दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी, प्रमुख शिया धर्मगुर और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य मौलाना कल्बे जव्वाद और पूर्वांचल के कुछ इलाकों में प्रभावशाली मानी जाने वाली राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल समेत कई मुस्लिम संगठनों तथा धर्मगुरुओं ने चुनाव में बसपा को समर्थन का ऐलान करते हुए मुसलमानों से इस पार्टी को वोट देने की अपील की थी.
इनके इस जुबानी समर्थन से बाग-बाग बहुजन समाज पार्टी अपनी जीत को बस अपने से कुछ कदम दूर मान रही थी. इस समर्थन के बाद पार्टी प्ररदेश के मुस्लिम बहुल जिलों में रामपुर, सहारनपुर, मुरादाबाद, अमरोहा, बरेली, आजमगढ़, मउ, शाहजहांपुर, शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ तथा अलीगढ़ की 77 सीटों पर उम्मीद लगाए बैठी थी. पार्टी को पूरा भरोसा था कि अगर इन सभी सीटों पर उसे दलितों और मुस्लिमों का वोट मिल जाएगा तो वह उत्तर प्रदेश में अपने बूते सरकार बनाने में सफल हो जाएगी. हालांकि चुनाव नतीजों में इस सीटों में से कुल चार सीटों पर ही बसपा को जीत मिल पाई.
चुनावी नतीजों के बाद बसपा हैरत में है. अब एक सवाल यह भी उठने लगा है कि तमाम मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा बसपा के पक्ष में अपील करना कहीं सोची समझी साजिश तो नहीं थी, जो बसपा के हार का कारण बनी. लोगों का मानना है कि इससे यूपी का चुनाव हिन्दू बनाम मुस्लिम हो गया. साथ ही दलित और ओबीसी समाज के हिन्दूवादी लोग भी भाजपा के साथ आ गए. और वहीं दूसरी ओर मुस्लिमों का वोट बसपा को नहीं मिलने से स्थिति और बिगड़ गई और पार्टी 19 सीटों पर पहुंच गई.
यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि जिन धर्मगुरुओं ने बसपा को समर्थन देने का ऐलान किया था उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता समय-समय अलग-अलग रही है. वह अपने फायदे के लिए अक्सर ऐसे ऐलान करते रहते हैं. यह भी माना जा रहा है कि इसमें कहीं न कहीं भाजपा का भी हाथ हो सकता है.