नहीं चाहिए एक और ‘एकलव्य’

rohitपिछले साल आपने आईआईटी मद्रास की एक दलित छात्र संस्था ‘अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल’ का नाम सुना होगा. इस संस्था ने जब मोदी सरकार की श्रम नीतियों की आलोचना की, बीफ बैन पर स्टैंड लिया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय में शिकायत कर दी. आरएसएस की पत्रिका ने इसे हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी बताया था. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने डीन को फोन कर दिया और इस संगठन की मान्यता रद्द कर दी गई. हालांकि इस मामले पर देश भर में छात्रों और अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन में आंदोलन चलने के बाद इस संगठन की मान्यता बहाल कर दी गई. लेकिन जब दक्षिण के ही एक और यूनिवर्सिटी हैदराबाद सेंट्रल विश्वविद्यालय में पांच दलित छात्रों द्वारा एवीबीपी के एक छात्र नेता के साथ कथित तौर पर मारपीट का मामला सामने आया तो मामला लगातार बिगड़ता चला गया. विश्वविद्यालय के कुलपति अप्पा राव ने इन पाचों छात्रों को निलंबित कर दिया. यहां तक कि उनके विश्वविद्यालय के हॉस्टल, मैस, प्रशासनिक भवन और कॉमन एरिया तक में इनके घुसने पर रोक लगा दी गई. इसके बाद सभी पांचों छात्र विश्वविद्यालय के फैसले के विरोध स्वरूप खुले आसमान के नीचे रह रहे थे. इस बीच किसी ने यह नहीं सोचा था कि मामला इतना बढ़ जाएगा कि इनमें से एक छात्र को आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ेगा. रोहित वेमुला ने 17 जनवरी को देर रात हॉस्टल के एक कमरे में जाकर खुदकुशी कर ली. 25 साल के रोहित गुंटुर ज़िले के रहने वाले थे. वे विज्ञान तकनीक और सोशल स्टडीज़ में पिछले दो साल से पीएचडी कर रहे थे.

इस घटना ने हैदराबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी सहित देश भर के विश्वविद्यालय और वहां दलित/बहुजन छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के मामले को सामने लाकर रख दिया है. शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या की खबर से पूरा देश सन्न है. देश परेशान है कि दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग से आये छात्रों को एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी इस तरह का जातिगत उत्पीड़न झेलना पड़ता है कि उन्हें अपना जीवन समाप्त करने जैसा मुश्किल फैसला लेना पड़ता है. यह और भी शर्मनाक है कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय जिस हैदराबाद शहर में स्थित है, वहां से दो-दो राज्यों तेलंगाना व आंध्र प्रदेश की सरकारें अपना कामकाज़ चलाती हैं. रोहित की मौत के बाद हर ओर हल्ला है, लेकिन जब रोहित और उनके चार अन्य साथियों को तमाम संगठनों के समर्थन की जरूरत थी तब आखिर चुप्पी क्यों पसरी रही. यह चुप्पी खतरनाक है. क्योंकि आखिर तब कोई छात्र, शोधार्थी और शिक्षक समाज के लिए क्यों लड़ेगा? हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का दलित छात्र संगठन अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन, जब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले के दंगों पर बनी फिल्म “मुजफ्फरनगर अभी बाक़ी है” को दिखाये जाने को लेकर प्रतिबद्ध थी, तो भी हैदराबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों और हैदराबाद शहर के मुस्लिम संगठनों ने उनका कोई साथ नहीं दिया. अभी जो राजनीतिक दल रोहित के समर्थन में शोर मचा रहे हैं, जब रोहित और उनके साथी खुले आसमान के नीचे सोए थे, तो आखिर वो कहां थे?

जबकि इसके उलट एवीबीपी के छात्र नेता द्वारा सांसद एवं केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय से कथित मारपीट की शिकायत करने भर से ही बंडारू दत्तात्रेय ने स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखने में देर नहीं लगाई. और अपने छात्र संघ के साथ कथित मारपीट और अपने एक मंत्री की चिट्ठी को मंत्रालय ने भी गंभीरता से लेते हुए विश्वविद्यालय से जवाब तलब कर लिया. दत्तात्रेय की 17 अगस्त की चिट्ठी के बाद स्मृति इरानी के मंत्रलाय ने विश्वविद्यालय को छह हफ्ते में पांच पांच पत्र लिखे थे कि दत्तात्रेय की वीवीआईपी शिकायत पर क्या हो रहा है? जवाब नहीं मिलने पर मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने सीधे वाइस चांसलर अप्पा राव को पत्र लिखा. छात्र आरोप लगा रहे हैं कि इन्हीं पत्रों ने विश्वविद्यालय पर कार्रवाई करने का दबाव डाला. नजीता इन छात्रों को युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया. रोहित और उनके साथी लगातार खुले आसमान के नीचे सोते रहे, लेकिन तब ना तो उनसे मिलने राहुल गांधी गए और न ही किसी अन्य नेता ने ट्वीट और प्रेस क्रांफेंस किया. हद तो यह है कि इस दौरान कोई भी दलित/ आदिवासी/ बहुजन/ मूलनिवासी और अल्पसंख्यक संगठन रोहित और उनके साथियों के समर्थन में सामने नहीं आया. विश्वविद्यालाय के जिन 10 प्रोफेसरों ने स्मृति ईरानी के प्रेस कांफ्रेंस के विरोध में प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दिया है, अगर उन्होंने रोहित और उनके साथियों के निलंबर और युनिवर्सिटी कैंपस में प्रवेश प्रतिबंधित किए जाने के वक्त इस्तीफा दिया होता तो शायद रोहित जिंदा होता.

यह दोनों मामले ऐसे हैं जिनके बारे में यदि भावनाओं के आक्रोश में कहा जाए कि दलित-आदिवासियों को उनकी विचारधारा के लिए लड़ रहे लोगों की समस्याओं से कोई लेना-देना है ही नहीं. क्योंकि हम जिस समाज के लिए लड़ रहे हैं क्या वह हमारा साथ दे रहा है? जैसेकि जब कोई सेना युद्ध के मैदान में होती है तो सैनिकों को कवर फायर देने का कार्य दूसरे सैनिक करते हैं और फ्रंट में लड़ाई कोई दूसरा सैनिक लड़ता है. लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन के बहादुर छात्रों के साथ ऐसा नहीं था. वे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहे थे. उनको हैदराबाद शहर से किसी भी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों का समर्थन नहीं मिल रहा था. ऊपर से विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निष्कासन किया गया और स्कॉलरशिप रोक दी गयी थी, इसके बाबजूद अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन और रोहित वेमुला और उनके साथी निरंतर लड़ रहे थे. लेकिन इनको अकेला देखकर इनके विरोधियों का हौंसला बढ़ता गया, जिसके बाद अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन को जातिवादी, देश विरोधी तत्वों का संगठन बताकर जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं, केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, मानव संसाधन मंत्रालय की मंत्री श्रीमती स्मृति जुबेन ईरानी और हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रशासन ने इन पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया, तब यह छात्र चारों तरफ से घिर गए थे. लेकिन रोहित वेमुला और उसके साथियों ने झुकना या गांव वापस जाना स्वीकार करने की बजाय लड़ना मंज़ूर किया. यह पांच लड़के 10 दिनों से अपने हॉस्टल से बाहर सड़क पर रह रहे थे और रोहित और उसके चार अन्य साथी छात्रों ने फेसबुक पर पहले ही दिन हॉस्टल से निकलते हुये बाबा साहेब की तस्वीर हाथ में पकड़े लिखा था कि हमें अब हॉस्टल से निकाल दिया गया है और यह सड़क ही हमारा आसरा है.

इन पांचों छात्रों के सड़क पर आ जाने के बावजूद हैदराबाद शहर के किसी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग के संगठनों ने उनकी कोई सुध नहीं ली. यह और भी ज्यादा शर्मनाक है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में भगवा छात्र संगठनों के अलावा रोहित और उनके साथियों की विचारधारा से सहमति रखने वाले संगठन भी होंगे, लेकिन उन्होंने भी रोहित और उसके इन साथियों की कोई सुध नहीं ली. सबसे ज्यादा शर्मनाक और हैरान करने वाली बात यह रही कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक प्रोफेसरों और कर्मचारियो का कोई तो संगठन होगा, उसने भी इनकी कोई सुध नहीं ली और इनको न्याय दिलाने में कोई पहल नहीं की? सवाल उठता है कि आखिर गांव, देहात, कस्बों और छोटे शहरों से आये दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थी किसकी तरफ न्याय दिलवाने के लिए देखेंगे? जब विश्वविद्यालय के दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम प्रोफ़ेसर और कर्मचारियों ने चुप्पी साध रखी थी तो फिर रोहित और उनके साथी सचमुच में बहादुरी के प्रतीक हैं.

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर कहते थे कि “जुल्म करने वाले से जुल्म सहने वाला ज्यादा बड़ा गुनहगार है”. इस तरह से देखा जाये तो रोहित वेमुला और उनके साथी सच में बहादुरी का प्रतीक हैं. लेकिन इस मामले में सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह भी याद आते हैं जो कहते थे कि “चिड़यन ते मैं बाज़ लड़ाऊं, सवा लाख ते एक लड़ाऊं, तब गोविंद सिंह नाम काहूं”. रोहित वेमुला को जब मरना ही था, तो लड़ते हुये बहादुरों की तरह मरते; जो एक सबक होता हैदराबाद विश्वविद्यालय के जातिवादियों और फासीवादियों के लिये. इसके अलावा यह सबक होता हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन के लिये भी, तब फिर कोई कुलपति, कोई कार्य परिषद्, कोई प्रॉक्टर, कोई वार्डेन, कोई अनुशासन समिति का सदस्य और जो भी अन्य अधिकारी हैं, उनकी भविष्य में किसी भी गरीब व वंचित वर्ग के छात्र को हॉस्टल से निकालने की हिमाक़त नहीं होती और तब रोहित वेमुला और उसके साथी समाज के सच्चे हीरो होते.

क्योंकि आज के स्वकेन्द्रित, समझौतावादी, रीढ़विहीन और घुटना टेक जमाने में अम्बेडकरवादी साथी बहुत ही बड़ी मेहनत और कुर्बानियों से तैयार होते हैं. आखिर हर कोई अम्बेडकरवादी नहीं होता है. ‘जय भीम’ बोलना और बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की तस्वीर लगाना बहुत बड़े साहस और हिम्मत का काम होता है. क्योंकि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ही आज बहुजन समाज की सबसे बड़ी प्रेरणा और संबल हैं. रोहित वेमुला के आत्महत्या ने हमारे देश, समाज और विशेषकर दलित समाज का बहुत बड़ा नुकसान किया है. क्योंकि अट्ठाइस साल का पीएचडी शोधार्थी रोहित एक वैज्ञानिक लेखक बनना चाहता था, उसने अपने आत्महत्या पत्र में स्वयं लिखा है कि “मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह. लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूं. रोहित ने आत्महत्या से पहले भी एक प्रथम पत्र 18 दिसंबर, 2015 को कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले को लिखा था कि “जिसमें उनकी भेदभाव भरी प्रणाली के खिलाफ तंज कसते हुए लिखा था कि “जब दलित छात्रों का एडमिशन हो रहा हो तब ही सभी छात्रों को दस मिलीग्राम सोडियम अज़ाइड दे दिया जाए. इस चेतावनी के साथ कि जब भी उनको अम्बेडकर को पढ़ने का मन करे या वे अम्बेडकर जैसा महसूस करें तो ये खा लें. सभी दलित छात्रों के कमरे में एक अच्छी रस्सी की व्यवस्था कराएं और इसमें आपके साथी मुख्य वार्डन की मदद ले लें. हम पीएच.डी के छात्र इस स्टेज को पार कर चुके हैं और दलितों के स्वाभिमान आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं, जिसे आप बदल नहीं सकते. हमारे पास इसे छोड़ने का कोई आसान रास्ता भी नहीं है. इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि हमारे जैसे छात्रों के लिए यूथेनेसिया की सुविधा उपलब्ध कराएं”.

रोहित की यह चिट्ठी कुलपति अप्पा राव की दलित छात्रों के खिलाफ द्वेष की ओर भी इंगित करता है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले का दलित विरोधी और जातिवादी रवैया बहुत पुराना रहा है. वर्ष 2002 में इन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय का चीफ़ वार्डेन  रहते हुए 10 दलित छात्रों को विश्वविद्यालय से निकलवा दिया था और उन दलित लड़कों का मामला इतना पुख्ता बनाया था कि वे लड़के बाद में हैदराबाद उच्च न्यायालय से भी अपनी वापसी नहीं करा पाये थे और उनकी विश्वविद्यालय में वापसी की याचिका खारिज कर दी गई थी. रोहित और उनके साथियों के मामले में भी अप्पा राव का रवैया वही रहा. रोहित इस दुनिया से विदा लेते हुए भी अपराधबोध में दिखे. उसने अपने आखिरी पत्र में लिखा, “अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी. आप सबने मुझे बहुत प्यार किया. सबको भविष्य के लिए शुभकामना. आख़िरी बार जय भीम!” रोहित आगे लिखते हैं, “मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. ख़ुद को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है. किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, न तो अपने कृत्य से और न ही अपने शब्दों से. ये मेरा फ़ैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूं. मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान न किया जाए”.” साथियों से माफी मांगने की बात शायद इसलिए थी, क्योंकि रोहित ने अपने साथियों के साथ मिलकर समाज को सुधारने का प्रण लिया होगा.

लेकिन यहां यह सवाल भी पैदा होता है कि आखिर रोहित वेमुला ने अपने अंतिम पत्र में किसी को दोषी क्यों नहीं बताया है? तब फिर सड़क पर इतने दिनों से रोहित और उसके साथी क्या कर रहे थे? जब कोई दोषी ही नहीं तब फिर आत्महत्या का वरण क्यों? कहीं रोहित को किसी ने साजिशन मार तो नहीं डाला. क्या यह हस्तलिखित पत्र उसने ही लिखा है या फिर कोई दबाब डालकर लिखवाया गया है, क्योंकि पत्र में एक स्थान पर बहुत काटा-पीटी की गई है और मरने वाले व्यक्ति के पास इतना समय होता नहीं है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले ने रोहित की आत्महत्या पर आश्चर्य व्यक्त किया है. आखिर कुलपति को समझ में नहीं आ रहा कि उनके एक जे.आर.एफ. प्राप्त शोधार्थी ने आत्महत्या क्यों की है? इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह कि कुलपति प्रो. पिंदिले के इस आश्चर्य में कोई अपराधबोध जैसी बात नहीं है, और उन्हें लग ही नहीं रहा है कि इस आत्महत्या में उनकी जिम्मेदारी भी तय हो सकती है. आश्चर्य उस छात्र नेता ने भी व्यक्त किया है, जिसने रोहित और उनके साथियों पर मारपीट का आरोप लगाया था.

रोहित वेमुला के एकाकीपन ने समाज को झकझोर दिया है. जो शोधार्थी अट्ठाईस वर्ष का जे.आर.एफ. प्राप्त पी.एच.डी. कर रहा नौजवान हो और वह हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटसस एसोसिएशन का सक्रिय कार्यकर्ता हो, जो सभी मामलों की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता हो. और तो और जो अपने पांच साथियों के साथ न्याय मांगने सड़क पर बैठा हो, वह इतना एकाकी कैसे हो सकता है? इसमें हम सबकी बहुत बड़ी गलती है. और सबसे ज्यादा गलती हैदराबाद शहर के सभी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठनों की है. क्योंकि जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ इन लोगों का विवाद होता है, तो ए.बी.वी.पी. के लड़के एक केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पास पहुंच जाते हैं और फिर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री श्रीमती ईरानी अपने अधिकारियों से हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखवाती हैं. लेकिन यह दलित छात्र हैदराबाद के किस दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठन के पास गए और हैदराबाद के किस संगठन ने इनकी सुनी? किस नेता, विधायक, सांसद और मंत्री ने इन दलित छात्रों के लिए पत्र लिखा? सैकड़ों की संख्या में तो गली-मोहल्ले-जिला-नगर-महानगर के नेता, सदस्य, अध्यक्ष, विधायक, सांसद और वंचित समुदाय से जीतकर आते हैं? हैदराबाद तो दो-दो राज्यों की राजधानी है, वहां तो सैकड़ों की संख्या में इन वर्गों के आई.ए.एस., आई.पी.एस., पी.सी.एस. और न जाने कितने बड़े अधिकारी रहते हैं, क्या वे सब अंधे-गूंगे और बहरे थे? हैदराबाद के किस एन.जी.ओ., पत्रकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवी, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संगठन के नेता व कार्यकर्ता ने इन दलित छात्रों की सुनी? और आखिर क्यों नहीं सुनी?

दलित/पिछड़ा/अल्पसंख्यक समाज के लोगों का यह बहुत ही दोहरा चरित्र है कि उनके समाज के लोग छात्रों, शोधार्थियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सरकारी व गैर सरकारी अधिकारियों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जोखिम भरे माहौल में कार्य करने वाले हर व्यक्ति से यह उम्मीद तो करते हैं कि “इस वर्ग को उनके लिए ‘कुछ’ करना चाहिए. उसे पे बैक टू सोसाइटी का फ़ार्मूला अपना चाहिये”. लेकिन यही बहुसंख्यक समाज खुद अपनी जिम्मेदारी निभाता है क्या? क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता के साथ कोई अन्याय हुआ हो, तो सौ-पचास की संख्या में सामाजिक लोगों ने उस कार्यालय में पहुंचकर अपना विरोध दर्ज़ कराया हो? हां भीड़ नुमा यह लोग झुण्ड के झुण्ड धर्म के नाम पर, राजनीतिक दल के नाम पर और अन्य सामाजिक कार्यों के लिए चन्दा (आर्थिक सहयोग) मांगने जरूर आ जायेंगे. अगर चन्दा नहीं दिया तो अमुक-अमुक छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता इन तथाकथित लोगों को गद्दार नज़र आने लगता है.

आज तक यह बहुसंख्यक समाज यह नहीं समझ पाया है कि कोई छात्र, शोधार्थी, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता अपने शहर से सैकड़ों किलोमीटर दूर आकर आपके अनजान शहर में रहता है, नौकरी करता है, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के मिशन पर चलता हुआ अपने दफ़्तर में रोज़ जोखिम लेता है, प्रताड़ित होता है और हमारा यह बहुसंख्यक समाज न तो उन लोगों को कोई सामाजिक सुरक्षा देता है, न ही उनकी कभी कोई सुध लेता है. हां सारी जिम्मेदारी उस शिक्षित वर्ग के कर्तव्य को बताता हुआ, अपने शहर में पड़ा सोता रहता है. कौन उसके समाज का नया व्यक्ति उनके शहर में आया है, यह उसको पता नहीं है? कौन हमारे लिए लड़ रहा है? कौन हमारे लोगों को परेशान कर रहा है और कौन परेशान हो रहा है, यह उसको पता नहीं है? हां, अगर वो कभी दलित/पिछड़े समाज के किसी अधिकारी, कर्मचारी के पास काम लेकर जाएं और वह इंकार कर दें तो वह समाज का होने का हवाला देकर उनको कोसने से बाज नहीं आते. लेकिन जो काम पूरे हैदराबाद शहर के लोग मिलकर नहीं कर पाएं रोहित वेमुला ने वह अकेले कर दिखाया. रोहित की शहादत के बाद मचे सियासी वबंडर को इस देश की सत्ता संभाल नहीं पाई और उसे मजबूरी में रोहित के चार अन्य साथियों का निलंबन वापस लेना पड़ा. रोहित ने अपनी जिंदगी देकर चार अन्य जिंदगियों को संवार दिया. साथ ही चुपचाप दलित/वंचित/शोषित तबके के लिए एक संदेश छोड़कर चले गए. लेकिन अगर रोहित और उनके साथियों के निलंबन के बाद अन्य लोग सामने आए होते तो आज रोहित जिंदा होता और अपने साथियों के साथ निलंबन वापस लिए जाने का जश्न मना रहा होता.

-लेखक महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन के प्रभारी निदेशक हैं.

सम्पर्कः 09326055256, ईमेल-surjeetdu@gmail.com

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