सरदार वल्लभ भाई पटेल डा. अम्बेडकर के धुर विरोधी थे

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सरदार वल्लभ भाई पटेल और अंबेडकर, दोनों को ही भारतीय राजनीति के सबसे मजबूत स्तंभों में गिना जाता है| दोनों के बीच की बहस और मतभेद उन सवालों पर रोशनी डालते हैं, जो आज के राजनीतिक परिदृश्य में भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उस समय थे. सरदार वल्लभ भाई पटेल व डॉ. भीमराव अंबेडकर के रिश्ते पर एक नजर डालें तो दोनों की विरासत को लेकर आज भी तमाम धड़ों में प्रतियोगिता होती रहती है. राजनीतिक दल दोनों की विरासतों को अपने सांचे में ढालकर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं/कर रहे हैं. दोनों को ही इन दिनों किसी न किसी प्रकार से सम्मानित किया जा रहा है. डा. बाबा साहेब अम्बेडकर की याद में दिल्ली में मेमोरियल बनाया गया है, तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की याद में दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है. ज्ञात हो कि महाराष्ट्र सरकार ने भी बाबा साहेब अम्बेडकर की सरदार पटेल की ही तर्ज पर मूर्ति/प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की है. सुना है कि उस परियोजना पर काम भी शुरू हो गया है.

क्या आप जानते हैं कि जाति और आरक्षण को लेकर सरदार पटेल और डॉक्टर अंबेडकर की सोच बिलकुल अलग थी. संविधान सभाओं में इस विषय पर उन दोनों के बीच अच्छी खासी बहस होती थी. शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मदद से अंबेडकर दलित अधिकारों को सुरक्षित करना चाहते थे किंतु पटेल को आरक्षण ‘राष्ट्र-विरोधी’ लगता था. उन्होंने कहा था, “जो अब अछूत नहीं हैं, उन्हें भूल जाना चाहिए कि वे कभी अछूत थे. हम सबको साथ खड़े होना होगा.” यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या आजादी के इतने सालों बाद भी पटेल की बात पर विश्वास किया जा सकता है. उनका ये कहना कि अछूतों को ये भूल जाना चाहिए कि वे कभी अछूत थे, कितना सार्थक है. क्या ये सवाल आज वाजिब नहीं? उन्होंने अछूतों को समझाने की कोशिश की किंतु ब्राह्मणवादी सोच को बदलने के लिए सवर्णों को कोई हिदायत अथवा सीख नहीं दी, फिर कैसे मान लिया जाए कि पटेल की विचारधारा मनुवादी नहीं थी? हां! ये जरूर है कि गृहमंत्री रहते हुए उन्होंने भारत के रजवाड़ों का सरकारीकरण करके भौगोलिक स्तर पर भारत को एक करने का काम किया किंतु समाज में व्याप्त भेदभाव और कुरीतियों के निस्तारण के लिए कोई काम नहीं किया. समाज में व्याप्त जातिप्रथा और कुरीतियों के खिलाफम जो भी काम हुआ, वो केवल और केवल बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही किया और किसी ने नहीं. यही अंतर था बाबा साहेब अम्बेडकर और पटेल जी की सोच में.

अंबेडकर संविधान सभा के सभापति थे. पर उनका एक निश्चित लक्ष्य भी था. उन्हें लंबे समय से शोषण का शिकार दलितों के हित भी सुरक्षित करने थे, चाहे उन्हें जिद्दी और आक्रामक रणनीति ही क्यों न अपनानी पड़े. उन्हें यकीन था कि ऐसा सिर्फ दलितों के राजनीतिक और आर्थिक अधिकार सुरक्षित करके ही किया जा सकता है, जो सरकारी शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के जरिए ही हो सकता था. इसलिए उन्होंने प्रस्ताव रखा कि सरकार शिक्षा और नौकरियों में कुछ फीसदी सीटें दलित और पिछड़े वर्ग के लिए सुरक्षित रखे.

सरदार पटेल, केएम मुंशी, ठाकुर दास भार्गव और कुछ अन्य ऊंची जाति के कांग्रेस नेताओं ने इसका पुरजोर विरोध किया. पटेल का कहना था कि दलित हिंदू धर्म का एक हिस्सा हैं और उनके लिए अलग व्यवस्था उन्हें हिंदुओं से हमेशा के लिए अलग कर देगी…. अब इन लोगों से कोई ये पूछे कि दलितों को हिन्दू तो माना गया किंतु वे व्यवस्था का हिस्सा कब थे? उन्हें सवर्णों ने अपना हिस्सा माना और उनके साथ कब मानवीय व्यवहार किया जाता था? दलितों के साथ सवर्णों का आज भी वही व्यवहार है. हां! कुछ विवशताओं के चलते दलितों की सामाजिक/ आर्थिक/ राजनीतिक स्थिति जो बदलाव आया है वो सवर्णों की सोच में बदलाव का परिणाम न होकर शिक्षा के प्रचार-प्रसार का परिणाम है और कुछ नहीं.

स्मरण रहे कि वह पटेल जी ही थे जिन्होंने संविधान निर्माण के दौरान बाबा साहेब से संविधान में आरक्षण का प्रावधान करने का विरोध किया था, जिस पर डॉ आंबेडकर ने संविधान समिति से पटेल जी को अपना स्तीफा सौंप दिया था किंतु पटेल जी ने भविष्य को देखते हुए बाबा साहेब का स्तीफा फाड़ दिया और कहा कि अम्बेडकर मैं जिद्दी जरूर हूं किन्तु मूर्ख नहीं… औऱ इस तरह संविधान में एस सी/एस टी को नौकरियों में आरक्षण प्रदान हो सका…..और आरक्षण विरोधी भाजपा उसी पटेल का गुणगान करने में लगी है…दोनों की मानसिकता एक सी जो है. यह भी सुनने को मिलता है कि पटेल जी ने कहा था कि यदि मैं प्रधान मंत्री होता तो अम्बेडकर को कभी भी संविधान निर्माण समिति में न आने देता.

हैरत की बात तो ये कि जिस सरदार पटेल ने गृह मंत्री रहते हुए आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाया था, उस आर एस एस से जन्मी भाजपा सरदार पटेल ही नहीं, न जाने और कितने ही आर एस एस विरोधी कांग्रेसी नेताओं को सिर माथे बिठाती जा रही है, जिनका विरोध करते – करते आर एस एस के नेताओं का गला भर्राने लगता था किंतु भाजपा की पैत्रिक संस्था आर एस एस आज आँख बन्द करके भाजपा की कारस्तानी देखने को मजबूर है अथवा वो भाजपा के सामने बौनी हो गई है, कुछ पता नहीं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि आर एस एस ने मान लिया है कि सरदार पटेल ने गृहमंत्री रहते हुए जो आर एस एस को प्रतिबन्धित किया था, वह सही था. यानी कि आर एस एस की गतिविधियां राष्ट्र विरोधी ही थीं…. और आज भी हैं किंतु सत्ता में बने रहने के लिए वो जरूरी मान बैठी है कि समाज विरोधी अपने रवैये को ढकने के लिए समाज के हित में काम करने वाला चाहे जो भी रहा हो, उसे अपने पाले में खींचना जरूरी है.

जब से भाजपा सत्ता में आई है, उसने नारा लगाया है कि भाजपा भारत को कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाहती है. किंतु देखा यह जा रहा है कि जो भी नेता कांग्रेस पार्टी का दामन छोड़ देता है, भाजपा उसे अपने घर में मेहमान बनाकर भरपूर आदर-सत्कार करती है और भाजपा में शामिल कर लेती है. इस प्रकार तो ये लगता है कि भारत कभी भी इसलिए कांग्रेस मुक्त नहीं होगा क्योंकि भाजपा ही कांग्रेस युक्त होती जा रही है.

उल्लेखनीय है कि भाजपा ने 2014 के चुनाव-प्रचार के दिनों से पहले ही प्रतीकों की जंग शुरू करदी थी. अब 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर यह और भी तेज हो गई है. सुभाष चंद्र बोस के नाम पर दिल्ली से लेकर अंडमान तक कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, ये आयोजन इस ओर ही इशारा कर रहे हैं. इन कार्यक्रमों के पीछे बीजेपी और मोदी सरकार के राजनीतिक निहतार्थ ही हैं. भाजपा सरकार ने 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर ही आजाद हिंद फौज की स्थापना की इस साल 75वीं वर्षगांठ मनाई है. मोदी सरकार और बीजेपी का दावा है कि आजाद भारत में नेताजी के नाम पर अब से पहले कभी भी कोई आयोजन नहीं किया गया, जैसा इस दौरान किया जाएगा. यह पहला मौका है जब लाल किले पर 15 अगस्त की बजाय प्रधानमंत्री की ओर से किसी दूसरे दिन तिरंगा फहराया गया. पिछले कुछ सालों में मोदी सरकार ने नेताजी को भी अपने पाले में खींचने की पुरजोर कोशिश की है. खबरों के हिसाब से नेताजी परिवार के कुछ सदस्य पहले से ही बीजेपी में हैं. लेकिन यहाँ यह सवाल भी उठता है कि मोदी जी ऐसे आयोजनों के जरिए आर एस एस और अन्य हिन्दूवादी शक्तियों द्वारा नेताजी के समय में किए गए विरोध की आग को बुझा सकेंगे.

इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 31 अक्टूबर को गुजरात में सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण किया गया. यह उनकी सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में शामिल है जिसकी शुरुआत 2013 में ही उन्होंने बतौर गुजरात के सीएम रहते हुए की थी. इस कार्यक्रम को पीएम मोदी अति प्रमुखता से ले रहे हैं. दिलचस्प बात है कि नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की विरासत को कांग्रेस से छीनकर अपनी राजनीति के साथ सफलतापूर्वक जोड़ लिया है.

इस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी शुरू से ही सरदार पटेल को एक प्रतीक की तरह इस्तेमाल करके कांग्रेस की वंशवादी राजनीति पर कड़ाई से हमला करते रहे हैं. इससे वह दोहरा निशाना लगाते हैं. एक तरफ वह कांग्रेस पर एक ही परिवार को संरक्षण देने का आरोप लगाते रहते हैं तो इसकी एवज में वह सरदार पटेल जैसे नायकों की उपेक्षा का भी आरोप लगाकर अपने पाले में खींचने का उपक्रम करते रहे हैं. 31 अक्तूबर को ही सरदार पटेल की जयंती के साथ इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि भी होती है. ऐसे में मोदी जी ने सरदार पटेल की मूर्ति का अनावरण करने के बहाने इन्दिरा गान्धी के कद को अदना करने का प्रयास भी किया है. इसके साथ ही कांग्रेस इस मूर्ति को बनाने में चीन के बने प्रॉडक्ट का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर इसे मेक इन इंडिया और सरदार पटेल का अपमान बता रही है. कांग्रेस ही नहीं अपितु भाजपा के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कहकर विरोध किया कि सरदार पटेल और शिवाजी की मूर्तियां स्थापित करने जिस अकूत धनराशि का अपव्य्य किया गया है , इस धनराशि से यदि अस्पतालों की स्थापना की जाती तो कम से कम 100 AIIMS अस्पतालों की स्थापना हो सकती थी किंतु सरकार ने जनता के हितों की अनदेखी कर राजनीति को प्रमुखता देने का प्रयास किया है और कुछ नहीं.

आज का सच ये है कि सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा लगाकर भाजपा बेशक अपनी पीठ खुद ही थपथपाकर खुश हो रही हो किंतु विश्वपटल भाजपा सरकार खूब खिल्ली उडाई जा रही है. स्टैचू ऑफ यूनिटी’ को लेकर ब्रिटेन ने भारत सरकार की करनी और कथनी की जो पोल खोली है, वह समूचे भारत के लिए शर्म की बात है. ब्रिटेन ने दावा किया है कि जिस बीच भारत यह मूर्ति बना रहा था, उस बीच ब्रिटेन ने भारत को करीब एक अरब पाउंड की आर्थिक मदद दी थी. बजरिए पंजाब केसरी, ब्रिटेन द्वारा बताई जा रही यह रकम पटेल की मूर्ति पर आए खर्च से कहीं ज्यादा है. खबर में एक सांसद यह भी कहा है कि ब्रिटेन को अब भारत की मदद नहीं करनी चाहिए. ब्रिटेन ने कहा कि अगर भारत ये पैसा मूर्ति बनाने में खर्च नहीं करता तो अपने प्रॉजेक्ट्स का खर्च खुद ही उठा सकता था.

विदित हो कि सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी एक के बाद एक कांग्रेस के प्रतीक और नेहरू की विरासत को छीनने की कोशिश करते रहे हैं. इसमें सिर्फ नेताजी या सरदार पटेल ही नहीं हैं. उनकी लिस्ट में इनके अलावा कई और नाम भी शामिल हैं. पीएम मोदी की आक्रामक राजनीति का यह अहम हिस्सा रहा है. पीएम मोदी ने दलित वोट पर निशाना साधते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम पर भी एक के बाद एक कई आयोजन और कार्यक्रम चलाए. बिहार चुनाव से ठीक पहले पीएम मोदी ने रामधारी सिंह दिनकर को तरजीह देते हुए उनकी जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया था.

चलते-चलते बताते चलें कि मायावती के द्वारा बनाए गए स्मारकों की न जाने किस-किस प्रकार से खिलाफत की गई थी किंतु आज चाहे पटेल की प्रतिमा स्थापित करने की बात हो या फिर वीर शिवाजी की, भारत में इस पर कहीं कोई भी चर्चा नहीं हो रही. … क्यों? कमाल की बात यह भी है कि जो भाजपा सरकार आम जनता से जिस चीन के सामान की खरीद-फरोक्त के लिए मना करती है, उसके द्वारा उसी चीन से सरदार की प्रतिमा बनवाई गई है…. मायावती ने तो ऐसा भी नहीं किया था.

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