हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों को लेकर एक ताजा रिपोर्ट सामने आई है। इस रिपोर्ट में 2018-2022 तक यानी बीते चार सालों में उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति का आंकड़ा सामने आया है। यह आंकड़ा बताता है कि इन चार सालों में 79 प्रतिशत जज ऊंची जातियों से नियुक्त किए गए। यह रिपोर्ट केंद्रीय कानून मंत्रालय ने संसदीय समिति को दी है।
यानी देश के 25 हाई कोर्ट में जो जज बैठे हैं, उनमें 100 में 79 जज ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते हैं। यानी साफ है कि न्यायपालिका में जहां हर जाति और मजहब के लोग न्याय की खातिर पहुंचते हैं, वहां न्याय करने का हक सिर्फ ऊंची जातियों के पास है। यानी साफ है कि जो भारत देश आजादी के 75 वर्ष पूरे कर चुका है, उस देश की सबसे बड़ी आबादी एससी-एसटी-ओबीसी और अल्पसंख्यक को न्यायपालिका में हिस्सेदारी नहीं मिल सकी है और न ही अब तक सामाजिक विविधता सुनिश्चित हो सकी है।
कानून मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश के उच्च न्यायालयों में पिछड़े वर्ग से मात्र 11 प्रतिशत जज ही हैं। 2018 से उच्च न्यायालयों में नियुक्त कुल 537 जजों में से अल्पसंख्यक समुदाय के सिर्फ 2.6 प्रतिशत जज हैं। जबकि दलित समाज के 2.8 प्रतिशत और आदिवासी समाज के महज 1.3 प्रतिशत जजों को भारत के उच्च न्यायालयों में प्रतिनिधित्व मिल पाया है।
जजों की नियुक्ति में दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय सहित हर वर्ग की महिलाओं तक को नजरअंदाज किये जाने को लेकर न्यायपालिका और सरकार गजब खेल खेलती है। सरकार की ओर से कानून मंत्रालय का कहना होता है कि हम बेबस हैं क्योंकि नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती है, जबकि न्यायपालिका का कहना होता है कि नामों पर अंतिम मुहर सरकार लगाती है। ऐसे में सवाल यह बचा रह जाता है कि अगर शीर्ष न्यायपालिका में सिर्फ ऊंची जाति के जज भरे हुए हैं और बाकियों को मौका नहीं मिल पाता है तो इसकी जवाबदेही किसकी है? कहीं सरकार और न्यायपालिका आपस में मिलकर ऐसा व्यूह तो नहीं रच रहे हैं कि दोनों एक दूसरे पर आरोप लगाकर देश के वंचित समुदाय को इस व्यवस्था का हिस्सा बनने से दूर रखें?
पिछले दिनों ‘दलित दस्तक’ से इसी मुद्दे पर बातचीत में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट डॉ. के.एस. चौहान ने इस मिली भगत की ओर इशारा भी किया था। डॉ. चौहान की माने तो दाल में काला है और कहीं न कहीं सरकार और न्यायपालिका के बीच एक अलिखित समझौता चल रहा है।
जहां तक कॉलेजियम के काम करने के तरीके की बात है तो जजों का कॉलेजियम दो स्तरों पर काम करता है। एक, सुप्रीम कोर्ट और दूसरा, हाई कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के चार जजों का कॉलेजियम, जिसकी अगुवाई मुख्य न्यायधीश करते हैं, वह नए जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव लाता है। दूसरी ओर हाई कोर्ट के कॉलेजियम में तीन सदस्य नियुक्ति के लिए नए जजों का नाम सुझाते हैं, इसकी अगुवाई हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस करते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 217 और 224 के मुताबिक हाई कोर्ट जजों की नियुक्ति में किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। जिस कारण हाई कोर्ट औऱ सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम नए जजों के नामों का चयन करते समय दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग के जजों को शामिल करने के लिए बाध्य नहीं होता।
इस पूरे मामले में कानून मंत्रालय समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को चिट्ठियां लिखकर जजों की नियुक्ति में सामाजिक विविधता एवं सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की बात तो कहता है लेकिन कॉलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को लेकर खुलकर मोर्चा खोलता अब तक नहीं दिखा है। कानून मंत्रालय यह कह कर अपनी बेबसी जता देता है कि ‘सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में उन्हीं जजों को नियुक्त करती है जिनके नाम की सिफारिश कॉलेजियम करता है।’
लेकिन दूसरी ओर यही सरकार यह भी कहती है कि ‘संवैधानिक अदालतों में नियुक्ति प्रक्रिया में सामाजिक विविधता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और हाई कोर्ट के कॉलिजियमों का प्राथमिक दायित्व है।’ तब आखिरकार वह इस दायित्व को लागू करवाने के लिए देश के शीर्ष अदालतों पर पुरजोर दबाव डालने की बजाय समर्पण की मुद्रा में क्यों दिखती है।
अदालतें और सरकार जो भी तर्क दें, सच्चाई यह है कि न्याय व्यवस्था में देश के वंचित समूहों को अब तक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। सरकार और अदालत अगर न्यायपालिका में आरक्षण नहीं देना चाहती तो भले न दें, लेकिन कम से कम ऐसा रास्ता तो खोले की वंचित समाज के लोग अपनी प्रतिभा के बूते तमाम परीक्षाओं को पास कर के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का जज बन सकें। आखिर भारत की न्याय व्यवस्था को अपने कब्जे में रखने वालों को ऐसा क्या डर है कि वह सिर्फ अपने सगे-संबंधियों को ही पीढ़ी दर पीढ़ी न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर मनचाहे तरीके से पहुंचा रहे हैं, और बाकियों के लिए रास्ते बंद कर के रखे हैं। अब यह सवाल मजबूती से पूछा जाना चाहिए।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।