुए, जिन्होंने नाथ-संप्रदाय की नींव डाली। नाथ शिव-भक्त थे। पर वे ब्राह्मणवादी विचारधारा के विद्रोही और समतावादी विचारधारा के प्रचारक थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नाथों के ज्ञान-दर्शन ने सम्पूर्ण भारत को अपने प्रभाव में ले लिया था। पूरा उत्तर भारत ही नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर नेपाल तक में नाथ-दर्शन का प्रभाव था।
कल्पना कीजिए, जिन शूद्रों के द्वारा धर्म का उपदेश देने पर उनकी जीभ काटने का विधान मनु ने बनाया था, वे शूद्र भक्ति-काल में बड़ी संख्या में संत बनकर धर्मगुरु बन गए। यह ब्राह्मण और ब्राह्मण-धर्म दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी, क्योंकि मनु के विधान के अनुसार ब्राह्मण ही धर्मगुरु बन सकता है। किन्तु इन शूद्र संतों का विद्रोह इतना जबरदस्त था कि उन्होंने किसी भी ब्राह्मण को अपना गुरु स्वीकार नहीं किया। यही नहीं, उन्होंने बड़े-से बड़े पुनीत और ऊंचे कुल के ब्राह्मण संतों तक को महत्व नहीं दिया। कबीर ने ऐसे ब्राह्मण संतों का मज़ाक बनाते हुए कहा— ‘अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई/ इनसे दिच्छा सब कोई मांगे, हंसी आवै मोहि भाई।’
ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों और कर्मकांडों को इन शूद्र संतों ने न सिर्फ नकारा, बल्कि उनके खिलाफ जनता में अलख भी जगाई। उन्होंने सिर्फ समानता और मानव-प्रेम को स्थापित करने पर जोर दिया, जिसका ब्राह्मण-धर्म में अस्तित्व न कल था और न आज है। इस सन्दर्भ में कन्नप्पार नामक नयनार संत सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। वह निषाद जाति के थे। उन्होंने ब्राह्मण को गुरु नहीं माना, बल्कि एक शूद्र को अपना गुरु स्वीकार किया। मीराबाई ने किसी ब्राह्मण को नहीं, चमार जाति के महान संत रैदास साहेब को अपना गुरु बनाया था।
पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते तो इन स्त्री-शूद्र संतों ने वर्णव्यस्था का ऐसा क़िला ध्वस्त किया कि भारत की ब्राह्मण सत्ता ने तिलमिलाकर उनको ठिकाने लगाने के लिए ब्राह्मण विद्वानों की पूरी फौज उतार दी। स्त्री-शूद्रों के इस विद्रोह का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उस विद्रोह में गैर-ब्राह्मण जातियों का भी प्रवेश हो गया था। कई क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के स्त्री-पुरुष भी संत हो गए थे, जो जनता को धर्म का उपदेश देकर ब्राह्मण को खुली चुनौती दे रहे थे।
पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर और रैदास ने जो क्रान्ति की, उसने ब्राह्मणवाद और वैदिक संस्कृति के विरुद्ध समाज में ज्ञान और सामाजिक संघर्ष की नई चेतना ही विकसित नहीं की, बल्कि कई नई धार्मिक क्रांतियों को भी जन्म दिया। इनमें दो क्रांतियाँ बहुत प्रमुख हैं : गुरु नानक की धार्मिक क्रान्ति और गुरु घासीदास की सतनामी क्रान्ति। कबीर ने खुल्लमखुल्ला कहा कि ब्राह्मण उनका गुरु हो ही नहीं सकता, क्योंकि ब्राह्मण के पास सिर्फ पोथियों का ज्ञान है, उसके पास समाज का वास्तविक ज्ञान नहीं है। उन्होंने कहा—‘ब्राह्मण गुरू जगत का, साध का गुरू नाहीं/ उरझ-पुरझ कर मर रह्या, चारों वेदा माहिं।’ रैदास साहेब ने कहा, ‘ब्राह्मण को मत पूजिए जो हो गुण से हीन / पूजिए चरण चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।’ यह एक नया सौन्दर्य शास्त्र था, जो गुण और योग्यता को महत्व देता था। सौ साल बाद तुलसीदास ने इसी की प्रतिक्रान्ति में कहा, ‘पूजिए विप्र सील गुण हीना/ नाहिं न शूद्र गुण ज्ञान प्रवीना।’ यानी अयोग्य और अज्ञानी ब्राह्मण भी पूजनीय है, जबकि योग्य और ज्ञानी शूद्र भी सम्मान का पात्र नहीं है।
यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि विषमतावाद के विरुद्ध समतावाद की लड़ाई कभी भी ब्राह्मणवादियों के नेतृत्व में नहीं लड़ी जा सकती। कबीर और रैदास इसीलिए सफल हुए, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण रामानन्द के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया था। जिसने भी समाज को बदलने की लड़ाई ब्राह्मणवादी नायक के नेतृत्व में लड़ी, उसे कभी सफलता नहीं मिली। ब्राह्मणवाद की धारा के विरुद्ध लड़ाई की पूरी परम्परा के इतिहास में अगर आप देखेंगे तो यह लड़ाई वहीं कमजोर हुई है, जहाँ उसका नेतृत्व किसी ब्राह्मण ने किया है। इसीलिए ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी तिलक का और डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि वे अपनी क्रान्ति में सफल हुए।
पंद्रहवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो विद्रोह हुआ, वह फिर रुका नहीं, अनवरत जारी रहा। यह सोलहवीं शताब्दी में भी नहीं रुका, जब तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की भरसक कोशिश की। तुलसी के समय में ब्राह्मण को धर्म का उपदेश देने वाले शूद्र जातियों के लोग इतनी बड़ी संख्या में थे कि उससे तिलमिलाए हुए तुलसी को मानस में लिखना पड़ा—‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सम, हम तुम्ह तें कछु घाटि/ जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर आँखि देखाबहिं डाटि।’ शूद्र द्विजों से कहते थे, हम तुमसे कम नहीं हैं, तुमसे हीन भी नहीं हैं, क्योंकि हम भी ब्रह्म को उतना ही जानते हैं, जितना तुम जानते हो।
किन्तु, दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भारत की शासन-सत्ता ब्राह्मणवादी नेताओं के हाथों में आई। उनका उद्देश्य समतावादी समाज का निर्माण करना बिलकुल नहीं था। इस सच्चाई को डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने आजादी मिलने से पहले ही महसूस कर लिया था। उन्होंने राष्ट्रवादी नेताओं के स्वतंत्रता-संग्राम पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि आज़ादी की लड़ाई सिर्फ दलित और आदिवासी वर्गों के लोग लड़ रहे हैं, शेष सारे राष्ट्रवादी नेता आजादी के लिए नहीं, बस, देश के संसाधनों पर अपना कब्जा करने के लिए लड़ रहे हैं। यही हुआ भी। जैसे ही भारत से अंग्रेज गए, और ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता आई, देश के सारे संसाधन उन्होंने अपने नियंत्रण में ले लिए। उन लोगों ने लोकतंत्र के नाम पर ब्राह्मणवादी राज्य कायम किया, और सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए जो आन्दोलन चल रहे थे, वे उनके दमन से प्रभावहीन होते चले गए। न दलित-आदिवासियों पर जुल्म कम हुए, और न गरीबी का खात्मा हुआ। समाज में यथास्थिति बनाए रखने के लिए हिन्दू धर्म तंत्र को तेज कर दिया गया, जिसके कारण सत्ता के संरक्षण में ब्राह्मणवादियों की प्रतिक्रान्ति दिन-पर-दिन तीव्र से तीव्र होती चली गई। आज वह चरम सीमा पर है।
यह इसी प्रतिक्रान्ति का परिणाम है कि फासीवादी ताकतों को सत्ता में आने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। उसकी ज़मीन आजादी के बाद से ही तैयार की जा रही थी। इन ताकतों ने राजसत्ता के साथ-साथ धर्म और विचार की स्वतन्त्रता पर भी नियंत्रण कर लिया। आज स्थिति यह है कि अन्याय के खिलाफ जो आवाज़ उठाता है, उसे देशद्रोही बता दिया जाता है और पुलिस और न्यायपालिका द्वारा उसे सालों तक जेल में सड़ाया जाता है। कोई-कोई जज न्यायप्रिय हुआ, तो उसे जमानत मिल जाती है, वरना वह जेल में ही पड़ा रहता है। कईयों ने तो जेल की कोठरी में ही दम तोड़ दिया। इसके विपरीत, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर खुली हिंसा करने वाले हिन्दुत्ववादी सत्ता के संरक्षण में आज़ादी से घूमते हैं। उन्हें कुछ भी उपद्रव करने, कुछ भी बोलने का परमिट मिला हुआ है।
फासीवाद के इस घोर मनुष्य-विरोधी वातावरण में, विद्रोह का साहित्य लिखना अब पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। यह दौर इतना पेचीदा है कि हमारा बहुजन समाज भी आरएसएस और हिन्दू संगठनों की पालकी ढो रहा है। हमारे आज के शम्बूक और एकलव्य ब्राह्मणवादी रंग में रंग गए हैं। वे गले में भगवा गमछा डाले, हाथों में त्रिशूल लिए सड़कों पर घूम रहे हैं। यह हमारे विद्रोह के लिए का एक नया मोर्चा है, जो इस फासीवाद ने पैदा किया है। इसलिए हमें अपने समाज के इन भटके हुए लोगों के विरुद्ध भी अपने विद्रोह को तेज करना होगा।।
विडंबना देखिए, दुनिया भर में पिछड़े वर्गों के संघर्ष खत्म हो गए, लेकिन भारत में न दलितों के संघर्ष खत्म हुए, न पिछड़ों के संघर्ष खत्म हुए, न आदिवासी समुदायों के संघर्ष खत्म हुए और न अल्पसंख्यकों के संघर्ष खत्म हुए। हमारे पुरखों ने संघर्ष किए, हमारी पिछली पीढ़ियों ने संघर्ष किए, और हमारी वर्तमान पीढ़ी के लोग भी संघर्ष कर रहे हैं। आगे भी कुछ पता नहीं, यह संघर्ष कभी खत्म होगा।
हिंदी के विद्रोही दलित कवि मोहन मुक्त वसुधैव कुटुम्बकम, यत्र नार्यस्तु पूजन्ते और सत्यमेव जयते को संस्कृति के चुटकुले कहते हैं। क्या हम कह सकते हैं ‘वसुधैव कुटुम्बकम?’ क्या हम कह सकते हैं ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते?’ क्या हम कह सकते हैं ‘सत्यमेव जयते?’ नहीं कह सकते। क्योंकि, इस वसुधा पर हमारे लिए प्यार का एक टुकड़ा तक नहीं है। हमारी स्त्रियाँ उनके लिए सम्मान की पात्र नहीं हैं। और हमारे लिए सत्य आज भी न्याय की अभिलाषा में दम तोड़ देता है। इसलिए चुप्पी तोड़ना जरूरी है, बोलना जरूरी है और लिखना जरूरी है। मोहन मुक्त की ही एक कविता की इन पंक्तियों से मैं अपने व्याख्यान का अंत करता हूँ—
कहो कि
चुप्पी नाज़ी चिमनियों से धुआं बन कर उड़ती है
और पूरी दुनिया में बेआवाज़ पसर जाती है
कहो कि चुप्पी भाषाओं में बदल गई है
कहो कि चुप्पी हमारे कानों में पिघल गई है
कहो कि चुप्पी
हमारे शरीरों पर हर समय जकड़ी हुई ज़ंजीरों में ढल गई है
कहो कि हमारी चुप्पी इतिहास में हुए पहले क़त्ल की चश्मदीद है
कहो कि चुप्पी ने अपनी जान बचाकर
हत्याओं को ही बना दिया है विधि-संहिता
कहो कि लाशों की बातें भी कही जा सकती हैं
कहो कि लाशों के कहने का अधिकार ही
ज़िन्दा लोगों का असली कर्तव्य होता है
कहो कि
अभिव्यक्ति
स्वतन्त्रता की तरह औपचारिक नहीं,
सांस की तरह आदिम है।
औरंगाबाद में 22 फरवरी को अ. भा. विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार कँवल भारती द्वारा दिया गया उदघाटन व्याख्यान