संत रैदास के बारे में कहानी है कि एक ब्राह्मण उनसे जूते बनवाता है, रैदास उससे पैसे नहीं लेते हैं। तब वो ब्राह्मण उनसे साथ में गंगा स्नान हेतु चलने का आग्रह करता है। रैदास कहते हैं समय नहीं है आप ही जाइए और गंगा को मेरी तरफ से ये एक सुपारी भेंट कर आइयेगा। ब्राह्मण जाता है और अनमने ढंग से सुपारी गंगा में उछालकर फेंकता है। तब गंगा स्वयं प्रगट होती हैं और ब्राह्मण को बदले में एक रत्नजडित कंगन देती हैं। ये कहानी आग की तरह काशी भर में फ़ैल जाती है और रैदास का प्रताप चारों तरफ फैलने लगता है।
गुस्साए ब्राह्मण रैदास को विवश करते हैं कि अगर तुम्हारी भक्ति सच है तो दुसरा कंगन लाकर दिखाओ। तब रैदास जूता बनाने के स्थान पर ही भजन गाने बैठ जाते हैं और उनकी जूते बनाने वाले बर्तन के पानी में गंगा प्रगट होती हैं और उन्हें दुसरा कंगन दे कर चली जाती हैं। ये देखकर ब्राह्मण रैदास से माफ़ी मांगते हैं उन्हें प्रणाम करते हैं।
इस कहानी का मतलब क्या है? ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं। और इनसे हुआ क्या? क्या बदल गया? दलितों की जिंदगी और भारत के समाज में क्या बदलाव हो गया? इसके बाद से आज तक ब्राह्मण और रैदास के भक्त दोनों के एक-दूसरे के प्रति व्यवहार में क्या बदलाव हुआ? ये दोनों एक-दूसरे के साथ क्या कर रहे हैं? क्या उस दिन गलती मान लेने और माफ़ी मांग लेने के बाद ब्राह्मणों ने दलितों से रोटी बेटी का रिश्ता शुरू कर दिया ? क्या मंदिरों में दलित पुजारी बैठ सके?
शोषक और शोषित का रिश्ता ऐसे ही चल रहा है। फिर भी दलित और शूद्र मंदिर, जगराते, पंडालों, कथाओं में जा रहे हैं और अपमानित हो रहे हैं। जिस धर्म में उन्हें इंसान नहीं समझा जाता वहीं वे बार-बार याचना और मदद की गुहार लेकर पहुँच जाते हैं। ये कब तक चलेगा? डॉ. अंबेडकर की बात दलितों और ओबीसी (शूद्र) को कब समझ आयेगी? ये लोग बौद्ध धर्म की महाक्रान्ति को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं?
भक्ति और संत परम्परा ने जो कुछ किया वो फिर से ब्राह्मणवाद द्वारा चबाकर पचा लिया गया है। किसी भी ज्ञात सन्त या गुरु को उसकी महानता, चमत्कार या योगदान सहित “उसकी सही जगह” पर ठिकाने लगाया जा चुका है। कबीर, रैदास और दूसरे सन्तों की यही हालत हो चुकी है। भक्ति या सामाजिक चेतना के विमर्श में वे कितने ही श्रेष्ठ बताए जाते हों, लेकिन उनसे जुड़ जाने भर ही से ब्राह्मणवाद से बच जाने की कोई विशेष संभावना नहीं है। लेकिन तथागत बुद्ध का मामला कुछ और ही है। बुद्ध के मार्ग पर आते ही ब्राह्मणवाद का जाल कटने लगता है। लोगों के व्यक्तिगत पारिवारिक और सामाजिक जीवन में गज़ब का बदलाव होता है।
मैंने कई राज्यों में जनजातीय समाज के मित्रों को ईसाई धर्म ग्रहण के बाद देखा है। उनमें एक पीढ़ी के बाद अंतर साफ नजर आता है। वे गुलाम, मजदूर की मानसिकता से निकलकर अधिकारचेता नागरिक बन जाते हैं। अनुसूचित जाति और ओबीसी के लोगों को बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद भी यही फर्क आता है। बल्कि ये फर्क पहले उदाहरण से बड़ा फर्क होता है, ज्यादा गहरा फर्क होता है। अचानक पूरे भारत का भूगोल, इतिहास और परम्परा पर उन्हें एक अधिकार महसूस होने लगता है। वे पहली बार भारतीय बनते हैं। वे पहली बार अपनी जड़ों से जुड़ते हैं और उन्हें आत्मसम्मान महसूस होता है।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।