दलित साहित्य वर्तमान में द्विज साहित्य के समानांतर खड़ा हो गया है। जाहिर तौर पर इसके पीछे दलित साहित्यकारों की एक लंबी सूची है, जिनके सृजन से ऐसा संभव हो पाया है। इन साहित्यकारों में प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन का नाम भी अग्रणी साहित्यकारों में शुमार है। यह उनकी उपलब्धियों का ही परिणाम है कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत किया है।
प्रो. बेचैन के साथ अन्य चार प्रोफेसरों को भी पदोन्नति दी गई है। इनमें प्रो. मोहन, प्रो. पी.सी. टंडन, प्रो. कुमुद शर्मा और प्रो. सुधा सिंह शामिल हैं।
यदि बात प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन की करें तो हम पाते हैं कि हिंदी दलित साहित्य जगत में उनकी रचनाएं मील के पत्थर के समान हैं। उनकी कहानियों के केंद्र में शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद और भेदभाव के शिकार दलितों का संघर्ष रहा है। वे नब्बे के दशक से ही अपने लेखन से शोषणकारी शक्तियों की पहचान करते हैं, जिनकी वजह से दलित सामाजिक अधिकारों से वंचित और हाशिये पर चले गये है। जैसे कि उनकी ‘भरोसे की बहन’ (2010) और ‘मेरी प्रिय कहानियां’ (2019), नामक दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों संग्रह की कहानियों में दलित अधिकारों और हकों के संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
दरअसल, प्रो. बेचैन ने जब लेखन शुरू किया था तब पूरा समाज बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था। वह दौर था 1990 का। मंडल कमीशन के लागू होने के बाद आरक्षण को लेकर समाज में उथलपुथल मचा था। दलित साहित्य भी तब अंगड़ाइयां लेने लगा था। उसी दौर में प्रो. बेचैन ने पत्रकारिता के अलावा साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया। मीडिया में वंचितों की हिस्सेदारी को लेकर उनके द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं। अपनी रपट में उन्होंने मीडिया के दोहरे चरित्र व उसकी वजहों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
प्रो. बेचैन साहसी साहित्यकार रहे हैं। उनकी एक कहानी ‘शोध प्रबंध’ (हंस, जुलाई 2000) तब खासा चर्चित रही थी। यह उच्च शिक्षा में हो रहे दलित शोषण की बड़ी सघनता से पड़ताल करने वाले कहानी है। इस कहानी में जहां एक तरफ उच्च शिक्षा में शोधरत दलित छात्राओं के शोषण को सामने रखा गया है, वहीं दूसरी ओर सवर्ण प्रोफेसर के नैतिक पतन और निर्लजता की इबारत भी लिखी गई है।
बहरहाल, प्रो. बेचैन को सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नति वास्तव में दलित साहित्य के महत्व को रेखांकित करता है। यह दलित साहित्य के हर अध्येता के लिए गर्व की बात है।
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