यह खबर मुझे एक चैनल के वेबसाइट पर पढ़ने को मिली. हेडिंग थी- ‘जनरल डायर को मारने वाले शहीद उधम सिंह के परपोते को नहीं मिल रही चपरासी की नौकरी’ खबर पढकर मुझे लगा कि एक वीर शहीद के परिवार के साथ अन्याय हो रहा है। हो सकता है कि खबर लिखने वाले पत्रकार की ऐसी मंशा ना हो और उसने अपनी खबर को सनसनी बनाने के लिए यह हेडिंग दी हो, लेकिन चूंकि मैं क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह के बलिदान के बारे में जानता हूं इसलिए मुझे यह खबर अखर गई. लेकिन पहले उधम सिंह के परपोते जग्गा सिंह के बारे में जानते हैं. फिर दूसरी बात.
शहीद उधम सिंह के परपोते पंजाब सरकार में नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. नौकरी के नाम पर वह दस साल से पंजाब सरकार द्वारा छले जा रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने 10 साल पहले उन्हें नौकरी देने का वादा किया था. वह इंतजार करते रहे, लेकिन पंजाब की कांग्रेस सरकार द्वारा किया वादा; वादा ही रह गया. क्योंकि कांग्रेस तुरंत सत्ता से बाहर हो गई थी और उसके बाद की भाजपा-अकाली सरकार ने इसका संज्ञान नहीं लिया. उधम सिंह की बड़ी बहन आस कौर के प्रपौत्र जग्गा सिंह द्वारा शिरोमणि अकाली दल और भाजपा सरकार से बार-बार अपील किए जाने का अभी कोई परिणाम नहीं निकला है. यह साफ हो गया है कि भाजपा की सरकार का ‘राष्ट्रवाद’ शायद कुछ ‘खास योग्यता’ वाले लोगों के लिए ही है.
फिलहाल जग्गा सिंह एक दुकान में मजदूरी का काम करते हैं, जहां से उन्हें हर महीने मात्र 2500 रुपये मिलते हैं. इसी पैसे से वह अपने परिवार के छह सदस्यों के साथ बेहद गरीबी में जीवन गुजार रहे हैं. इसके अलावा उन्हें 60 वर्षीय पिता जीत सिंह की देखभाल भी करनी पड़ती है.
अब दूसरी बात, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है. जिन सरकारों ने उधम सिंह को उनके बलिदान के मुताबिक इज्जत नहीं दी, उनसे इस बात की उम्मीद लगाना कि वह उनके परपोते को नौकरी देगी, इसकी उम्मीद करना बेमानी है. और यह सरकार की दया है कि वह किसी को नौकरी देना चाहती है या नहीं. क्योंकि सिर्फ किसी का परपोता होने से कोई सरकारी नौकरी के योग्य नहीं हो जाता. लेकिन हां, जिस पंजाब से खबर आई है, मुझे वहां के लोगों से बात करनी है. मैंने सुना है कि पंजाब के लोग धनवान हैं. उनकी बड़ी-बड़ी कोठियां देखने लायक होती है. उस पंजाब के लखपति और करोड़पतियों से मेरा सवाल है कि क्या वो एक क्रांतिकारी के परिवार के लिए एक बेहतर जिंदगी का इंतजाम नहीं कर सकते ?. क्या वह उन्हें 15-20 हजार रुपये महीने की नौकरी नहीं दे सकते ?
अगर पंजाब के लोग नहीं कर सकते तो क्या दिल्ली, नोएडा, महाराष्ट्र के लोग ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं? क्या समाज के समर्थ लोगों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह एक क्रांतिकारी शहीद के नाम का मान रखते हुए उसके परिवार को मदद करे? अगर यह खबर पढ़ने के बाद किसी के दिमाग में यह सवाल आए कि उधम सिंह कौन थे तो उसके लिए बस इतना जानना काफी है कि उधम सिंह वह शेर थे, जिन्होंने अमृतसर के जलियावाला बाग में सैकड़ों लोगों को गोली मारने का आदेश देने वाले माइकल ओ डायर को लंदन में जाकर गोली मार दी थी और अपनी माटी के अपमान का बदला लिया था. इससे ज्यादा जानना हो तो गूगल है ही.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
Sarkar bhi kitni gir gai.