भारतीय जनता पार्टी के पिता संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस ने दलितों के ऊपर नया जाल फेंका है। खास तौर पर उस दलितों पर जो बेहद गरीब हैं और अपनी हर परेशानी का हल पत्थर की मूर्तियों में ढूंढ़ते हैं। आरएसएस का कहना है कि गांव में किसी भी दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने से न रोका जाए। शिव मंदिरों में जल चढ़ाने से न रोका जाए और न ही दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी भरने से ही रोका जाए।
खबर है कि आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में यह एजेंडा तय किया गया है। इस एजेंडे को खासकर पू्र्वी और पश्चिमी क्षेत्र में जमीन पर उतारने की कवायद शुरू कर दी गई है। खास बात यह है कि इसके लिए वाल्मीकि जयंती, अंबेकर जयंती और सतगुरु रविदास जयंती जैसे मौकों को भुनाया जाएगा।
दरअसल दलित समाज में लगातार बढ़ रही जागरूकता और जातीय अत्याचार को लेकर गरीब से गरीब आदमी के विरोधी तेवर ने आरएसएस और सवर्ण हिन्दुओं को चिंता में डाल दिया है। जो लोग पहले बिना विरोध के सवर्णों की हाजिरी बजाते थे, उनके तमाम अत्याचारों को सहते थे, उनके विरोध ने संघ और हिन्दु राष्ट्र की वकालत करने वाले लोगों को चिंता में डाल दिया है।
दलित समाज का ज्यादातर हिस्सा जातीय अत्याचार और हिन्दू धर्म में मौजूद जातीय सड़ांध की खुलकर खिलाफत भी करने लगा है। साथ ही हिन्दु धर्म से उसका मोहभंग भी हो रहा है। अब यह आग गांवों तक में फैल गई है, जो आरएसएस के लिए चिंता की बात है। साफ है कि बहुजनों ने जिस तरह हिन्दु धर्म में फैले जातीय सड़ांध की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी है, उससे संघ और सवर्ण समाज डरा हुआ है। बहुजनों की तमाम जातियों के भीतर अंबेडकरवादी विचारधारा तेजी से फैल रही है। संघ को उसकी काट सिर्फ हिन्दुत्व की राजनीति में दिख रही है। संघ, भाजपा सहित जाति के समर्थकों को डर है कि कहीं दलित समाज के लोग उनके खिलाफ बगावत न कर दें। इसलिए वो दलितों को अधिकार देने की बात करने लगे हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब संघ को दलितों से इतनी फिक्र है तो वह जाति मुक्त भारत की बात क्यों नहीं करते। आजादी का अमृत महोत्सव जैसे वक्त में जाति को सबसे बड़ा मुद्दा घोषित क्यों नहीं करते? यही बात संघ की असलियत को जाहिर करता है।
पिछले दिनों अमेरिका के सिएटल शहर में जिस तरह जाति के खिलाफ कानून बन गया और जिस तरह जातीय भेदभाव दुनिया भर में अब एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है, उसने भी संघ की नींद उड़ा दी है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैले अंबेडकरवादी भारत के जातिवाद की कलई खोल रहे हैं।
इन तमाम बातों से डरे हिन्दु राष्ट्र के समर्थकों और संघ ने दलितों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए मंदिर प्रवेश का चारा फेंका है। संघ और हिन्दु राष्ट्र के समर्थकों को पता है कि उनका हिन्दु राष्ट्र का सपना बिना दलितों-पिछड़ों के संभव नहीं है, सवाल यह है कि देश का बहुजन अपनी ताकत को कब समझेगा? दलितों को पिछड़ों को यह समझना होगा कि उनका उद्धार मंदिर में नहीं, बल्कि किताबों में है। उस रास्ते पर चलने से है, जिसे बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने दिखाया था। संघ और हिन्दुवादी अब दलितों से डरने लगे हैं। दलितों को बस अपनी ताकत समझने की जरूरत है।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।