सुप्रीम कोर्ट द्वारा 5 जून को पदोन्नति में आरक्षण के संबन्ध में दिया गया फैसला जहां अनुसूचित जाति/जनजाति के लाखों कर्मचारियों को राहत देनी वाली खबर है, वहीं आरक्षण के विरोधियों के लिए एक करारा झटका भी. इससे ज्यादा मुश्किलें अब केंद्र सरकार के लिए इस फैसले से खड़ी हो गयी हैं. 2012 से पदोन्नति में आरक्षण को राज्य सरकारों ने दवाब में आकर खत्म कर दिया था. यहां तक कि वर्षों से पदोन्नत होकर उच्च पदों में तक पहुचे अधिकारियों को डिमोशन का अपमान झेलना पड़ा है. इस अवधि में उनके स्वाभिमान और सम्मान को जो चोट पहुची है उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती मगर भविष्य के लिए आने वाली पीढ़ी इस अपमान का शिकार ना हो माननीय सरवोच्च न्यायालय तथा केंद्र और राज्य सरकारों को सोच समझकर इस मुद्दे को स्थायी समाधान तक ले जाना होगा. लोक सभा के चुनाव अगले वर्ष होने हैं ऐसे में मोदी सरकार को इस पर तुरन्त कार्यवाही के लिए भी दबाव बनना स्वाभाविक है. अधिकांश राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं जिसको डबल इंजन की सरकार कहा जाता है.
अगर केंद्र सरकार पदोन्नति में आरक्षण को पुनः लागू करती है तो राज्य सरकारें भी इसको लागू करने में पीछे नहीं हट सकती हैं. लेकिन राजनीतिक नफे नुकसान के लिए राजनीतिक दल अपना एजेंडा बदल सकती हैं, लेकिन माननीय उच्चत्तम न्यायलय के फैसले का सभी को सम्मान करना चाहिए. sc/st वर्ग के साथ जो जातिगत भेदभाव अभी भी होता है उसके जख्म को कुछ कम करने का है पदोन्नति में आरक्षण. भारतीय संविधान में राष्ट्र पति देश का सर्वश्रेष्ठ पद होता है तथा देश का प्रथम नागरिक होता है, लेकिन राम नाथ कोविंद को पुष्कर मंदिर में जाने से इसलिए रोका गया था कि वे दलित हैं. बुद्धिजीवियों,राष्ट्रप्रेमियों तथा वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को गहराई से चिंतन करना चाहिए कि जाति का पिरामिड अच्छा है या सदियों से शोषित और प्रताड़ित लोगों को आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करना? अभी कोर्ट के निर्णय आन केे बाद मीडिया में इस तरह से दिखया जा रहा कि ये कोई नई चीज मिल गयी है दलितों को. इसमें आरक्षित वर्ग को भी ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है पहले तुम्हारी ही घर मे डाका डाला और तुम्हारा ही सामान अब तुमको वापस किया जा रहा है तो हैरानी की कोई बात नहीं है और न ही आभार ब्यक्त करने की जरूरत है.
अखबारों और सोशल मीडिया में लिखा जा रहा है प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता साफ! रास्ता तो हमेशा साफ ही था सिर्फ सरकारों का मन साफ नहीं है. पहले भी गेंद सरकार के ही पाले में थी और अब भी. सरकार की मनसा वास्तव में प्रमोशन में आरक्षण को पुनः बहाल करने की होती तो बार-बार कोर्ट के चक्कर से बचा जा सकता था. 117वां संविधान संशोधन बिल राज्यसभा में पास होकर लोकसभा में पारित हो जाता तो सही नियति का पता चल जाता, क्योंकि इससे सभी राजनीतिक दलों का दलित प्रेम जाहिर हो जाता मगर हर संवेदन सील मुद्दे को कोर्ट में ले जाना वर्तमान सरकारों की परंपरा बन चुकी है. आखिर संसद किस लिए है? संसद में बहस होकर जो विधेयक पारित हो जाता है उससे लोकतंत्र की मजबूती झलकती है.
ट्रिपल तलाक की सरकार को ज्यादा चिंता थी तो कोर्ट से दिशा निर्देश मिलते ही ट्रिपल तलाक पर कानून पारित हो गया. अब देखना है कि प्रमोशन में आरक्षण के संबन्ध में सरकार जल्दी कदम उठाती है या किसी बड़े आंदोलन के माध्यम से इसको उलझाकर फिर से कोर्ट की शरण मे भेज देती है, क्योंकि आरक्षण विरोधियों का भी संघठन इसको हजम नही कर पायेगा और अभी न्यायालय की संविधान पीठ का भी जिक्र हो रहा है. अगर पुनः ये मसला कोर्ट में गया तो फिर मौका हाथ से निकल जायेगा और सरकारें फिर यही रोना रोयेंगी कि न्यायालय के फैसले का हम समान करते हैं. मगर ये दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय है?
इससे पहले कि ऐसी नौबत आये आरक्षित वर्ग से चुने हुए सांसदों को शीघ्र ही प्रधानमन्त्री से मिलकर इस संबन्ध में हो रहे संशय और भम्र की स्थिति को दूर करने के लिए दबाव बनाए. आखिर आरक्षण के कारण ही ये लोग संसद तक पहुचे हैं. बहन मायावती ने ऐतिहासिक कदम उठाया राज्यसभा से त्यागपत्र देकर प्रमोशन में आरक्षण की बहाली के लिए जैसा कि डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल पास न होने पर नेहरू मन्त्रिमण्डल से कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया था. सही अर्थों में अगर प्रमोशन में आरक्षण बिना विवाद के बहाल हो जाता है तो राजनीतिक रूप से पहला श्रेय मायवती को जान चाहिए.
आई0पी0 ह्यूमन
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