उत्तर भारत के हिंदी क्षेत्र को लेकर यह धारणा बनी हुई है कि जहां हिंदी पट्टी ने स्वाधीनता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई, वहीं सांस्कृतिक पुनर्जागरण में इसका अपेक्षित योगदान लगभग नगण्य रहा| कबीर औररविदास ने भक्ति-आंदोलन के दौरान श्रमशील समाज के जीवानानुभवों, संघर्षों, सहज ज्ञान व तर्क से जिस सामाजिक चेतना की आधारशिला रखी थी, उसे तुलसी की भक्ति मार्गी वर्णा श्रमी धारा नेअधिग्रहित कर काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया था| उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में ज्योतिबाफुले,सावित्री फुले,पेरियारई.वी.रामास्वामीऔर बाबा साहब डॉ.अंबेडकर के वैचारिक व सामाजिक हस्तक्षेप द्वारा गैर हिंदी क्षेत्रों के हाशिए के समाज की इस वैचारिकी को जो पुनर्जीवन मिला, उससे हिंदी भाषी क्षेत्र भी अछूते नही रहे|
उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) में स्वामी अछूतानंद(1879-1933) और रामचरन (1888-1939) के ‘आदि हिंदू’ आंदोलन के माध्यम से हाशिए के मेहनत कश और निम्न कही जानी वाली जातियों में नई चेतना का संचार किया| सामाजिक न्याय और समता के आदर्शों से प्रेरित इनकी वैचारिकी ब्राह्मणवादी शोषण की व्यव्स्था के विरुद्ध सशक्त उद्घोष थी| इसी दौर में चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, संतराम बी.ए., रामस्वरूप वर्मा आदि के साथ पेरियार ललई सिंह एक प्रमुख नाम थे| इन सभी के मानवीय और समतामूलक समाज निर्माण को हिंदी समाज की वर्चस्वशाली सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन धारा से अनुपस्थित और अचर्चित रखा गया| ये सभी मूलत: शूद्र समुदाय से सम्बंधित और पहली शिक्षित पीढ़ी से थे|ललई सिंह (1911-1993) मुख्यत: पेरियार ई. वी. रामास्वामी की वैचारिकी से प्रेरितथे| वे स्वाभिमानी और विद्रोही स्वभाव के थे| जो चेतना पेरियार के ‘आत्मसम्मान’ (Self Respect) आंदोलन से निकली थी| वे हाई-कमांडर थे, ग्वालियर नेशनलआर्मी में| आर्मी में सेवा करते हुए भी, उन्होंने ‘सिपाही की तबाही’ शीर्षक से क्रांतिकारी एकांकी लिखा, सिपाहियों को संगठित कर आंदोलन किया और जेल गए| जेल में भी उन्होंने ‘कैदी महासभा’ का गठन किया| उन्होंने सन् 1946 में देश की आज़ादी के साथ देशी रियासतों की गुलामी से भी आज़ादी की मांग तेज की|उनका पूर्ण स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी नारा था – ‘ब्रिटिश इम्पीरियलज्म डाउन-डाउन! सिंधिया फ्लैग डाउन-डाउन!! ’पेरियार ललई सिंह को अपने जमीनी अनुभवों के चलते इस बात का अहसास था कि देश की राजनीतिक आज़ादी तब तक पूर्ण नहीं होगी जब तक उसे सामाजिक और आर्थिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी| पेरियार के नेतृत्व में दक्षिण भारत का ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ इस दिशा में उनकी मूल प्रेरणा बना| पेरियार के जन्मदिन (17 सितम्बर) के अवसर पर 1960 में उन्होंने ‘सस्ता प्रेस’ की शुरुआत की जहां से उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से दलित व पिछड़े समाजों के मेहनतकश वर्गों में ईश्वर, धर्म और हिंदू मिथकों, देवी-देवताओं की जकड़ बंदी के विरुद्ध नवजागरण अभियान छेड़ा| वे पेरियार को अपना गुरु मानते थे|
इस जन-जागरण अभियान के अंतर्गत पेरियार ललई सिंह ने ‘वीर संत माया बलिदान’, ‘शम्बूकवध’, ‘एकलव्य’, ‘नाग यज्ञ’ और ‘अंगुलिमाल’ सरीखे नाटक लिखकर धर्म की वर्चस्वशाली परंपरा का प्रतिविमर्श रच कर हाशिये के बहुजन समाज को चेतना सम्पन्न बनाने की पहल कदमी की| इन नाटकों के लिखे जाने के मंतव्य का खुलासा करते हुए उन्होंने ‘शम्बूक वध’ नाटक की भूमिका में लिखा, “नाटक के छापे जाने की पहली मंशा है अधिकार वंचित शूद्र व महाशूद्र अपने अधिकार समझें| मांगें! छीनें! इसी स्थिति के कारण मैं बार-बार कहता हूं कि–‘अधिकार माँगे नहीं, छीने जाते हैं|’ और ‘सामाजिक अपमान गरीबी से अधिक खटकता है|’ दूसरी मंशा, इस देश के सवर्ण हिंदू शूद्रों व महा शूद्रों को उनका मानवीय अधिकार सौंप दें| तीसरी मंशा, सरकार के लिए कड़ी चेतावनी है कि उसने यदि उन्हें प्रत्येक प्रकार के मानवीय अधिकार न दिलाए तो इस देश में गृह युद्ध का संकट सदैव बना रहेगा|” पेरियार ललई सिंह की इस चेतावनी में बाबा साहब डॉ.अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में 25 नवम्बर, 1949 को दिए गए उस भाषण की अनुगूंज थी जिसमें उन्होंने कहा था, “इस संविधान द्वारा आज हम एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत को स्वीकार कर राजनीतिक जनतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन यदि यह राजनीतिक जनतंत्र सामाजिक जनतंत्र व आर्थिक जनतंत्र का रूप नले सका तो राजनीतिक जनतंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा|”
इसी क्रम में पेरियार ललई सिंह ने‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’, ‘आदिवासियोंकी पहचान’, ‘सच्ची रामायण’, ’सच्ची रामायण की चाभी’ सरीखी पुस्तकों की भी रचना की थी| इन रचनाओं द्वारा वे उस जन-बुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे, जो तर्क, ज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के माध्यम से अंधविश्वास, हिंदू मिथ्या धार्मिक चेतना और ब्राह्मणवादी कर्मकांड के विरुद्ध तर्कशील आधुनिक सोच को आंदोलन का रूप दे रहे थे| कहना न होगा कि पेरियार ललई सिंह भाषा और अभिव्यक्ति के स्तर पर किताबी बौद्धिक का मुहावरा न अपना कर उस जमीनी श्रम शील समाज की भाषा में संवाद कर रहे थे,जो सर्वाधिक प्रभावी व कारगर था| वे सैद्धांतिक रूप से भी हिंदी के जनभाषी स्वरूप के ही पक्षधर थे, उसके संस्कृत निष्ठ तत्समीकृत रूप के नहीं| ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के नारे को नकारते हुए उन्होंने शासक वर्ग के उस सवर्ण पाखंड का खुलासा किया था,जिसमें वे अपनी संतानों को अंग्रेजी शिक्षा देते थे और मेहनत कश वर्गों को इससे वंचित रखना चाहते थे|देश के अन्य भू-भाग के निम्न वर्गों (सबाल्टर्न) के जन-बुद्धिजीवियों की तरह वे सामाजिक न्याय व समता के आदर्शों से प्रेरित होकर वैदिक ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता वादी विभेदकारी वर्ण और जाति-संस्कृति के विरुद्ध जमीनी चेतना का प्रचार प्रसार कर रहे थे| वे वर्चस्ववादी सत्ता-संरचना को चुनौती देते हुए,आमूल चूल उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध बौद्धिक और आंदोलनकारी पहल कर रहे थे लेकिन समाज की मुख्यधारा में उनकी स्वीकृति इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि उनके सुधारवादी मुहावरे में प्रभुत्ववादी संस्कृति के प्रति समन्वय का भाव न होकर स्पष्ट रूप से तार्किक, नकार व अधिकार की हुंकार थी|स्वाधीनता पूर्व और बाद के वर्षों में प्रभुत्वकारी राजनीतिक व सामाजिक दृष्टिकोण के समन्वयकारी रुप और जमीनी सामाजिक यथार्थ में रची बसी तार्किक सोच के बीच इस विलगावके चलते देशज आधुनिकता का विकास अवरुद्ध हुआ|
स्वीकार किया जाना चाहिए कि राजनीतिक स्वाधीनता और सामाजिक स्वाधीनता के सह-मेल के न चलते भारतीय राष्ट्र-राज्य को समतावादी आधुनिक जनतंत्र बनाने की परियोजना आधी-अधूरी रही| वर्णा श्रमी जाति-व्यव्स्था की सोपानी कृत व्यवस्था में उच्च पदस्थ लोगों द्वारा अपने विशेषाधिकारों से मुक्ति की उम्मीद वांछ्नीय तो थी, लेकिन व्यावहारिक नहीं| ऐसे में पेरियार के आमूल चूल परिवर्तनकारी सामाजिक आंदोलन से ललई सिंह सरीखे सामाजिक कार्यकर्ताओं का प्रेरित होना स्वाभाविक था|उत्तर भारत की धर्म भीरु जनता को धर्म, अंधविश्वास और परंपरा की जकड़न से मुक्ति के लिए जहां उन्होंने ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ व ‘आदि निवासियों की पहचान’ सरीखी पुस्तकें लिखकर आर्यों की आमद, प्रभुत्व व विस्तार का लोक ग्राही वृतांत लिखा तो वहीं यहां के मूल निवासियों की अस्मिता का अहसास कराया| यह सब उच्च सवर्ण चिंतन का प्रति-विमर्श होने के चलते ब्राह्मणवादी सवर्ण बौद्धिकों को तो अस्वीकार्य था ही, मुख्यधारा के परिवर्त नकामी बौद्धिक भी धर्म और मिथक की इस जनोन्मुखी व्याख्या को लेकर सहज नहीं थे| यह अकारण नहीं है कि पेरियार ललई सिंह की वैचारिक व साहित्यिक पुस्तिकाओं की संस्तुति चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ व संतराम बी.ए. व छेदीलाल साथी सरीखे सहधर्मी सामाजिक आंदोलन कारियों ने तो की, लेकिन उच्च सवर्ण पृष्ठ भूमि के बौद्धिकों ने नहीं| यह लक्षित किया जाना चाहिए कि प्रगतिशील मार्क्सवादी सांस्कृतिक आंदोलन में भी इन सबाल्टर्न बौद्धिकों का कोई उल्लेख नहीं है| कारण यह कि सोवियत क्रांति के प्रभाव व प्रेरणा के चलते मार्क्सवादी आंदोलन समता,समानता के समाजवादी मूल्यों का तो पक्षधर होकर वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रतिश्रुत था, लेकिन वर्ण गत और जाति गत विभाजन के विरुद्ध प्रभावी संघर्ष उसके एजेंडे में शामिल नहीं था| यही कारण था कि चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा आदि सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वामपंथी आंदोलन से निकटता नहीं स्थापित हो पाई|
हिंदी में साहित्यिक और वैचारिक लेखन के बावजूद ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ के पवित्र आंगन में तो इन निम्नवर्गीय (सबाल्टर्न) जन-बौद्धिकों का प्रवेश वर्ज्य था ही, स्वाधीन भारत में साहित्य अकादमी सरीखी स्वायत्त संस्थाओं द्वारा प्रकाशित ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिट्रेचर’ में भी इन्हें दर्ज़ नहीं किया गया| इसी कारण इस ग्रंथ के संकलन कर्ता धर्मवीर यादव गगन को संपूर्ण भारत में घूम-घूम कर साधारण लोगों के बीच से पेरियार ललई सिंह की किताबें, साक्षात्कार, पत्र, भाषण, संस्मरण आदि एकत्रित करना पड़े| देश के विश्वविद्यालयों के शोध-प्रबंधों के दायरे से तो इन्हें पूर्णत: वंचित ही रहना था| पेरियार ललई सिंह के ही शब्दों में, “आज जितनी भी पुस्तकें स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, सब आर्यों द्वारा आर्यों के वर्चस्व की मानसिकता से लिखी गई हैं…हमारे मूलनिवासी आदि निवासियों का इतिहास किसी भी संस्था में नहीं दिया जाता है| न ही मूल निवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से लिखी गई कोई पुस्तक कहीं भी पढ़ाई जाती है…हमारी सारी महान विभूतियों को निगल लिया ब्राह्मण-पुरोहितों, वर्चस्ववादी संस्कृति ने…इनकी पुस्तकों को खोज-खोज कर जलाया, नष्ट किया| इसे आप आदि निवासियों और बौद्ध साहित्य, दर्शन को नष्ट किए जाने वाले आर्यों के अभियान से समझ सकते हैं|” इस समूची प्रक्रिया और षडयंत्र का पर्दाफाश पेरियार ललई सिंह ने अपनी पुस्तिकाओं ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’और ‘आदि निवासियों की पहचान’में किया है| इन पुस्तकों के साथ-साथ उनके अन्य लेखन का प्रकाशन साहित्य व समाज-विज्ञान की बड़ी रिक्ति की बहुप्रतीक्षित भरपाई है|उनके चिंतन पर हिंदी साहित्य के साथ हिंदू मिथक, धर्म, दर्शन, समाजविज्ञान, निम्नवर्गीय अध्ययन (सबाल्टर्न स्टडीज) आदि में पूर्ण अध्ययन हो सकता है|
पेरियार ललई सिंह भारतीय समाज में वर्ण और जातिआधारित शोषण का निदान उत्पीड़क जातियों के विरुद्ध उत्पीड़ित जातियों की गोलबंदी तक सीमित न करके वर्ण-जाति-उन्मूलन के लक्ष्यमें तलाशते थे| वे वर्ण जाति भेद को उच्च जातियों तक सीमित न करके निचले स्तर की जातियों में भी इसके दुष्प्रभावों को निशान देही करते थे| उनका कहना था, “ब्राह्मणवादी ऊंच-नीच की भावना अछूतों में भी है–चमार, भंगी को नीच और अपने को ऊंच समझते हैं| अहीर चमार से अपने आपको ऊंचा समझते हैं|अत: अछूतों को चाहिए कि वे किसी को भी नीच-ऊंच नसमझें| ” उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि स्कूलों, कालेजों की पाठ्य-पुस्तकों में जाति-पांति के विरुद्ध पाठ निर्धारित किए जाएं और भारत सरकार व राज्य सरकारें जाति-पांति के विरुद्ध छोटी-छोटी पुस्तिकाएं विभिन्न भाषाओं में लिखवा और छपवा कर बहुत बड़ी संख्या में मुफ्त बांटे| उनका सुझाव था कि ‘जाति तोड़कर विवाह करने वाले जोड़ों और उनकी संतान को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाए| ऐसे विवाहों में एक वर्ग (अर्थात पुरुष या स्त्री) अछूत जरूर हो| ’ उनका यह भी सुझाव था कि ‘जाति नामधारी शैक्षणिक संस्थाओं को न तो सरकारी अनुदान दिया जाए और न इनको शिक्षा विभाग स्वीकृति ही दे| ’ और यह भी कि ‘अदालती कागजों और स्कूलों तथा कालेजों के रजिस्टरों से जाति का खाना निकाल दिया जाए और किसी से उसकी जाति पूछना, उसकी आमदनी पूछने की तरह खराब समझी जाए|
यह जानना दिलचस्प और जरूरी है कि जिन पेरियार ई.वी.रामास्वामी के भौतिकतावादी तर्कशील चिंतन ने दक्षिण भारत की राजनीति व वैचारिकी को आमूल चूल परिवर्तनकारी दिशा प्रदान की, जिस पर आज भी दक्षिण भारत की राजनीति और समाज टिका हुआ है, चल रहा है, उसे ही जब ललई सिंह ने उत्तर भारत में प्रचारित-प्रसारित करने का संकल्प लिया तब उत्तर प्रदेश सरकार ने पूरी तरह अवरोध पैदा किए|ललई सिंह ने पेरियार द्वारा लिखित बहुचर्चित पुस्तक ‘दिरामायना: ए ट्रूरीडिंग’ का रामअधार कृत हिंदी अनुवाद‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन साल 1968 में झींझक,कानपुर के अपने ‘अशोक पुस्तकालय’ प्रकाशन और ‘सस्ता प्रेस’ मुद्रण से किया| इसके पहले ही संस्करण की एक हजार प्रतियां छापी गईं| रामायण के वर्णाश्रमी वर्चस्व के मूल्यों को चुनौती देने वाली इस पुस्तक की लोकप्रियता से सशंकित होकर उत्तर प्रदेश सरकार ने एक वर्ष के अंदर ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया| इस जब्ती को हाईकोर्ट में पेरियार ललई सिंह द्वारा चुनौती दिए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया| उत्तर प्रदेश सरकार पर जुर्माना ठोक दिया| इसके खर्च आदि की भरपाई का आदेश भी दिया| इसके विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की,वहां भी प्रदेश सरकार की हार हुई और अंतत: 16 सितम्बर,1976 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुस्तक पर प्रतिबंध हटा और कोर्ट ने जब्त प्रतियां पेरियारललई सिंह को वापस करने का आदेश दिया|इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार की वक्रदृष्टि पेरियार ललई सिंह के साहित्य और चिंतन पर बरकरार रही| इसी कारण उनकी अन्य लगभग सभी किताबों पर मुकद में सरकार करती रही| एक किताब तो प्रतिबंधित ही करवा दी| इन बाधाओं के होते हुए भी सन् 1990 तक लगभग हर वर्ष इस पुस्तक के नए संस्करण प्रकाशित होते रहे| बहुजन समाज के बीच इसे उपलब्ध करवाने के लिए मेलों और विभिन्न सामाजिक अवसरों पर पेरियार ललई सिंह स्वयं इस पुस्तक को साईकिल पर रखकर बेचा करते थे| यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ‘सच्ची रामायण’ की बुक-स्टाल पर खुली बिक्री तभी सुनिश्चित हो सकी जब कांशीराम की पहल कदमी पर सन् 1995 में बहुजन समाज पार्टी की पहली बार सरकार बनी| पेरियार ललई सिंह के अथक प्रयासों और संघर्षों के परिणाम स्वरूप हिंदी में ‘सच्ची रामायण’ की पहली बार उपलब्द्धता तो सुनिश्चित हुई, लेकिन ब.स.पा. सरकार के प्रयासों के बावजूद पेरियार ई.वी. रामास्वामी की प्रतिमा लखनऊ के अंबेडकर स्मारक में या उत्तर प्रदेश में कहीं भी हिंदुत्व वादियों के प्रबल विरोध के चलते आज तक न स्थापित हो सकी|
‘सच्ची रामायण’ के अतिरिक्त पेरियार ललई सिंह की जिन अन्य पुस्तकों को सरकारी कोप भाजन का समय-समय पर शिकार होना पड़ा, उनमें ‘सिपाही की तबाही’ तो ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित हुई, ‘ईश्वर, आत्मा एवं वेदों आदि में विश्वास अधर्म है’, ‘हिंदू संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद’, ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ आदि शामिल हैं| ये सभी पुस्तकें बहुसंख्यक समुदाय के मुखर वर्चस्वशाली लोगों की भावनाओं के आहत होने के आधार पर प्रतिबंधित की गई थीं| दरअसल आहत भावनाओं का यह तर्क भारतीय राष्ट्र-राज्य के वर्ण वादी ब्राह्मणवाद के प्रति सहृदयताका परिणाम अधिक था,आहत भावनाओं का क्रम, जो आज तक सतत जारी है| इन प्रतिबंधों से यह तथ्य भी सुस्पष्ट है कि भारतीय संविधान की वैज्ञानिक व तर्कवादी अवधारणा के बावजूद तर्क, ज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिके प्रचार-प्रसार में पेरियार ललई सिंह सरीखे जमीनी बौद्धिकों को कितना संघर्ष करना पड़ा था| सच तो यह है कि ललई सिंह हिंदी क्षेत्र में आजीवन पेरियारके विचारों के अकेले सेनानी रहे और सहज सरल भाषा में लिखित उनकी पुस्तकें तर्कशील वैज्ञानिक विचारों की वाहक रहीं लेकिन परिवर्तन कामी सशक्त सामाजिक आंदोलन के अभाव में ये प्रयास दूरगामी लक्ष्यों को न प्राप्त कर सके| उनके जीवन और विचारों में कोई द्वैत नहीं था| वे विचार और आचरण से पूरी तरह नास्तिक और स्पष्ट वक्ता थे| वे 14 अक्टूबर, 1956 को बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण, नागपुर में जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते थे किंतु क्षय रोग से उन्हें खून की उल्टी हो रही थी| इस कारण वे नहीं जा सके| 21 जुलाई, 1967 को उन्हीं महाथेरा ऊ चंद्रमणि स्थविर से, जिनसे बाबा साहब ने बौद्ध धम्म ग्रहण किया था, कुशीनगर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया|वे बुद्ध के भौतिकता वादी सोच और सिद्धांत को मानते थे| इस दीक्षा ग्रहण के बाद अपने नाम से कुँवर, चौधरी, यादव हटा दियाऔर सिर्फ ललई सिंह लिखने लगे| उसके बाद उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि एक बौद्धिष्ट की वर्ण और जाति नहीं होती वो मनुष्य होता है| यदि वो वर्ण और जाति को मानता है तो वह वर्ण वर्णाश्रमी हिंदू है| 12 अक्टूबर 1968 ईस्वी को पेरियार को चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, ललई सिंह और छेदीलाल साथी ने‘ अल्प संख्यक एवं पिछडेर वर्ग के सम्मेलन’ लखनऊ में भाषण के लिए बुलाया था| इसके बाद ललई सिंह ने 14 अक्टूबर, 1968 ईस्वी को नानाराव पार्क, कानपुर में बौद्ध धम्म दीक्षा ग्रहण का आयोजन किया था जिसमें हिंदू धर्म के वर्णवाद, श्रेष्ठता और नीचता की मानसिकता पर करारा प्रहार करते हुए, उसकी धज्जियाँ उड़ा रहे थे, सामने खड़ी दस हजार जनता से बौद्ध धर्म ग्रहण करने की सार्वजनिक गुहार लगाई और सबको बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया| इस भिक्षु निर्गुणानंद ने कहा ललई सिंह तो उत्तर भारत के पेरियार हैं| तब से इनके शुभ चिंतकों ने पेरियार ललई सिंह संबोधन प्रारंभ कर दिया| 1968 ईस्वी में सच्ची रामायण के प्रकाशन और पेरियार की सोच से उत्तर भारत में धूम मचाने के कारण भी इनके शुभ चिंतकों इन्हें ‘उत्तर भारत का पेरियार’ की उपमा दी और इन्हें, पेरियार ललई सिंह के रूप में पुकारने लगे, तब से ये अपना नाम ‘पेरियार ललई सिंह’ लिखने लगे|
यह स्वीकार करना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र में हिंदू मानस के मौजूदा वर्चस्व के पीछे उच्चवर्णी सेकुलर हिंदू बौद्धिकों का वह अवचेतन रहा है जो लम्बे समय तक धर्म व वर्ण-जाति के प्रश्नों को अनुपस्थित मानकर सर्वधर्म समभाव की कथित गंगा-जमुनी संस्कृति के भ्रमजाल का भेदन न कर सका| कोई आश्चर्य नहीं कि उस दौर में वर्ण-जातिभेद के मुद्दे को लेकर उच्च सवर्णों का यह अंधत्व वर्तमान समय में अल्पसंख्यक व दलित समुदायों के प्रति दुराव व भेदभाव का आग्रही नहीं तो उसके विरुद्ध उदासीन अवश्य है| अपने समय मेंपेरियारऔर अंबेडकर के चिंतन का अनुगमन कर के पेरियार ललई सिंह ने अपनी आर्मी की और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन, इकहत्तर बीघा जमीन और बाग आदि बेच कर अपने सीमित सामर्थ्य में बहुजन वैचारिकी द्वारा इसका प्रतिविमर्श तो रचा, लेकिन वे इसे जन आंदोलन का स्वरूप न दे पाए| नब्बे के दशक में जब सामाजिक न्याय की शक्तियों का राजनीतिक उभार हुआ तब उनका दायित्व था कि सामाजिक न्याय की राजनीति का रिश्ता चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा सरीखे सबाल्टर्न बौद्धिकों की वैचारिकी के साथ जुड़ता, लेकिन आमूल चूल सामाजिक परिवर्तन की इच्छा शक्ति के अभाव और तात्कालिक राजनीतिक लाभ तक सीमित रहने के चलते यह सम्भव न हो सका| हिंदुत्ववादी उभार के इस समय में बहुजन समाज को इस वैचारिक रिक्ति की मंहगी कीमत चुकानी पड़ रही है|
कहना न होगा कि धार्मिक कट्टरता,अंधविश्वास, नफरत के इस समय में तर्क, वैज्ञानिक सोच व मानवीय सद्भाव की बहुजन वैचारिकी के चिंतकों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अवदान को संजोने और पुनर्संदर्भित करने की जरूरत है|पेरियार ललई सिंह की ग्रंथावली का प्रकाशन इस दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है| दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा अध्येता डॉ. धर्मवीर यादव गगन ने जिस लगन और समर्पण भाव से इसे सम्भव किया है,वह उनकी खोजी और अध्ययनशील वृत्ति के बिना संभव नहीं था| उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बिखरी सामग्री को जुटाकर संदर्भ प्रदान करना व ग्रंथावली का रूप देना एक दुष्कर व श्रम साध्य कार्य था|इस दूरगामी महत्व के ऐतिहासिक कार्य के लिए उन्हें बधाई और साधुवाद! उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुजन समाज के अन्य जन-बौद्धिकों के अवदान को संरक्षित व सुरक्षित करने के प्रयासों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी|
“वीरेन्द्र यादव”
पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली
राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली
मो.9311397733
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