-डॉलर के मुक़ाबले रुपये में कमज़ोरी जारी
-पिछले एक महीने में सवा दो रुपये से अधिक टूटा रुपया
-रुपया 15 महीने के सबसे निचले स्तर पर
-कच्चे तेल में उबाल ने बिगाड़ी रुपये की चाल
अगस्त 2013, जगह- लोकसभा, नेता- सुषमा स्वराज
“इस करेंसी के साथ देश की प्रतिष्ठा जुड़ी होती है और जैसे-जैसे करेंसी गिरती है, तैसे-तैसे देश की प्रतिष्ठा गिरती है…..”
तब लोकसभा में भाजपा की नेता और अब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ये भाषण अगस्त 2013 में दिया था और वो रुपये का भाव डॉलर के मुक़ाबले लगातार गिरने और 68 के पार पहुँचने पर वित्त मंत्री पी चिदंबरम के स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं थी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से जवाब की मांग कर रहीं थीं.
अगस्त 2013, जगह- अहमदाबाद, नेता- नरेंद्र मोदी
“आज देखिए, रुपये की कीमत जिस तेज़ी से गिर रही है और कभी-कभी तो लगता है कि दिल्ली सरकार और रुपये के बीच में कंपीटीशन चल रहा है, किसकी आबरू तेज़ी से गिरेगी. देश जब आज़ाद हुआ तब एक रुपया एक डॉलर के बराबर था. जब अटलजी ने पहली बार सरकार बनाई, तब तक मामला पहुँच गया था 42 रुपये तक, जब अटलजी ने छोड़ा तो 44 रुपये पर पहुँच गया था, लेकिन इस सरकार में और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के कालखंड में ये 60 रुपये पर पहुँच गया है.”
नरेंद्र मोदी का ये भाषण पाँच साल पुराना था जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे. लेकिन उसके बाद से हिंदुस्तान की सियासत में काफ़ी कुछ बदल चुका है, आर्थिक हालात में भी बहुत उठापटक हुई है, लेकिन कभी गिरते रुपये पर मनमोहन सरकार को घेरने वाले ये नेता इन दिनों रुपये में गिरावट को लेकर चुप्पी साधे हुए हैं.
जब मोदी सरकार मई 2014 में दिल्ली में सत्तारूढ़ हुई थी तब डॉलर के मुक़ाबले रुपया 60 के स्तर के आसपास था. लेकिन इसके बाद से कमोबेश दबाव में ही है. पिछले कुछ महीनों से ये दबाव और बढ़ा है और हाल ये है कि लुढ़कते हुए 15 महीने के निचले स्तर पर पहुँच गया है. पिछले एक महीने में डॉलर के मुक़ाबले इसमें 2 रुपये 29 पैसे की गिरावट आई है.
वैसे, रुपये ने अपना सबसे निचला स्तर भी मोदी सरकार के कार्यकाल में ही देखा है. नवंबर 2016 में रुपये ने डॉलर के मुकाबले 68.80 का निचला स्तर छुआ था.
हालांकि डॉलर सिर्फ़ रुपये पर ही भारी हो ऐसा नहीं है. इस साल मलेशियाई रिंगिट, थाई भाट समेत एशिया के कई देशों की करेंसी भी कमज़ोर हुई है.
रुपये की कहानी
एक जमाना था जब अपना रुपया डॉलर को ज़बरदस्त टक्कर दिया करता था. जब भारत 1947 में आज़ाद हुआ तो डॉलर और रुपये का दम बराबर का था. मतलब एक डॉलर बराबर एक रुपया. तब देश पर कोई कर्ज़ भी नहीं था. फिर जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया और फिर रुपये की साख भी लगातार कम होने लगी.
1975 तक आते-आते तो एक डॉलर की कीमत 8 रुपये हो गई और 1985 में डॉलर का भाव हो गया 12 रुपये. 1991 में नरसिम्हा राव के शासनकाल में भारत ने उदारीकरण की राह पकड़ी और रुपया भी धड़ाम गिरने लगा. और अगले 10 साल में ही इसने 47-48 के भाव दिखा दिए.
रुपये का क्या है खेल?
रुपये और डॉलर के खेल को कुछ इस तरह समझा जा सकता है. मसलन अगर हम अमरीका के साथ कुछ कारोबार कर रहे हैं. अमरीका के पास 67,000 रुपए हैं और हमारे पास 1000 डॉलर. डॉलर का भाव 67 रुपये है तो दोनों के पास फिलहाल बराबर रकम है.
अब अगर हमें अमरीका से भारत में कोई ऐसी चीज मंगानी है, जिसका भाव हमारी करेंसी के हिसाब से 6,700 रुपये है तो हमें इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे.
अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में बचे 900 डॉलर और अमरीका के पास हो गए 73,700 रुपये. इस हिसाब से अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भारत के जो 67,000 रुपए थे, वो तो हैं ही, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में जो 100 डॉलर थे वो भी उसके पास पहुंच गए.
इस मामले में भारत की स्थिति तभी ठीक हो सकती है अगर भारत अमरीका को 100 डॉलर का सामान बेचे….जो अभी नहीं हो रहा है. यानी हम इंपोर्ट ज़्यादा करते हैं और एक्सपोर्ट बहुत कम.
करेंसी एक्सपर्ट एस सुब्रमण्यम बताते हैं कि इस तरह की स्थितियों में भारतीय रिज़र्व बैंक अपने भंडार और विदेश से डॉलर खरीदकर बाजार में इसकी पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करता है.
रुपये की चाल कैसे तय होती है?
करेंसी एक्सपर्ट एस सुब्रमण्यम का कहना है कि रुपये की कीमत पूरी तरह इसकी डिमांड और सप्लाई पर निर्भर करती है. इंपोर्ट और एक्सपोर्ट का भी इस पर असर पड़ता है. हर देश के पास उस विदेशी मुद्रा का भंडार होता है, जिसमें वो लेन-देन करता है. विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा की चाल तय होती है. अमरीकी डॉलर को वैश्विक करेंसी का रूतबा हासिल है और ज़्यादातर देश इंपोर्ट का बिल डॉलर में ही चुकाते हैं.
रुपया क्यों कमज़ोर?
डॉलर के सामने अभी के माहौल में रुपये की नहीं टिक पाने की वजहें समय के हिसाब से बदलती रहती हैं. कभी ये आर्थिक हालात का शिकार बनता है तो कभी सियासी हालात का और कभी दोनों का ही.
दिल्ली स्थित एक ब्रोकरेज़ फर्म में रिसर्च हेड आसिफ़ इक़बाल का मानना है कि मौजूदा हालात में रुपये के कमज़ोर होने की कई वजहें हैं
पहली वजह है तेल के बढ़ते दाम- रुपये के लगातार कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण कच्चे तेल के बढ़ते दाम हैं. भारत कच्चे तेल के बड़े इंपोर्टर्स में एक है. कच्चे तेल के दाम साढ़े तीन साल के उच्चतम स्तर पर हैं और 75 डॉलर प्रति बैरल के आसपास पहुँच गए हैं. भारत ज्यादा तेल इंपोर्ट करता है और इसका बिल भी उसे डॉलर में चुकाना पड़ता है.
विदेशी संस्थागत निवेशकों की बिकवाली- विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयर बाज़ारों में अप्रैल में ही रिकॉर्ड 15 हज़ार करोड़ रुपये के शेयर बेचे हैं और मुनाफ़ा डॉलर में बटोरकर अपने देश ले गए.
अमरीका में बॉन्ड्स से होने वाली कमाई बढ़ी- अब अमरीकी निवेशक भारत से अपना निवेश निकालकर अपने देश ले जा रहे हैं और वहाँ बॉन्ड्स में निवेश कर रहे हैं.
रुपया गिरा तो क्या असर?
सवाल ये है कि डॉलर के मुक़ाबले रुपया इसी तरह गिरता रहा तो हमारी सेहत पर क्या असर होगा.
करेंसी एक्सपर्ट सुब्रमण्यम के मुताबिक सबसे बड़ा असर तो ये होगा कि महंगाई बढ़ सकती है. कच्चे तेल का इंपोर्ट होगा महंगा तो महंगाई भी बढ़ेगी. ढुलाई महंगी होगी तो सब्जियां और खाने-पीने की चीज़ें महंगी होंगी.
इसके अलावा डॉलर में होने वाला भुगतान भी भारी पड़ेगा. इसके अलावा विदेश घूमना महंगा होगा और विदेशों में बच्चों की पढ़ाई भी महंगी होगी.
रुपये कि कमज़ोरी से किसे फ़ायदा?
तो क्या रुपये की कमज़ोरी से भारत में किसी को फायदा भी होता है? सुब्रमण्यम इसके जवाब में कहते हैं. “जी बिल्कुल. ये तो सीधा सा नियम है, जहाँ कुछ नुकसान है तो फ़ायदा भी है. एक्सपोर्टर्स की बल्ले-बल्ले हो जाएगी….उन्हें पेमेंट मिलेगी डॉलर में और फिर वो इसे रुपये में भुनाकर फ़ायदा उठाएंगे.”
इसके अलावा जो आईटी और फार्मा कंपनियां अपना माल विदेशों में बेचती हैं उन्हें फ़ायदा मिलेगा.
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साभार बीबीसी
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