आज मुझे राजनीति का पुराना चलन याद आ रहा है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्य सदन में एक दूसरे का वैचारिक आधार पार जमकर विरोध करते थे किंतु उनमें पारस्परिक वैमनस्य दूर-दूर तक नहीं पनप पाता था. आपसी सदभाव देखने को मिलता था. चुनावी मैदान में भी एक दूसरे के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता था. पक्ष-विपक्ष सार्वजनिक जीवन में अपरिपक्वता का परिचय कतई नहीं देते थे. एक दूसरे के सामाजिक व पारस्परिक उत्सवों में विना किसी दुराव के सामिल हुआ करते थे. बेशक उनके राजनीतिक हित आपस में टकराते थे किंतु सामाजिक समंव्यता बनी रहती थी.
किंतु आज का राजनीतिक अपरिपक्वता के इस दौर में अपशब्दों का प्रयोग राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है. आज राजनीति की परिभाषा ही बदल गई है. अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, झूठ बोलना, धोखा देना, पीठ में चाकू मारना, एक दूसरे की टांग खीचना जैसे राजनीति का मुख्य आचरण हो गया है. भाजपा का सत्ता में आने के बाद से विरोधियों से गालियों के साथ बात करने का चलन बढ़ा है. भाजपा के छोटे से बड़े नेता तक भाषाई और सामाजिक स्तर पर बेलगाम देखे जा रहे हैं. इस नैतिकता और जीवनमूल्य विहीन राजनीति से देश को जो दिशा मिल रही है, वह हमें सभ्य और कर्तव्य पारायण नहीं बना पा रही. भाजपा के नेताओं के इस रवैये के चलते कांग्रेस के स्वर भी कड़वाहट की चाशनी में पगने को मजबूर हो गए. इस प्रकार हमारे राजनेताओं ने सभी सामाजिक मापदंडों को जैसे कूड़े में फेंक दिया है. राजनीति की भाषा निरंतर हिंसक होती जा रही है. राजनेताओं की लगातार जहरीली होती भाषा देश के लिए चिंता का विषय है.
असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है. (https://www.indiatoday.in/fyi/story/bjp-has-most-number-of-lawmakers-booked-for-hate-speeches-adr-report-1220013-2018-04-25) कि 58 सांसदों और विधायकों ने बतौर उम्मीदवार की जाने वाली अपनी घोषणा में यह बताया है कि उनके खिलाफ नफरत फैलाने वाले भाषण देने के लिए मुकदमे दर्ज हैं. बीजेपी नेताओं की संख्या इनमें सबसे अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्री उमा भारती ने भी अपने खिलाफ ऐसा मामला दर्ज होने का जिक्र किया है. इसके अलावा आठ राज्य मंत्रियों के खिलाफ हेट स्पीच को लेकर केस दर्ज है. पिछले कुछ वर्षों में अपने विरोधियों के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देना, उनका मजाक उड़ाना, जाति और समुदाय को लेकर अनाप-शनाप बातें करना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनता गया है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्रधान सेवक न केवल चुनावी भाषणों में अपितु प्रधान सेवक बनने के बाद भी अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने में अन्य नेताओं के अगुआ रहे हैं.
यह चलन न्यूज चैनलों के प्रचार-प्रसार के साथ भी बढ़ा है लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद इसमें जबर्दस्त तेजी आई है. भाजपा और कांग्रेस के अपने – अपने आई टी सेल हैं जो फेक न्यूज के जरिए बिना सिर-पैर की खबरें फैंककर हिन्दू और मुसलमान का खेल खेल रहे हैं. धार्मिक शतरंज पर अपने-अपने मोहरे बैठाने में तत्पर हैं. एक अध्ययन के मुताबिक मई 2014 से लेकर अब तक 44 अति विशिष्ठ नेताओं ने 124 बार हेट स्पीच दी, जबकि यूपीए-2 के दौरान ऐसी बातें सिर्फ 21 बार हुई थीं. इस तरह मोदी सरकार के दौरान वीआईपी हेट स्पीच में 490 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. वर्तमान सरकार के दौरान हेट स्पीच देने वालों में 90 प्रतिशत बीजेपी नेता हैं. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि नेताओं के बयानों का लोगों पर सीधा असर होता है. कई जगहों पर इनके आक्रामक बयानों से हिंसा भड़क उठती है और जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन नेताओं का कभी बाल भी बांका नहीं होता. लीडर किसी भी पार्टी के हों, गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करके प्राय: माफी मांग लेते हैं. पार्टी आलाकमान अपने नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेता है. जब तक चुनाव में नुकसान की आशंका न हो, तब तक शायद ही किसी नेता पर कार्रवाई होती हो. कभी ऐसी कोई नौबत आ भी जाए तो थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है. पार्टियां अपने ऐसे बदजुबान नेताओं को टिकट देने में कोई कोताही नहीं बरततीं. इधर कुछ समय से चुनाव आयोग इस मामले में सचेत हुआ है पर उसकी अपनी सीमा है. इस बारे में सख्त नियम बनाने का काम जन प्रतिनिधियों का है, पर वे अपने ही खिलाफ नियम क्यों बनाने लगे! सबसे बड़ी बात है कि अब लोग ऐसे भाषणों को नियति की तरह स्वीकार करने लगे हैं और इन्हें पॉलिटिक्स का एक जरूरी अंग मानने लगे हैं. नेताओं को समझना चाहिए कि उनकी देखादेखी सामान्य लोगों की बोलचाल में भी आक्रामकता चली आती है, जिससे कटुता फैलती है. इससे विरोध और असहमति की जगह कम होती है और लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ती है. ऐसी भाषा के प्रति सभी दलों को सख्ती बरतनी चाहिए.
यह अजीब विडंबना है कि एक चपरासी पद पर तैनात सरकारी कर्मचारी के लिए आचरण संहिता बनी हुई है. यह नियमावली ब्रिटिश सत्ता के हितों की हिफाजत के लिए बनी थी, जो आज तक कायम है. अगर चपरासी कारण-अकारण भी गैर-कानूनी काम करता है या चौबीस घंटे से अधिक जेल में डाल दिया जाता है, तो उसे तुरंत निलंबित कर दिया जाता है. उसकी सी आर खराब कर दी जाती है. सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रतिबंधों की लंबी सूची है. उनकी सेवा निवृत्ति की उम्र भी निर्धारित है. मगर खेद है कि देश चलानेवाले राजनेताओं के लिए आचरण की ऐसी कोई भी नियमावली तय नहीं है. वे स्वतंत्र और बेलगाम हैं. नेताओं के लिए सौ खून माफ हैं. दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज होने या वर्षों जेल में बिताने के बाद भी वे माननीय हैं. केवल राजनीतिक नफा-नुकसान का ध्यान रख कर ही, कभी-कभार पार्टियां कुछ नेताओं के विरुद्ध कड़े कदम उठाने को बाध्य होती हैं, अन्यथा नहीं. अमानवीय आचरण के कारण कभी किसी नेता को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया हो, देखने को नहीं मिलता. आजकल तो राजनीतिज्ञों द्वारा महिलाओं के प्रति अत्याचार की जितनी घटनाएं घट रही हैं, उतनी पहले शायद ही कभी घटी हों. हर कदम पर बेटियों को भी अपमानित होना पड़ रहा है. वे क्या खायें, क्या पहनें, क्या बोलें, सब पर हमारे राजनेताओं सवाल खड़े करते ही रहते है. इस प्रकार की गाली गलोज करना राजनीति की मुख्यधारा का अंग बन चुका है. अब तो राजनीतिक साधु-साध्वियों के मुंह से भी अशोभनीय शब्द निकलने लगे हैं. हाशिये के समाज के प्रति अपशब्दों की तो परंपरा ही रही है. अल्पसंख्यक, महिलाएं, दलित और आदिवासी तो हमेशा से ही सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं. अब जूता या स्याही फेंकना, पोस्टरों पर कालिख पोतना, हाथापाई पर उतर आना, सदन में कपड़े फाड़ देना, महापुरुषों की मूर्तियों को नुकसान पहुँचाना जैसी घटनाएं आम हो गई हैं. विगत कुछ सालों में राजनेताओं ने अपने विरोधियों के लिए बहुत ही घिनौने और स्त्रीजनित अपशब्दों का इस्तेमाल किया है. इसे राजनीति में भाषाई स्खलन अथवा हिंसा भी कहा जा सकता है.
अब सवाल यह है कि क्या इस भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली बनायी जानी चाहिए या इसे यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए? यूँ आज समय की मांग है कि राजनीति की भाषा और आचरण को नियंत्रित करने के लिए आचरण नियमावली का निर्माण किया जाये और उसके उल्लंघन पर राजनीतिज्ञों को राजनीति से निलंबित करने की प्रक्रिया निर्धारित हो. आज जब राजनीति में अपराधी और गुंडे किस्म के नेताओं का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है, तब इसे बेलगाम छोड़ने का मतलब मेरे ख्याल में लोकतंत्र को खत्म करना होगा. किंतु भाषायी अराजकता और असभ्यता को रोकने के लिए कोई आचरण नियमावली आखिर बनाएगा कौन?