बीते साल के आखिर में 16 दिसंबर, 2022 को जम्मू के रजौरी स्थित फलियाना गांव में एक सैन्य शिविर के बाहर दो लोगों की हत्या कर दी गई थी। सेना ने इन मौतों के लिए उग्रवादियों को जिम्मेदार ठहराया। मृतक के परिवार को पहले एक लाख की मदद देने की घोषणा हुई, लेकिन फिर एलजी मनोज सिन्हा ने इसमें 5 लाख और जोड़ कर राशि को छह लाख कर दिया। उपायुक्त ने मृतकों के परिवार को नौकरी भी देने की घोषणा की।
इस घटना के ठीक 15 दिन बाद… साल के पहले ही दिन, 1 जनवरी 2023 को रजौरी के ही एक अन्य गांव में जो पहले घटना स्थल से महज सात किलोमीटर की दूरी पर ही है, दो बच्चों सहित छह लोगों की हत्या कर दी गई। इन मौतों के लिए भी उग्रवादियों को जिम्मेदार ठहराया गया। मौत के तुरंत बाद एलजी मनोज सिन्हा ने गांव का दौरा किया। और सभी मृतकों के परिजनों को 10-10 लाख रुपये के साथ सरकारी नौकरी देने की घोषणा की। द टेलिग्राफ ने इन दोनों मामले को रिपोर्ट किया था।
तो क्या राहत राशि का यह फर्क इसलिए हो गया क्योंकि दो मृतक दलित थे जबकि बाकी के छह ब्राह्मण? जम्मू में दलित समाज के परिवार वालों का यही आरोप है। उनका साफ कहना है कि एक ही जैसी घटना में दो अलग-अलग राहत राशि क्यों? जम्मू कश्मीर के दलितों ने इस भेदभाव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा के प्रशासन को आड़े हाथों लेते हुए दलित संगठनों का कहना है कि वो दलित समुदाय के सदस्यों को भी उच्च जाति के हिन्दुओं के समान क्यों नहीं देख रहे हैं।
यहां साफ है कि दलित समाज के जो लोग जीते-जी अक्सर तमाम भेदभाव का शिकार होते हैं, मरने के बाद भी जाति से उनका पीछा नहीं छूटा। जिस जम्मू और कश्मीर में हर कोई चरमपंथियों के उग्रवाद के कारण परेशान है, और खासकर भाजपा जिसे हिन्दु बनाम मुस्लिम का मुद्दा बनाने में जुटी रहती है, वहीं केंद्र के ही शासन में दलितों के साथ सीधा भेदभाव साफ नजर आ रहा है। तो क्या यह मान लिया जाए कि जम्मू कश्मीर में दलितों को चरमपंथियों के साथ-साथ ब्राह्मणों और प्रशासन के भेदभाव का भी सामना करना पड़ेगा। उन्हें तीन तरफ से प्रताड़ित किया जाएगा?
दलितों के मामले में पहले एक लाख की घोषणा की जाती है, फिर इसमें पांच लाख और जोड़कर 6 लाख देने की घोषणा होती है, जबकि सवर्णों के मामले में सीधे 10 लाख की घोषणा होती है। यहीं नहीं एलजी न सिर्फ खुद यह घोषणा करते हैं बल्कि गांव का दौरा कर मृतकों के परिवार से मिलते भी हैं। सवाल उठता है कि आखिर यह भेदभाव क्यों?
यहां तक की अब दलितों के परिजन इस बात से भी डरे हुए हैं कि उपायुक्त द्वारा नौकरी का ऐलान किये जाने के बावजूद उन्हें नौकरी मिलेगी भी या नहीं। क्योंकि अब तक इस बारे में कोई सुनवाई नहीं हुई है। इस मामले को लेकर बहुजन समाज पार्टी ने भी मोर्चा खोल दिया है। बसपा के राज्यसभा सांसद रामजी गौतम ने इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हुए ट्विट किया है और कहा है कि-
बसपा सांसद ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस पर संज्ञान लेने की अपील की है।
बसपा नेता का सवाल बिल्कुल जायज है। जब सरकार ही दलितों के साथ भेदभाव करने लगे तो लोग आखिर किससे गुहार लगाएंगे? यहां दलित समाज के लोगों को यह भी समझना जरूरी है कि जो सरकार उनके समाज के मृतकों के साथ न्याय करने को तैयार नहीं है, आखिर उससे अपने विकास और उन्नति की उम्मीद लगाना क्या बेवकूफी नहीं है? क्या समाज को उस राजनीतिक व्यवस्था का साथ नहीं देना चाहिए, जो उनकी असली हितैषी है? जरूरत आंख खोलकर देखने और दिमाग खोलकर सोचने की है।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।