बोधिसत्व भारत रत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सन् 1956 में विजयदशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा ली थी. यह वह तारीख थी, जब भारत में धम्म कारवां को नयी गति और दिशा मिली थी. अब उस तारीख के छह दशक पूरे हो चुके हैं. ऐसे में यह सवाल एक बार फिर आता है कि आखिर बाबासाहेब ने धर्म परिवर्तन क्यों किया और धम्म कारवां क्यों आरंभ किया? नई पीढ़ी के युवाओं के लिए इस सवाल का जवाब ज्यादा जरूरी है, ताकि वो बाबासाहेब को एक धम्मचक्र गतिमान करने वाले विभूति के रूप में भी देख सकें.
असल में डॉ. अम्बेडकर ने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि भारत में प्रचलित जातिगत असमानता दलितों के पिछड़े होने का मुख्य कारण है. 9 मई, 1916 को कोलम्बिया विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में अपने रिसर्च पेपर ‘भारत में जातियां-उनकी संरचना, उद्भव एवं विकास’ के जरिए डॉ. अम्बेडकर ने यह साबित कर दिया था कि कुछ स्वार्थी लोगों ने जातिगत असमानता की व्यवस्था को शास्त्र सम्मत दिखाने की कोशिश की है और ये धारणा फैलाई है कि शास्त्र गलत नहीं हो सकते. भारत लौटने के बाद उन्होंने दलितों के मानवाधिकारों के लिए अलग-अलग मोर्चे पर प्रयास करना शुरू कर दिया. महाड सत्याग्रह द्वारा सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के अधिकार, कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश का अधिकार, अंग्रेजी सरकार के सामने दलितों के लिए वयस्क मताधिकार का अधिकार, गोलमेज सम्मेलन में पृथक निर्वाचन के अधिकार की लड़ाई ऐसी ही कोशिश थी.
1932 में ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की घोषणा भी कर दी थी लेकिन महात्मा गांधी द्वारा आमरण-अनशन करने के कारण डॉ़ अम्बेडकर को तरह-तरह की धमकियां मिली. तब डॉ. अम्बेडकर को मजबूर होकर पूना पैक्ट स्वीकार करना पड़ा और दलितों के लिए आरक्षण के बदले में पृथक निर्वाचन का हक छोड़ना पड़ा. इस संघर्ष के दौरान डॉ. अम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि हिन्दू धर्म में रहकर दलितों को राजनैतिक आजादी का अधिकार भले ही मिल जाए लेकिन उनको आर्थिक और सामाजिक बराबरी का हक नहीं मिल सकता. इसलिए 1935 में येवला (नाशिक) में डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वह हिन्दू धर्म में पैदा हुए थे यह उनके वश की बात नहीं थी लेकिन हिन्दू रहकर वह मरेंगे नहीं, यह उनके वश में है. डॉ. अम्बेडकर ने धर्म-परिवर्तन का निश्चय येवला की सभा में ही कर लिया था.
धर्म परिवर्तन पर विचार करने के लिए 30 एवं 31 मई 1936 को बंबई में आयोजित महार परिषद को संबोधित करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा थाः -‘धर्म परिवर्तन कोई बच्चों का खेल नहीं है. यह ‘मनुष्य के जीवन को सफल कैसे बनाया जाय’ इस सरोकार से जुड़ा प्रश्न है… इसको समझे बिना आप धर्म परिवर्तन के संबंध में मेरी घोषणा के वास्तविक निहितार्थ का अहसास कर पाने में समर्थ नहीं होंगे. छुआछूत की स्पष्ट समझ और वास्तविक जीवन में इसके अमल का अहसास कराने के लिए मैं आप लोगों के खिलाफ किये जाने वाले अन्याय और अत्याचारों की दास्तान का स्मरण कराना चाहता हूं. सरकारी स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराने का हक जताने पर या सार्वजनिक कुंओं से पानी भरने का अधिकार जताने पर या घोड़ी पर दूल्हे को बैठाकर बारात को जुलूस की शक्ल में सार्वजनिक रास्तों से घुमाने के अधिकार आदि का इस्तेमाल करने पर आप लोगों को सवर्ण हिन्दुओं द्वारा मारे-पीटे जाने के उदाहरण तो बहुत आम हैं. लेकिन ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण दलितों पर सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अत्याचार और उत्पीड़न का कहर ढाया जाता है… खरी बात पूछूं तो बताइये कि इस समय हिन्दुओं और आप लोगों के बीच क्या किसी प्रकार के समाजिक संबंध हैं?
जिस तरह मुसलमान हिन्दुओं से भिन्न हैं; उसी तरह दलित लोग भी हिन्दुओं से नितान्त भिन्न हैं. जिस तरह मुसलमानों और ईसाइयों के साथ हिन्दुओं का रोटी-बेटी का कोई सम्बन्ध नहीं होता है उसी तरह आप लोगों के साथ भी हिन्दुओं का किसी भी प्रकार का रोटी-बेटी का कोई संबंध नहीं है… आपका समाज और उनका समाज दो बिल्कुल अलग-अलग समूह हैं… हालांकि आप लोगों ने धर्मांतरण के महत्व को नहीं समझा है लेकिन निस्संदेह रूप से आप लोगों ने नामान्तरण यानि नाम परिवर्तन के महत्व को समझ ही लिया है. अगर आप लोगों में से किसी व्यक्ति से उसकी जाति के बारे में सवाल कर दिया जाता है कि वह किस जाति का है तो वह दलित होने के रूप में अपना उत्तर देता है, लेकिन वह महार है या भंगी है, ऐसा बताने में संकोच करता है. जब तक कुछ विशेष परिस्थितियों की मजबूरी न हो तब तक कोई भी व्यक्ति अपना नाम नहीं बदल सकता. ऐसे नाम परिवर्तन का कारण यह है कि एक अनजान आदमी तो दलित और सवर्ण के बीच कोई अन्तर कर नहीं सकता. और जब तक एक हिन्दू को किसी व्यक्ति की जाति का पता नहीं चल जाता तब तक उस व्यक्ति के दलित होने के कारण वह हिन्दू उस व्यक्ति के खिलाफ अपने मन में नफरत का भाव नहीं भर सकता. सवर्ण हिन्दुओं को जब तक साथ यात्रा कर रहे दलितों की जातियों की जानकारी नहीं होती है तब तक तो यात्रा के दौरान वे बड़े दोस्ताना अंदाज में व्यवहार करते हैं, लेकिन जैसे ही किसी हिन्दू को यह पता चलता है कि वह जिस व्यक्ति से बातचीत कर रहा है वह दलित है; तो उसका मुंह और मन तुरंत कसैला हो जाता है. आप लोगों के लिए इस तरह के अनुभव नये नहीं हैं. …
जब तक आप हिन्दू धर्म में बने रहेंगे तब तक आपको अपने जाति नाम को छिपा कर नाम-परिवर्तन करते रहने पर निरन्तर मजबूर होना पड़ेगा… इसलिए मैं आप लोगों से यह पूछता हूं कि बजाय इसके कि आप आज एक नाम बदलें, कल दूसरा नाम बदलें और पेंडुलम की तरह लगातार ढुलमुल हालत में बने रहें, आप लोगों को धर्म परिवर्तन करके अपना नाम स्थाई रूप से क्यों नहीं बदल लेना चाहिये?’ डॉ. अम्बेडकर द्वारा कही गई उपरोक्त बातें कमोबेश आज भी उतनी ही सत्य हैं जितनी कि सन् 1935 में थी.
इसी सभा में धर्म परिवर्तन की आवश्यकता के बारे में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा:-
‘मुझे उस प्रश्न पर बस आश्चर्य ही होता है जिसे कुछ हिन्दू कुछ इस तरह उठाते हैं कि केवल धर्म-परिवर्तन से क्या होने वाला है? भारत में वर्तमान समय के सिक्खों, मुसलमानों और ईसाईयों में से अधिसंख्य लोग तो पहले हिन्दू ही थे और उन में भी शूद्रों और दलितों की तादाद ही सबसे ज्यादा है…अगर ऐसा है भी तो धर्म-परिवर्तन के बाद उनकी स्थिति में एक स्पष्ट प्रगति साफ दिखती है… समस्या पर गहन चिंतन-मनन करने के बाद हर किसी को यह मानना पड़ेगा कि दलितों के लिये धर्म-परिवर्तन उसी प्रकार जरूरी है जिस प्रकार भारत के लिए स्वराज जरूरी है. दोनों का अंतिम लक्ष्य तो एक जैसा ही है, दोनों के लक्ष्य में कोई फर्क नहीं है और वह अंतिम लक्ष्य है स्वतंत्रता प्राप्त करना.
20 वर्षों तक सभी धर्मों का गहन अध्ययन करने के बाद डॉ. अम्बेडकर इस निश्चय पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म सबसे उपयुक्त है, क्योंकि बौद्ध धर्म का जन्म भारत में ही हुआ है और बौद्ध धर्म समानता, करूणा, मैत्री, अहिंसा और भाई-चारे और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का संदेश देता है. इसमें ऊंच-नीच और छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं है. जीवन के सभी पहलुओं पर विचार करने के पश्चात डॉ. अम्बेडकर ने 5 लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर बौद्धधम्म के प्रचार-प्रसार को नई गति प्रदान की. उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं का एक नया फार्मूला दिया.
भगवान बुद्ध ने ढाई हजार साल पहले अषाढ़ पूर्णिमा के दिन धम्म चक्र प्रवर्तन करके धम्म कारवां की शुरूआत की थी. डॉ. अम्बेडकर ने सन 1956 में विजयदशमी के दिन अपने लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा लेकर धम्म चक्र का अनुपर्वतन किया. धम्म कारवां आज काफी फल-फूल चुका है. 1956 में पांच लाख लोगों की संख्या आज करोड़ों में पहुंच गई है. अंग्रेजी अखबार द टाईम्स ऑफ इंडिया (नई दिल्ली संस्करण,10 नवंबर 2006) में प्रकाशित एक रपट के अनुसार भारत वर्ष में सन 2006 में 30 लाख लोगों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली. 2001 की जनगणना के वक्त बढ़कर यह लगभग 81 लाख हो चुकी थी. जो कि 2011 की आखिरी जनगणना के प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार 97 लाख पहुंच गई हैं. हालांकि कुछ विशेषज्ञ भारत में बौद्धों की संख्या 3 करोड़ 50 लाख से भी अधिक मानते हैं. उनका मानना है कि जनगणना में वास्तविक संख्या इसलिए सामने नहीं आ पाती हैं क्योंकि काफी लोग बौद्ध होते हुए भी अपने को आधिकारिक दस्तावेजों में बौद्ध नहीं घोषित करते.
अमेरिका और यूरोप में भी बौद्ध धम्म बहुत तेजी से बढ़ती हुई जीवनशैली बनता जा रहा है. डॉ. अम्बेडकर ने धम्म दीक्षा लेते हुए कहा था कि वो एक नए किस्म का धम्म कारवां आरंभ करने जा रहे हैं, जिसमें बौद्ध भिक्षु शील सदाचार का पालन करते हुए सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का कार्य करेंगे. इससे प्रभावित होकर एशिया के अन्य देशों में भी बौद्ध पुनर्जागरण तेजी से हुआ. जिनेवा आधारित ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक व आध्यात्मिक संगठन’ ने 2009 का ‘विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म का सम्मान’ बौद्ध धम्म को प्रदान किया.
धम्म दीक्षा लेने वालों के जीवन में बहुत परिवर्तन आया है और उनका चहुमुंखी विकास हुआ है. मशहूर समाजशास्त्री डी. एस. जनबन्धू और गौतम गावली द्वारा महाराष्ट्र में किए गए समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण के अनुसार जिन लोगों ने धम्म दीक्षा ली उनमें एक नई पहचान और आत्मसम्मान की भावना विकसित हुई, जिससे उनके सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्तर में काफी सुधार आया. इन नवदीक्षित लोगों ने राष्ट्र निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया. इसी प्रकार का एक शोध भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. संजय चहांडे ने किया और वो भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि धम्म दीक्षा लेने वालों का विकास धम्म दीक्षा न लेने वालों की तुलना में अधिक हुआ है. डॉ. संजय चहांडे ने इस विषय पर पीएचडी की है और वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद दलितों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में काफी अच्छे बदलाव आए हैं. उनका आत्मविश्वास बढ़ा है, जिसके कारण उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति की है.
एक सर्वे के अनुसार ताईवान में बौद्ध अनुयायियों की संख्या सन् 1980 में 8 लाख थी जो 2001 में बढ़कर 55 लाख और 2006 में बढ़कर 80 लाख हो गई. इस तरह 26 सालों में ताईवान में बौद्ध अनुयायियों की संख्या दस गुणा बढ़ी है. इसी अवधि में ताईवान में बुद्ध विहारों की संख्या 1157 से बढ़कर 4500 और बौद्ध भिक्षुओं की संख्या 3470 से बढ़कर 10 हजार पहुंच गई. ताईवान में भिक्षु और भिक्षुनियां अनेक प्रकार के समाजिक कार्य, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा जैसे व्यक्ति विकास के काम कर रहे हैं. इसी तरह चीन में बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या 10 करोड़ से भी अधिक हो गई है. थाईलैंड में 90 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या बौद्ध धर्म मानने वालों की है. यही स्थिति श्रीलंका, म्यामांर और भूटान जैसे देशों की है.
भगवान बुद्ध के कारण एशिया के अधिकतर देश भारत को बहुत पवित्र मानते हैं और भारत की यात्रा करना अपना धर्म समझते हैं. जापान, कोरिया, थाईलैंड, चीन, म्यांमार, श्रीलंका, ताईवान सहित अनेकों देशों के करोड़ों लोगों के मन में एक लालसा रहती है कि जीवन में कम से कम एक बार बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकिशा और सांची के दर्शन कर पाएं. इसलिए भारतवर्ष के लिए बुद्ध और उनकी शिक्षाओं द्वारा पूरे एशिया का अगुवा बनने का सुनहरा अवसर है.
तमाम वर्ग और धर्म के लोगों ने बौद्ध धम्म अपनाया
हालांकि दूसरी ओर धम्म कारवां की लोकप्रियता से डरे कुछ लोगों और संगठनों द्वारा अनेकों दुष्प्रचार करने की घटना भी सामने आई हैं. इसमें एक दुष्प्रचार यह किया जा रहा है कि बौद्धधर्म केवल दलित अपना रहे हैं. जबकि हकीकत इससे अलग है. भगवान बुद्ध दलित नहीं थे. उनके प्रथम पांचों शिष्य ब्राह्मण थे. उसके बाद यश और उसके 54 साथी व्यापारी वर्ग से थे. उसके बाद धम्मदीक्षा लेने वाले उरूवेला कश्यप, नदी कश्यप, गया कश्यप और उनके 1000 शिष्य सभी ब्राह्मण थे. राजा बिबिंसार और राजा प्रसेनजित तथा शाक्य संघ के लोग सभी के सभी क्षत्रिय थे. वर्तमान समय में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, धर्मानंद कौशाम्बी, डी डी कौशाम्बी पूर्व में ब्राह्मण थे. इसी तरह भदन्त आनंद कौशलायन, आचार्य सत्यनारायण गोयनका, भन्तेसुरई सशई, अमेरिका के मशहूर फिल्म अभिनेता रिचर्ड गेरे, फिल्म प्रोड्यूसर टीना टर्नर कोई भी दलित वर्ग से नहीं है. इसलिए बौद्ध धर्म के विरोधियों के इस मिथ्या प्रचार को कि बौद्ध धर्म दलितो का धर्म होता जा रहा रोका जाना चाहिए.
वैसे भी भूमंडलीकरण के कारण लोगों में आर्थिक समृद्धि आने के साथ मानसिक तनाव बढ़ेगा और दुनिया में अशांति भी बढ़ेगी. इन सबसे निपटने में बुद्ध की शील-समाधि और प्रज्ञा पर आधारित शिक्षाएं बहुत काम आएगी क्योंकि दुनिया को ‘युद्ध’ की नहीं ‘बुद्ध’ की आवश्यकता है.
लेखक एक बौद्ध विचारक, साहित्यकार और सामाजिक चिंतक हैं.
उत्तर प्रदेश के निवासी आनंद श्रीकृष्ण लेखक, चिंतक, साहित्यकार और बौद्ध विद्वान हैं। भगवान बुद्ध और उनके धम्म पर उनकी कई पुस्तकें तमाम बड़े प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो चुकी है। भगवान बुद्धः धम्म सार एवं चर्या उनकी चर्चित पुस्तक है। वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं।