Monday, March 10, 2025
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समरसता बनाम जातीय आतंकवाद

देश के कई समाचार पत्रों में यह खबर प्रकाशित हुई है

टिहरी जिले के श्रीकोट गांव में जातीय दंभ में डूबे मनुवादियों द्वारा एक दलित युवक की हत्या की खबर इस समाज के एक तबके का अमानवीय चेहरा उजागर करता है. दलित युवक को सिर्फ इसलिए मार डाला गया क्योंकि वह एक शादी समारोह में कथित ऊंची जाति के लोगों के बीच खाना खाने बैठ गया. इस घटना ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि हिन्दू धर्म में एक जाति के व्यक्ति की दूसरी जाति के व्यक्ति के साथ कितनी नफरत है. उत्तराखंड के अधिकतर गांवों में विशेषकर गढ़वाल मंडल में आज भी शादियों के दौरान तथाकथित सवर्ण और तथाकथित अवर्ण (संवैधानिक नाम अनुसूचित जाति) जातियों में एक दूसरे को निमंत्रण देने की परंपरा है. इसके जरिए समाजिक सौहार्द को मजबूत करने की बात कही जाती है.

लेकिन इस परंपरा का सबसे दुखद पहलू यह है कि शादी समारोह के दौरान दोनों जातियों का भोजन अलग–अलग बनता है. यदि सवर्णों के यहां शादी है तो दलित पक्ष के लोगों को राशन अलग दे दिया जाता है और वो अलग खाना बनाते हैं और खाते हैं. ठीक यही हाल दलितों के यहां शादी होने पर होता है. वहां सवर्ण पहुंचते तो हैं लेकिन अलग खाते पकाते हैं. ऐसे में सामाजिक सौहार्द बनाने की कोशिश एक दिखावा मात्र बनकर रह जाती है, क्योंकि ऐसे में दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ घुल-मिल नहीं पाते हैं. टिहरी जिले में घटी घटना इसको इंगित भी करती है.

मृतक जितेन्द्र दास की गलती बस इतनी भर थी कि वह खाने के लिए वहां जा बैठा जहां कथित सवर्णों का झुंड खाने बैठा था. बस यही बात उनसे हजम नहीं हुई और वो जितेन्द्र के साथ मारपीट करने लगे, जिसके बाद अंततः उसने दम तोड़ दिया. दुखद पहलू यह है कि आज दलित समाज का व्यक्ति कभी उनके बीच बैठ जाता है तो तथाकथित सवर्णों का जातीय अहंकार कुलाचें मारने लगता है और ऐसी घटनाएं हो जाती हैं. ऐसा भी नहीं है कि उत्तराखंड में इस तरह की घटना पहली बार हुई है. पहले भी ऐसी घटनाएं सुनने को आती रहती हैं. ऐसी घटना होने के बाद शुरू होता है समझौते का खेल, जैसा इस घटना के बाद भी दिखने लग गया है और फिर क्रूरता के इस खेल को सामान्य घटना बनाकर रफा दफा कर दिया जाता है और फिर निर्लज्जता से कह दिया जाता है कि SC ST Atrocity एक्ट का दुरुपयोग होता है.

कुछ लोग एक जाति द्वारा दूसरी जाति को निमंत्रण देने और अलग अलग खाना बनाने को ही समरसता कहते हैं जबकि बहुजन बुद्धिजीवि इसको मानसिक गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र कहते हैं. हकीकत में यह देश का सबसे बड़ा आतंकवाद है. इस आतंकवाद की जद में देश की एक चौथाई आबादी है. तथाकथित प्रगतिशील तो ऐसे अवसरों पर अपना मुंह ऐसे बंद कर लेते हैं मानो उनके नजरों के सामने तो कुछ हुआ ही नहीं. दलित समाज से एक ही निवेदन है कि समरसता नहीं समता के लिए संघर्ष करो, अपनी मानसिक कुंठा को समाप्त कर आगे बढ़ना ही आपकी जीत का कारण बनेगा.

  • लेखक संजय कुमार उत्तराखंड में शिक्षक हैं। उनके फेसबुक वॉल से साभार।

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