तीसरे चरण का चुनाव सपा- बसपा के मेल का सही परीक्षण

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मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव के चुनाव प्रचार का दृश्य, 24 साल बाद दोनों नेता एक साथ थे (फाइल फोटो)

17 वीं लोकसभा के तीसरे चरण में गुजरात की सभी 26, केरल की सभी 20, गोवा कि दो, दादर और नगर हवेली की एक दमन दीव कि एक सीट, असम की चार, बिहार की 5, छत्तीसगढ़ की 7, जम्मू-कश्मीर की एक, कर्णाटक की 14, महाराष्ट्र की 14, ओडिशा की 6, बंगाल की 5 और उत्तर प्रदेश की 10 सीटों सहित कुल 116 संसदीय सीटों पर वोट पर चुका है. इनमें बहुजन नजरिये से यूपी की मुरादाबाद, रामपुर, संभल, फिरोजाबाद, मैनपुरी, एटा, बदायूं, आंवला, बरेली और पीलीभीत की दस सीटों का बहुत महत्त्व हैं. तीसरे चरण के इन दस सीटों की सफलता पर न सिर्फ सपा प्रमुख अखिलेश यादव का, बल्कि दलित-पिछड़ों के मेल से जुडी बहुजन राजनीति का भविष्य भी टिका हुआ है. तीसरे चरण में यूपी की जिन संसदीय क्षेत्रों में चुनाव हुआ है, वह समाजवादी पार्टी के गढ़ माने जाते हैं. यही कारण है सपा-बसपा में जो समझौता हुआ, उसमें इस इलाके की दस में से नौ सीटें ही सपा के हिस्से में आयीं, महज एक सीट बसपा को मिली. इस क्षेत्र को सपा का गढ़ कहने का प्रमुख कारण यह है कि 2014 में सपा ने भाजपा की सुनामी में जो कुल 5 सीटें जीती, उनमें तीन सीटों पर मतदान इसी चरण में होना है. 2014 में मैनपुरी से सपा प्रत्याशी तेज प्रताप सिंह यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव और बदायूं से धर्मेन्द्र यादव सांसद चुने गए थे.

मुलायम सिंह यादव से सपा की कमान अपने हाथ में लेने के बाद अखिलेश यादव का यह पहला चुनाव है. 2017 में भाजपा के हाथों सत्ता गवाने के बाद अखिलेश ने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की इच्छा के विरुद्ध जाकर एक बहुत ही अप्रत्याशित और बड़ा कदम उठाते हुए बरसों की घोर दुश्मन रही बसपा से चुनावी गठजोड़ किया. यह उनका एक बहुत जोखिम भरा कदम था जो उन्होंने अपनी पार्टी का वजूद बचाने और भाजपा को शिकस्त देने के इरादे से उठाया. काबिले गौर है कि मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को शादी के कुछ ही दिन बाद राजनीति में उतारते हुए कन्नौज लोकसभा का उपचुनाव लड़वा दिया और वे सांसद बने. सांसद बनने के बाद टीपू (अखिलेश यादव का घर नाम) ने सडकों पर उतरकर संघर्ष करना शुरू किया. उनके ऐसा करने से पार्टी को बहुत लाभ मिला, जिसके फलस्वरूप सपा 2012 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई. सत्ता में आकर अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री के रूप में यूपी में मेट्रो परियोजनाएं संचालन करने, लखनऊ–आगरा एक्सप्रेस वे जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर आधारित परियोजनाओं के साथ युवाओं को लैपटॉप व गरीब महिलाओं को पेंशन देने की योजनायें भी शुरू करने के साथ विकासाधारित अन्य कई काम किये. किन्तु उनके ये काम भाजपा का सामना करने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुए. लिहाजा 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की सुनामी में उड़ने के साथ 2017 में योगी के हाथों यूपी की सत्ता भी गंवा बैठे.

2017 में विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के पहले ही शायद उन्हें यूपी में भाजपा के अप्रतिरोध्य रूप में उभरने का आभास हो गया था, इसलिए उन्होंने भाजपा को रोकने के लिए कुछ करने का संकेत कर दिया. इसमें भविष्य में बसपा के साथ तालमेल बनाने के संकेत भी शामिल था. बहरहाल यूपी की सत्ता भाजपा के हाथ में जाने के बाद उनकी मंशा का अनुमान लगाते हुए कुछ बहुजन बुद्धिजीवी उनपर बसपा के साथ गठबंधन करने व सामाजिक न्याय की राजनीति पर लौटने का निरंतर दबाव बनाने लगे. इसका उनपर असर पड़ा और उन्होंने एक अन्तराल के बाद बसपा से गठबंधन करने की घोषणा भी कर दिया. अब लोगों को इंतजार इस बात का था कि सपा-बसपा मेल की औपचारिक घोषणा कब होती है. और लोग जिसका इन्तजार कर रहे थे वह घड़ी 2019 के जनवरी 7-9 के मध्य मोदी द्वारा संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए सवर्ण आरक्षण का बिल पास करवाने के बाद निकट आ गयी.

8-14 जनवरी, 2019: ये सात दिन भारत के बहुसंख्य वंचित आबादी के लिहाज से जितने घटना बहुल रहे, उसकी मिसाल नयी सदी में दुर्लभ है. सबसे पहले जिस तरह मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के अपने प्रस्ताव को, संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए दो दिनों के अंदर ही संसद में पारित कर लिया, उससे आरक्षण पर संघर्ष बिलकुल सतह पर आ गया. हालाँकि जिस तरह मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के साथ विशेषाधिकारयुक्त तबका आत्म-दाह से लेकर राष्ट्र की संपदा-दाह इत्यादि जैसी गतिविधियों में संलिप्त होकर अपना रोष प्रकट किया था, उस तरह की कोई उग्र प्रतिक्रिया वाचित वर्गों की ओर से नहीं हुई. किन्तु जिस वर्ग का राज-सत्ता, धर्म-सता, ज्ञान-सत्ता के साथ-साथ अर्थ-सत्ता पर प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा है, उस वर्ग के लोगों की गरीबी का बिना कोई ठोस अध्ययन किये जिस तरह संविधान में संशोधन कर 48 घंटों में आरक्षण सुलभ कराया गया, उससे असंख्य जातियों में बंटा वंचित वर्ग रातो-रात एक दूसरे के निकट आकर संख्यानुपात में सर्वव्यापी आरक्षण की मांग बुलंद करने लगा. इन दो दिनों में वंचना के कॉमन अहसास से इनमें ऐसा भावांतरण हुआ कि परस्पर शत्रुता से लबरेज हजारों जातियां भ्रातृ-भाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगीं. और जिस दिन राष्ट्रपति कोविंद ने सवर्ण आरक्षण पर समर्थन की मोहर लगायी उसी 12 जनवरी को पिछले 25 सालों को कटुता भुलाकर सपा-बसपा एक दूसरे के निकट आयीं. उनके निकट आते ही देश की राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर-प्रदेश के हजारों जातियों में बंटे वंचितों में होली-दीवाली जैसा जश्न का माहौल पैदा हो गया. कहीं लोग आँखों में ख़ुशी के आंसू लिए एक दूसरे के गले मिले तो कहीं मिठाई बांटकर एक दूसरे का मुंह मीठा किये. इस घटना के दो ही दिन बाद 14 जनवरी को जब बिहार के तेजस्वी यादव मायावती जी का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने के बाद खुद वह तस्वीर अपने ट्विटर पर डाले, बहुजनों को प्रायः दो दशक पुराना आना सपना पूरा होता नजर आया.

12 जनवरी को सपा-बसपा के मेल के बाद के इतिहास का एक-एक पल बहुजन राजनीति में रूचि रखने वाले हर किसी के जेहन में दर्ज हो चुका है, जिसका जिक्र करना समय का दुरुपयोग कलायेगा. बहरहाल 12 जनवरी के बाद दुबारा अविस्मरणीय क्षण 19 अप्रैल, 2019 को आया जब मायावती और मुलायम मैनपुरी में एकसाथ मंच पर आये.निश्चय ही मैनपुरी में मायावती जी और मुलायम सिंह यादव का एक साथ मंच पर आना नयी सदी में न सिर्फ बहुजन, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय राजनीति के बेहद यादगार दिनों में एक रहा. इसदिन 24 सालों की कटुता भुलाकर जिस तरह मायावती और मुलायम ने एक दूसरे के प्रति आदर व्यक्त किया, वह बहुजन एकता के आकांक्षी लोगों की पलके बार-बार भिंगो गया. मायावती ने उस ऐतिहासिक अवसर पर कहा, ’मुलायम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह फर्जी पिछड़े वर्ग के नहीं हैं. मुलायम सिंह असली पिछड़े वर्ग के हैं, वह मोदी की तरह फर्जी पिछड़े वर्ग के नहीं हैं. आप मुझसे जानना चाहेंगे कि 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद भी सपा-बसपा गठबंधन कर चुनाव क्यों लड़ रहे हैं? इस गठबंधन के तहत मैं मैनपुरी में खुद श्री मुलायम सिंह यादव के समर्थन में वोट मांगने आई हूं. जनहित तथा पार्टी के मूवमेंट के लिए कभी-कभी हमें कुछ कठिन फैसले लेने पड़ते हैं. देश के वर्तमान हालात को देखते हुए यह फैसला लिया गया है. मेरी अपील है कि पिछड़ों के वास्तविक नेता मुलायम सिंह यादव को चुनकर आप संसद भेजें. उनके उत्तराधिकारी अखिलेश यादव अपनी जिम्मेदारी पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं.’’ मायावती के बाद संबोधित करने की अपनी बारी आने पर मुलायम सिंह यादव सपा को जिताने तथा कार्यकर्ताओं से मायावती का हमेशा सम्मान करने की अपील करते हुए कहा ‘‘आज महिलाओं का शोषण हो रहा है. इसके लिए हमने लोकसभा में सवाल उठाया. संकल्प लिया गया कि महिलाओं का शोषण नहीं होने दिया जाएगा. आज हमारी आदरणीय मायावती जी आई हैं. हम उनका स्वागत करते हैं. मैं आपके इस अहसान को कभी नहीं भूलूंगा. मायावती जी का हमेशा बहुत सम्मान करना. समय-समय पर उन्होंने हमारा साथ दिया है.’’

नयी सदी में देश के बहुजन बुद्धिजीवियों-एक्टिविस्टों ने जिस नारों के मूर्त रूप रूप लेने की सर्वाधिक कामना की है, उनमें अन्यतम एक रहा है, ‘मिले मुलायम–कांशीराम हवा में उड़ गए जय सियाराम’. अर्थात अगर मायावती और मुलायम मिल जाएँ तो भाजपा का अंत तथा भारतीय राजनीति में विराट बदलाव आ जायेगा. वर्षों से बहुजनवादी जो सपना देख रहे थे, उस पर 12 जनवरी, 2019 के बाद 19 अप्रैल, 2019 को अंतिम मोहर लग गयी. अब वर्षों से सपा-बसपा के मेल से लोग जिस परिणाम की आशा पाले हुए थे, उसका परिक्षण तीसरे चरण का चुनाव परिणाम से सामने आने के बाद हो जायेगा. अगर इस चरण में गठबंधन प्रत्याशित परिणाम देने में सफल हो जाता है तो उसका असर बाकी चार चरणों के चुनाव पर पड़ना तय है.

– लेखक एच.एल. दुसाध बहुजन डायवर्सिटी मिशन के संस्थापक अध्यक्ष हैं।

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