विगत ढाई महीनों से कोरोना के दहशत भरे माहौल में लिखते-पढ़ते भारी राहत के साथ दिन इसलिए कट रहे थे क्योंकि अपना कोई आत्मीय – स्वजन, इसकी चपेट में नहीं आया था। किन्तु 6 जून की शाम 4 बजे जिस खबर से रूबरू हुआ, वह हमारे लिए कोरोना काल की सबसे बुरी खबर साबित हुई। शाम 4 बजे फेसबुक खोलते ही मेरी नजर डॉ कबीर कात्यायन के छोटे से पोस्ट पर पड़ी, जिसके साथ शांति स्वरूप बौद्ध व एक अन्य व्यक्ति की तस्वीर लगी थी। तस्वीरें देखकर बुरी आशंका से घिर गया। जल्दी से पोस्ट पर नजर दौड़ाया तो लिखा मिला, ’बेहद ही दुखद! आज क्या हो रहा है चारों ओर से दुखद ही दुखद समाचार मिल रहे हैं! भारतीय बौद्ध महासभा के दो बड़े स्तम्भ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार, बौद्ध विद्वान, प्रखर वक्ता, सफल प्रकाशक उद्यमी, बौद्धाचार्य शान्ति स्वरूप बौद्ध व रामपाल सिंह गौतम नहीं रहे …। खबर पढ़कर स्तब्ध रह गया। थोड़ी बाद आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। उसी स्थिति में अपने टाइम लाइन पर जाकर लिखा– ‘आंबेडकरी आंदोलन का एक स्तम्भ ढह गया! आंबेडकरी साहित्य प्रकाशन की सबसे बड़ी शख्सियत शांति स्वरूप बौद्ध सर हमारे बीच नहीं रहे। आँखों से आँसू निकल रहे हैं, मैं इससे ज्यादा कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूँ!’
कोरोना के समक्ष: जीवन युद्ध हार गए बौद्धाचार्य शांति स्वरूप बौद्ध !
पोस्ट लिखने के बाद इस विषय में विस्तार से जानने के लिए एक-एक करके प्रोफेसर विवेक कुमार, सुदेश तनवर, अशोक दास को फोन लगाया पर, दिल्ली के जिस व्यक्ति से पहले संपर्क हो सका, वह हीरालल राजस्थानी रहे। किन्तु उन्हें भी ज्यादे जानकारी नहीं थी। उनसे बस इतनी जानकारी मिली कि बौद्ध जी का दोपहर बाद निधन हो गया और शाम 5 बजे निगम बोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार होगा। निराश होकर मैंने भारी मन से डॉ. जय प्रकाश कर्दम को फोन लगाया और संपर्क हो गया। उन्होंने बताया कि 1 जून को उन्हें गंभीर हालत में दिल्ली के दिलशाद गार्डेन अवस्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हास्पिटल में एडमिट कराया गया था। निमोनिया से उन्हे सांस लेने मे दिक्कत हो रही थी, इसलिए उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। एडमिट होने के दिन ही शाम को उन्हें कोरोना से आक्रांत होने की रिपोर्ट आ गयी। उन्हें वहाँ लगातार वेंटिलेटर पर रखा गया, किन्तु अपेक्षित सुधार नहीं हुआ और आज दोपहर उनके निधन की दुखद खबर से दो चार होना पड़ा। उन्होंने इस बात के लिए अफसोस जताया कि श्मसान घाट पर सीमित व्यक्तियों की अनुमति के कारण चाहते हुये भी वहां जाकर उनको अंतिम विदाई नहीं दे सकते। उसके बाद तो हम देर तक बौद्ध जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करते रहे।
शांति स्वरूप बौद्ध से मेरी पहली मुलाक़ात
डॉ. जय प्रकाश कर्दम ही वह शख्स रहे जिन्होंने मेरा परिचय, 2 अक्तूबर, 1949 को अपने जन्म से बहुजन समाज को धन्य करने वाले इतिहास पुरुष उस शांति स्वरूप बौद्ध से कराया, जिनका नामकरण स्वयं बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने उनके जन्म के तीन दिन बाद अर्थात 5 अक्तूबर, 1949 को गुलाब सिंह से शांतिस्वरूप के रूप में किया था। 1999 के शेष दिनों में जब कर्दम साहब ने उनसे मेरा संपर्क कराया, उन दिनों वह मेरी पहली किताब ‘आदि भारत-मुक्ति: बहुजन समाज’ की भूमिका लिख रहे थे। तब तक किताब के लिए कोई प्रकाशक तय नहीं हुआ था और मुझे कम्पोजर को दस हजार रुपये भुगतान करने थे। मैंने अपनी समस्या कर्दम साहब के समक्ष रखी। उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे बौद्ध जी से मिलने के लिए कहा और मैं उनसे मिलने सम्यक प्रकाशन के ऑफिस पहुँच भी गया। पहली मुलाक़ात में ही उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार देखकर अभिभूत हुये बिना न रह सका। उनकी जीवंतता और ऊर्जा युवाओं को भी म्लान करती प्रतीत हो रही थी। वहाँ पहुँचकर चाय-पानी ले ही रहा था कि उन्होंने नोटों की एक गड्डी सामने रख दी और कहा,’ इसमें दस हजार हैं, ले जाइए अपना काम चलाइए और यदि कोई उपयुक्त प्रकाशक नहीं मिलता है तो मैं आपकी किताब प्रकाशित करूंगा। अभी मेरा प्रकाशन नया-नया है, इसलिए मोटी किताबें छापने से बच रहा हूँ। ‘मेरा सिर आभार से झुक गया। हालांकि वह किताब उनसे प्रकाशित करवाने की नौबत नहीं आई: उनसे मुलाक़ात के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक प्रकाशक मिल गया। किन्तु, उस पहली मुलाक़ात के बाद हम एक दूसरे के निकट आते चले गए। निकटता इतनी बढ़ी कि उन्हें जब सन 2000 के जून में अपने बड़े बेटे की शादी में आमंत्रित किया, वह भीषण गर्मी की उपेक्षा कर लखनऊ आकर सोत्साह विवाह सम्पन्न कराये। इसी तरह 2005 में भी वह मेरी लड़की का विवाह कार्य सम्पन्न कराने फिर लखनऊ आए।
आज भी याद आता है बौद्ध जी द्वारा कराये गए : मेरी किताबों का विमोचन समारोह
2000 के अक्तूबर से मैंने सामयिक मुद्दों पर लिखना शुरू किया और देखते ही देखते दो-ढाई वर्षों में ही लेखों की संख्या एक किताब प्रकाशित करने भर की हो गयी। बौद्ध जी मेरे लेखों के मुरीद थे। जब भी कोई लेख अखबारों में छपता, वह फोन करके बधाई देने के साथ कुछ मूल्यवान सुझाव भी देते। 2003 की शुरुआत में मैंने सम्यक प्रकाशन से उन लेखों का संग्रह निकालने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा, जिसे उन्होंने सोत्साह स्वीकार कर लिया। फलतः अगस्त 2003 में ‘वर्ण- व्यवस्था: एक वितरण’ तथा ‘हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष’ जैसी औसतन ढाई-ढाई सौ पृष्ठों की दो शानदार किताबें तैयार कर मुझे सुखद आश्चर्य में डाल दिये। ये दोनों किताबें इसलिए खास थीं क्योंकि इससे पहले किसी दलित के पत्रकारीय लेखों की ऐसी किताबें नहीं आई थीं। इन किताबों को प्रकाशित कर उन्हें भी भारी संतोष मिला था, लिहाजा उन्होंने इनका विमोचन शानदार तरीके से दिल्ली बुक फेयर में नामवर सिंह के हाथों करवाने की परिकल्पना की और नामवर सिंह जी ने चंद्रभान प्रसाद, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. श्योराज सिंह बेचैन, डॉ. रजत रानी मीनू, रूप चंद गौतम व अन्य हस्तियों की उपस्थिति में विमोचन किया भी। उसके बाद न जाने कितनी बार मेरी किताबों का विमोचन हुआ, उसकी संख्या मुझे याद नहीं है, किन्तु बौद्ध जी द्वारा कराये गए विमोचन की यादें मेरी स्मृति में आज भी ताज़ी हैं। बौद्ध जी ने न सिर्फ मेरे लेखों को दो शानदार किताबों का रूप देकर मुझे धन्य किया था, बल्कि उनके प्रकाशकीय में मेरे पत्रकारीय कर्म को इन शब्दों में सराह कर- “एच एल दुसाध जी ऐसे अकेले रचनाकार हैं, जो विचारों का निर्माण करने वाली पक्षपाती मीडिया को आड़े हाथों लेकर, दलित- पिछड़ों के चहेते चिंतक व पत्रकार बन गए हैं। संघ परिवार का कोई भी हथकंडा अथवा उसकी कूटचाल दुसाध जी की सूक्ष्म दृष्टि से बच नहीं पायी है.. भारतीय मीडिया की अमानवीयता एवं संवेदनहीनता को दुसाध जी जैसे मजबूत जीवट वाले लेखक ही उजागर कर सकते हैं। मीडिया के क्रूर पापों पर से पर्दा हटाने के लिए मैं दुसाध जी को कोटि-कोटि साधुवाद देता हूँ।” मेरे ऊपर जिम्मेवारी का एक खूबसूरत बोझ डाल दिया। कहना न होगा बौद्ध जी द्वारा जिम्मेवारी का डाला गया मुझ पर बोझ परवर्तीकाल में पत्रकारिता के इतिहास मेँ एक अध्याय रचने का सबब बना।
एक जिंदा देवी मायावती के पीछे बौद्ध जी की अद्भुत परिकल्पना!
‘वर्ण-व्यवस्था: एक वितरण-व्यवस्था’ तथा ‘हिन्दू आरक्षण और बहुजन संघर्ष’ के बाद बौद्ध जी ने मेरे अखबारी लेखों को लेकर एक और शानदार किताब 2005 में प्रकाशित की, जिसका नाम था,’ सामाजिक परिवर्तन और बीएसपी’। इस किताब के कई संस्करण आए और दावे के साथ कहा जा सकता है कि बसपा की राजनीति पर ऐसी दूसरी किताब आज तक नहीं आयी। किन्तु बौद्ध जी ने मेरी जो तीन किताबें प्रकाशित की थी, लेखक होने के नाते उनका अधिकांश श्रेय मुझको ही जाता था, पर, 2006 में सम्यक प्रकाशन की ओर से बसपा की राजनीति पर जो मेरी सबसे चांचल्यकर किताब आई, उसका 80 प्रतिशत श्रेय मैं बौद्ध जी को देता हूँ। वह किताब थी ‘कांशीरामवाद को साकार करती एक ज़िंदा देवी: मायावती’। यह किताब चिरकाल के लिए बसपा विरोधियों का मुंह बंद करवाने के मकसद से बौद्ध जी मुझसे लिखवाई थी, जो अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रही। इस किताब को लेकर यूपी विधानसभा में सवाल खड़े हुये तथा इसके ढेरों संस्करण प्रकाशित हुये। इस किताब के पीछे अपनी परिकल्पना का खुलासा करते हुये उन्होंने उसकी प्रकाशकीय में लिखा था।‘ इस पुस्तक के जन्म लेने का कारण भी भी बहुत रोचक रहा। मुझे ‘आज का सुरेख भारत’ नामक पत्रिका का एक अंक देखने को मिला, जिसके मुख पृष्ठ पर मायावती जी को चंडी के रूप में चित्रित किया हुआ था।उन्हीं दिनों ने बहन जी ने यह कहना जारी रखा हुआ था कि मैं ही जिंदा देवी हूँ। बस फिर क्या था ? मैंने इस विषय पर दुसाध जी को कलम चलाने का आग्रह किया। उन्होंने अपने स्वभाव के मुताबिक तुरंत ही यह पुस्तक रच डाली। इस पुस्तक के त्वरित लेखन से लेखक महोदय की बिलकुल भिन्न प्रकार की चिंतन क्षमताओं का आभास मिलता है।‘
मैंने आलोड़न सृष्टिकारी 200 पृष्ठीय जिंदा देवी.. पुस्तक सिर्फ तीन महीने में तैयार कर दिया था। सम्यक प्रकाशन से वह मेरी आखिरी किताब थी। ज़िंदा देवी मायावती के प्रकाशन के कुछ माह बाद मेरी प्राथमिकता में डाइवर्सिटी आ गयी और जुनून की हद तक डाइवर्सिटी मिशन को आगे बढ़ाने में जुट गया। इस मकसद से ही मैंने दुसाध प्रकाशन को आगे बढ़ाने का मन बनाया। फिर तो हर साल औसतन मेरी पाँच किताबें दुसाध प्रकाशन और बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से छपने लगीं।जिंदा देवी मायावती के बाद अगर मैं डाइवर्सिटी मिशन को आगे बढ़ाने मे जुट गया तो बौद्ध जी सम्यक प्रकाशन और धम्म से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ाने मे व्यस्त हो गए। उसके बाद हमारी बहुत कम मुलाकातें होतीं। कभी किसी सेमिनार में मिल लिए तो कभी फोन पर एक दूसरे का हाल पूछ लिए। किन्तु नियमित अंतराल पर न मिल पाने के बावजूद उनकी गतिविधियों से अन्य आंबेडकरवादियों की भांति मैं भी विस्मित होता रहा। उनका काम साल दर साल चौकाते गया। आज जब उनके आकस्मिक निधन के बाद उनके कार्यों का आंकलन करता हूँ तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि मान्यवर कांशीराम और ग्रेट पैंथर नामदेव ढसाल के बाद शांति स्वरूप बौद्ध का जाना बहुजन मुव्हमेंट की सबसे बड़ी क्षति है।
सम्यक प्रकाशन के जरिये देश के कोने-कोने तक पहुंचा : फुले-आंबेडकर-बुद्ध का विचार!
21 वर्ष के सेवाकाल के बाद केंद्रीय सरकार के राजपत्रित पद का मोह विसर्जित कर शेष जीवन आंबेडकरी मिशन के लिए समर्पित करने वाले बौद्ध जी आंबेडकरी मूवमेंट में योगदान का आंकलन करने पर मान्यवर कांशीराम और नामदेव ढसाल के बाद उनका ही काम मुझे सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे जिन दुर्लभ शख़्सियतों को निकट से जानने-सुनने का सौभाग्य-लाभ हुआ, उनमेँ नामदेव ढसाल के बाद शांति स्वरूप बौद्ध जी ही सबसे खास शख्सियत रहे। आज जिस आंबेडकरी आंदोलन की पूरी दुनिया कायल है, जिसकी चर्चा सर्वत्र हो रही है, वह मुख्यतः एक वैचारिक आंदोलन है, जो साहित्य के द्वारा फैलाया जा रहा है। बहरहाल साहित्य के माध्यम से फैलने वाला आंबेडकरी आंदोलन आज जिस मुकाम पर पहुंचा है, उसमें एकल रूप से यदि किसी व्यक्ति को चिन्हित किया जाय तो सबसे बड़ा योगदान बौद्ध जी का ही नजर आएगा। उन्होंने यह कारनामा सम्यक प्रकाशन के जरिये अंजाम दिया। मैं उन चंद लोगों में हूँ, जिन्होंने सम्यक प्रकाशन की प्रगति बहुत निकट से देखी हैं। बौद्ध जी ने महज दो दशकों मे इस संस्थान के जरिये लगभग डेढ़ हजार किताबों का प्रकाशन किया है। बिना किसी सरकारी व संस्थागत सहयोग के अपने एकल प्रयास से यह काम देने वाले वह सम्पूर्ण भारत के संभवतः इकलौते प्रकाशक रहे।
बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन के जरिये फुले- आंबेडकरी और बौद्ध विचारधारा के प्रसार में अभूतपूर्व भूमिका अदा करने के साथ ही इसके माध्यम से बहुजन लेखकों की मुख्यधारा के प्रकाशको पर से निर्भरता खत्म करने का भी ऐतिहासिक काम अंजाम दिया है। सम्यक प्रकाशन के वजूद में आने के पहले शैक्षणिक क्षेत्र से हजारों साल से बहिष्कृत शूद्रातिशूद्र समुदाय के लोग छ्पने के लिए तरस कर रह जाते थे, क्योंकि मुख्यधारा के प्रकाशक इनकी घोरतर अनदेखी करते रहे। किन्तु बौद्ध जी ने जब प्रकाशन क्षेत्र से बहिष्कृत समुदायों के लेखकों छापना शुरू किया तब, ढेरों लोग लेखक बनने का सपना देखने लगे। इससे देखते ही देखते सैकड़ों बहुजन लेखक राष्ट्रीय फ़लक पर अपनी उपस्थिती दर्ज कराने में समर्थ हुये। यही नहीं सम्यक प्रकाशन से अभिप्रेरणा पाकर दर्जनों की तादाद में नए प्रकाशक उभर आए। बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन के जरिये सिर्फ किताबें ही नहीं, बल्कि लोगों को मुव्हमेंट से जोड़ने के लिए अन्य किस्म की सामग्रियाँ भी प्रकाशित किया, जिनमें कैलेंडर बहुत खास रहा। उनके द्वारा प्रकाशित कैलेंडरों ने अपने क्षेत्र मे क्रांति ही घटित कर दिया। इन कैलेण्डरों के जरिये उन्होंने बहुजन लेखकों को घर-घर तक पहुंचाने की जो अद्भुत परिकल्पना की, वह बेनजीर घटना है। मुझ जैसे ढेरों लेखकों ने कभी सपना भी नहीं देखा था कि कभी हम कैलेंडर पर छपेंगे किन्तु,बौद्ध जी ने अपनी कलात्मक सोच के जरिये वह कर दिखाया।
प्रकाशक के साथ ही विरल लेखक
बौद्ध जी ने तो बतौर प्रकाशक एक इतिहास ही रच दिया, जिसको अतिक्रम करने का सपना भी देखने का दुस्साहस शायद कोई नहीं करेगा। किन्तु वह महान प्रकाशक के साथ एक विलक्षण प्रतिभा के लेखक भी रहे। उन्होंने बौद्ध धम्म व सामाजिक न्याय के स्तम्भ माने जाने वाले 60 से अधिक पात्रों के जीवन बृतांत पर जो सचित्र पुस्तकें तैयार किया, वह उन्हे बहुजन साहित्य सृजन की दुनिया में एक अलग मुकाम दिलाने के लिए काफी है। सहज भाषा में घटनाओं के चित्रांकन के जरिये कम पढे़-लिखे लोगों और बच्चों तक महापुरुषों के संदेश को प्रभावी तरीके से पहुंचाने का ऐसा काम, उनके जैसा कोई जन्मजात चित्रकार और लेखक ही अंजाम दे सकता था, जो उन्होंने दिया। उन्होंने सम्यक प्रकाशन संस्थान की ओर से सहस्राधिक किताबों के साथ जो कैलेंडर, बहुजन महापुरुषों के भूरि- भूरि चित्र प्रकाशित किए उससे देश का शायद ही कोई कोना और कस्बा बचा होगा, जहां बाबा साहब, फुले और बुद्ध का संदेश न पहुंचा हो। उनके इन कामों को देखते हुये द्विधा- मुक्त चित्त से कहा जा सकता है कि उनका दुनिया से जाना कांशीराम और नामदेव ढसाल के बाद बहुजन आंदोलन की सबसे बड़ी क्षति है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चित्रकार!
बहुतों को पता नहीं कि बौद्ध जी ने सम्यक प्रकाशन को धनार्जन के स्रोत के रूप में नहीं, आंबेडकरी विचारधारा के प्रसार के लिए एक मिशनरी संस्थान के रूप में विकसित किया था।उनकी आय का स्रोत चित्रकारी रही। वह खुद भी एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार रहे, जिनकी चित्रकारी के कद्रदान पूरी दुनिया में फैले हुये थे। उनके घर जाने पर कई बार मुझे उनके विदेशी क्लाइंटों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मान्यवर कांशीराम ने जिन भूरि-भूरि मूलनिवासी नायकों को इतिहास के कब्र से निकालकर बहुजनों के समक्ष लाया था, उन्हें शक्ल प्रदान करने का काम बौद्ध जी के किया। उन्होंने अपनी तूलिका के जरिये संत रविदास, मातादीन भंगी, बाबा चौहरमल इत्यादि जैसे वंचित जातियों में जन्में में ढेरों नायकों को जो आकार प्रदान किया, वह आज बहुजनों के जेहन में स्थापित होते जा रहा है। समर्थ चित्रकार बौद्ध जी अपने अधीन 40-50 चित्रकारों को लेकर निर्यातयोग्त हस्तनिर्मित कला चित्रों का निर्माण करते रहे, जो न सिर्फ उनके जीविकोपार्जन बल्कि सम्यक प्रकाशन को खड़ा करने का मध्यम बना। चित्रकारों की इस टीम को लेकर उन्होंने बहुजनों को मुव्हमेंट से जोड़ने लायक भूरि–भूरि चित्रों का का भी निर्माण किया।
बुद्धिज़्म के चैंपियन प्रचारक
इटली के क्रांतिकारी विचारक अंटोनियो ग्राम्सी ने कहा है, ‘यदि शोषितों को शासक वर्ग से मुक्त होना है तो उन्हे वैकल्पिक सांस्कृतिक वर्चस्वता स्थापित करनी होगी।‘ भारत में बहुजनों की दुर्दशा के मूल में रही है,हिन्दू धर्म-संस्कृति। हिन्दू धर्म-संस्कृति के कारण बहुजन न सिर्फ शक्ति के स्रोतों- आर्थिक,राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक-सांस्कृतिक इत्यादि- से चिरकाल के लिए बहिष्कृत हुये, बल्कि उनकी मानवीय सत्ता मनुष्येतर प्राणी के रूप में स्थापित हुई। बहुजन विरोधी अमानवीय हिन्दू धर्म-संस्कृति का विकल्प खड़ा करने के लिए सदियों से बहुजन महापुरुष प्रयासरत रहे। स्वाधीनोत्तर भारत में मान्यवर कांशीराम की प्रेरणा से ढेरों लोग व संगठन वैकल्पिक संस्कृति खड़ा करने की दिशा में अग्रसर हुये। किन्तु, इस मामले में भी व्यक्तिगत रूप से किसी को चिन्हित करने का प्रयास हो तो बौद्ध जी ही सबसे आगे नजर आएंगे। जिन लोगों को उनकी निकटता प्राप्त हुई है,उन्हें पता है कि उनके जीवन का हर पल हिन्दू धर्म-संस्कृति की तोड़ खड़ा करने के प्रति समर्पित रहा। वे सदा इसका विकल्प बौद्ध धर्म-संस्कृति में देने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने अपने नाम के साथ जुड़े ‘बौद्ध’ शब्द को सार्थक करने के लिए बौद्धमय भारत निर्माण में खुद को जिस हद समर्पित किया, उससे वह 21 वीं सदी के चैंपियन बौद्ध के रूप में अपनी छाप छोड़ गए।
मेरी तो धारणा है कि गत चार दशकों में भारत में बुद्धिज़्म को पॉपुलर करने के काम में वही चैंपियन रहे। उन्होंने इस काम के लिए भी सम्यक प्रकाशन और अपनी चित्रकारी का बेहतरीन इस्तेमाल किया। उनके बनाए तथागत बुद्ध के एक से बढ़कर एक चित्र घर-घर तक पहुंचे। आज बहुजनों के घरों में गौतम बुद्ध के भांति-भांति के जो चित्र दिखते है, उनमें 90 प्रतिशत से अधिक चित्र बौद्ध जी के संस्थान के बने होते हैं। सम्यक प्रकाशन के जरिये आम जन के लायक सैकड़ों छोटे-बड़े आकार की किताबें प्रकाशित करने के साथ उन्होंने विशाल आकार के गुणवत्ता पूर्ण ऐसे कुछ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं, जिन्हें हाथ में लेने पर गर्व की एक विचित्र अनुभूति होती है। बौद्ध जी बौद्ध इतिहास से सम्बद्ध पुस्तकों और चित्रों का निर्माण करने के साथ ही बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए हिन्दी त्रैमासिक धम्म दर्पण का सम्पादन भी अपने स्तर के अनुरूप किया।
एक बड़े संगठनकर्ता!
बहु-गुणों के धनी बौद्ध जी को कुदरत ने एक असाधारण वक्ता के गुणों से भी समृद्ध किया था और बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए उन्होंने इस खास गुण का सदुपयोग भी खूब किया।इसके लिए उन्होंने भारत के चप्पे-चप्पे के साथ विदेशों के अनेक देशों, खास कर आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, हाँगकाँग, सिंगापुर, नेपाल इत्यादि की एकाधिक बार धम्म यात्राएं की। धम्म यात्राओं के क्रम में वह हर जगह धम्म प्रवचन करते। उनकी वाणी मे इतना ओज था कि लोग जोश में भरकर उन्हे मुग्धभाव से सुनते रहते। अपनी वाणी के साथ बौद्ध जी ने बुद्धिज़्म के प्रसार के लिए अपनी संगठनिक क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करते रहे। हाल के कुछ वर्षों में उन्होंने इस क्षमता का सदव्यवहार करते हुये साहित्यिक और धम्म सम्मेलनों का सिलसिला शुरू किया। उनके सम्मेलनों में देश के विभिन्न अंचलों के बहुजन लेखक,एक्टिविस्ट, सांस्कृतिक कर्मी भरी उत्साह के साथ शिरकत करते। उनके ये आयोजन पिछले आयोजन को म्लान कर नया कीर्तिमान बनाते। इन भव्य आयोजनों की विपुल सफलता को देखते हुये हम भविष्य में उनके आह्वान पर धीरे-धीरे लाखों लोगों के एक जगह असेंबल होने का सपना देखने लगे थे। किन्तु, कोरोना ने हमसे वह सपने छीन लिए। ऊर्जा में जवानों को भी म्लान करते रहने वाले बौद्ध जी की दिन चर्या और स्वास्थ्य ऐसा था कि वह हमारा मार्गदर्शन आने वाले डेढ़- दो दशकों तक बहुत आसानी से कर सकते थे। इसलिए उनके आकस्मिक निधन से पूरा बहुजन भारत स्तब्ध और शोकाकुल है। उन्होंने अपने कार्यों से हमारे दौर पर कितना असर छोड़ा था, इसका अनुमान हम देश के विशिष्ट आंबेडकरवादियों द्वारा दी गयी गयी आदरांजलि से लगा सकते हैं।
आदरांजलि !
इन पक्तियों के लिखने के दौरान सुप्रसिद्ध दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद का फोन आया था। बातों के क्रम उन्होने कहा,’ क्या 50 सांसद भी एक साथ मिलकर शान्ति स्वरूप बौद्ध जी के मुक़ाबले खड़ा हो सकते थे? उन्हीं चंद्रभान जी ने बौद्ध जी के प्रति आदरांजलि देते हुये कहा है, ’ बौद्ध जी दलितों के अशोक स्तम्भ थे। वह जब संबोधित करते थे तो उनके मस्तक पर बाबा साहब का चित्र उभरता प्रतीत होता था’। उनके आकस्मिक निधन से स्तब्ध चर्चित दलित साहित्यकार सूरज पाल चौहान का उद्गार रहा, ‘यह जानकार संज्ञाशून्य हो गया कि सम्यक प्रकाशन के शान्ति स्वरूप बौद्ध हमारे बीच नहीं रहे’। ‘बहुजन समाज ने अपना एक बड़ा बौद्धिक नेता खो दिया’ कहना है सुप्रसिद्ध पत्रकार उर्मिलेश का का’। महान पत्रकार दिलीप मण्डल ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुये कहा है-‘ उत्तर भारत, खासकर हिन्दी पट्टी में बौद्ध धर्म के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाने वाले बौद्धजी हम जैसे कई लोगों के प्रेरणा स्रोत रहे।‘ ‘समाज और भारतीय बौद्ध जगत की कभी न पूर्ति होने वाली क्षति हो गयी,’ ऐसा साहित्यकार सुदेश तनवर का कहना है। ‘वर्तमान समय के आंबेडकरवादियों ने अपना सबसे बड़ा मार्गदर्शक और संरक्षक खो दिया। आज देश भर में बहुजन महापुरुषों की जो किताबें और तस्वीरें नजर आती हैं, वह सिर्फ आपके कठिन परिश्रम से ही मुमकिन हो सका है,’ ऐसा कहना है विदुषी मनीषा गौतम का। महेश कुमार राजन के अनुसार।‘ वे ज्ञान के अथाह सागर,अद्भुत व निडर वक्ता,बहुजन महापुरुषों के इतिहास को सम्यक प्रकाशन के जरिये जन-जन तक ले जाने वाले, प्रेरणा के स्रोत,एक महान पुरुष थे ।उनको बहुजन समाज हमेशा याद रखेगा।‘
‘शांति स्वरूप बौद्ध सर ने बहुजन साहित्य का विशाल भंडार हमें दिया है। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ बहुजन प्रकाशन खड़ा किया है। जब तक बहुजन समाज रहेगा, बहुजन साहित्य की तलब भी रहेगी। जब तक बहुजन साहित्य की तलब बनी रहेगी, तब तक शांति स्वरूप बौद्ध जी हमारे बीच जिंदा रहेंगे,’ ऐसा मानना है विशिष्ट बहुजन चिंतक चंद्र भूषण सिंह यादव का। ‘बौद्ध साहित्य की महान हस्ती रहे शांति स्वरूप बौद्ध जी। उन्होंने सम्यक प्रकाशन के जरिये बहुजन महापुरुषों के विचारों को फैलाने का जो काम किया है, उसे समाज कभी नहीं भूलेगा,’ ऐसा सोचना है महान बौद्ध विद्वान बुद्ध शरण हंस का। ‘दलित साहित्य एवं दलित साहित्यकारों को साहित्य के गगन पर पहुँचने वाली शख्सियत रहे शांति स्वरूप बौद्ध’ ,ऐसा कहना है युवा एक्टिविस्त राजीव रंजन का। सुप्रसिद्ध लेखक डॉ. विजय कुमार त्रिशरण के अनुसार वह बाबा साहब और मान्यवर कांशीराम के बाद मूलनिवासी – बहुजन सामाजिक- सांस्कृतिक मिशन और मुव्हमेंट को तीव्रतर करने वाले एक मुकम्मल और मजबूत भीम स्तम्भ रहे।‘सम्यक प्रकाशन के संस्थापक शांति स्वरूप बौद्ध जी का परिनिर्वाण एक विराट क्षति है,’ ऐसा कहना है लालजी प्रसाद निर्मल का।‘ एक इंसान के रूप में जितनी खूबियाँ एक व्यक्ति में हो सकती हैं, वह उनमे उससे ज्यादा थी,’ ऐसा मानना है दलित दस्तक के संपादक अशोक दास का। ‘सम्यक प्रकाशन के संस्थापक और क्रांतिकारी लेखक शांति स्वरूप बौद्ध आंबेडकरवादी मूवमेंट के क्रूसेडर रहे’, ऐसा कहना है अंतर्राष्ट्रीय लेखक फ्रैंक हुजूर का।
उनके आकस्मिक निधन पर शोक व्यक्त करते हुये बसपा सुप्रीमो मायावती जी ने कहा है,’श्री शांति स्वरूप बौद्ध, जो कमजोर तबकों को जागरूक करने मे लगातार सक्रिय रहे, उनकी दिल्ली में अचानक हुई मौत की खबर अत्यंत दुखदायी है। इनके परिवार व परिचितों के प्रति गहरी संवेदना। कुदरत इनके करीबी लोगों को इस दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे।‘ ‘यह बात किसी भी आंबेडकरवादी को गर्वित करती रहेगी कि उन्होंने सम्यक प्रकशन के रूप में एक ऐसा संस्थान छोड़ा है जिससे 2000 से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं। हम उम्मीद करते हैं कि उनके परिवार और मित्र भारत में आंबेडकरवादी बौद्ध सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए उनसे प्रेरणा लेंगे और उनके कार्यों को आगे बढ़ाते रहेंगे’, ऐसी चाहत है विशिष्ट सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत की। विद्या भूषण रावत जैसे बौद्ध जी के ढेरों गुणानुरागियों की भांति प्रोफेसर विवेक कुमार का भी कहना है कि बौद्ध जी के किए गए कार्यों और कहे गए शब्दों को आगे बढ़ाएँ, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यह सही है कि शांति स्वरूप बौद्ध जी के आकस्मिक निधन से बहुजन भारत की अपूरणीय क्षति हुई है ,पर, यदि हम प्रोफेसर विवेक कुमार के शब्दों में उनके कार्यों और कहे गए शब्दों को आगे बढ़ा सके तो अवश्य ही कुछ भरपाई हो जाएगी ।
(लेखक एच. एल. दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन क राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सपर्क – 9654816191)
डायवर्सिटी मैन के नाम से विख्यात एच.एल. दुसाध जाने माने स्तंभकार और लेखक हैं। हर विषय पर देश के विभिन्न अखबारों में नियमित लेखन करते हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं और दुसाध प्रकाशन के नाम से इनका अपना प्रकाशन भी है।