
भारत वर्ष में अनेक महापुरूष पैदा हुये जिनमें तथागत बुद्ध, संत रविदास, कबीर दास, साहुजी महाराज, बिरसा मुण्डा, ज्योतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, रामास्वामी नायकर, संत गाडगे, डाॅ0 बी. आर. अम्बेडकर, जगदेव प्रसाद आदि अग्रगण्य हैं, जिन्होंने सदियों से मानवीय अधिकार से वंचित और समाज के नीचले पायदान पर खड़े लोगों के आवाज बनें. इन महापुरूषों ने बहुजन समाज के लिए रोटी, कपडा़ और मकान की लड़ाई नहीं लड़ी है, बल्कि भारत देश में करीब साढे चार हजार वर्ष पहले बनाई गयी अमानवीय एवं घिनौनी जाति व्यवस्था (सामाजिक व्यवस्था) के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी.
मानवता विरोधी वर्ण/जाति व्यवस्था:
हमारे तमाम महापुरूष इस मानवता विरोधी वर्ण/जाति व्यवस्था एवं अन्य सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध संघर्ष करते रहे. इन लोगों ने इस भेदभाव जनित वर्ण व्यवस्था को नकार दिया था और माना था कि जिस प्रकार गंदी नाली के बीच खड़ा होकर स्वच्छ पानी पीने की उम्मीद नहीं कर सकते, उसी प्रकार इस जाति व्यवस्था में रहकर हम कभी मान-सम्मान, इज्जत, प्रतिष्ठा, समानता, स्वतंत्रता, बराबरी और न्याय की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और न ही कभी स्वाभिमान की जिन्दगी जी सकते हैं. क्योंकि यह सामाजिक व्यवस्था शूद्र समाज ;ैब्ए ैज्ए व्ठब्द्ध को मानवीय अधिकार से वंचित करने का आदेश देता है. इस व्यवस्था में जो जाति कथित रूप से जितना उॅची है उसी हिसाब से समाज में उसे मान-सम्मान और इज्जत प्रतिष्ठा दी जाती है. इसमें योग्यता की कोई कीमत नहीं है. वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत शुद्र समाज आज भी मानसिक रूप से गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है. हमें आज भी एहसास नहीं हो रहा है कि चातुर्वण्र्य व्यवस्था में मनुवादियों द्वारा रचे गये धर्म रूपी काली कोठरी में कैद हैं. इसमें हमें सतत अपमान मिलता है और रह रह कर अत्याचार एवं बेइज्जत भी किया जाता है फिर भी इसी में जीने को अभ्यस्त अथवा मजबूर है. ?
बहुजन समाज अपना इतिहास नहीं जानते.
बाबा साहब ने कहा था ‘‘जो व्यक्ति अपना इतिहास नहीं जानता है, वह व्यक्ति अपना भविष्य का निर्माण नहीं कर सकता है. हम अपने आपको जानने की कोशिश नहीें करते हैं. सच्चाई यह है कि हमने अपने महापुरूषों के विचारों को नहीं पढ़ा है, न समझा है और न ही उनके विचारों से प्रेरणा लेकर सामाजिक और आर्थिक गुलामी से मुक्ति पाने का प्रयास किया है. क्या हम कभी महसूस या अनुभव करते हैं कि हमारे पूर्वज गुलामी की जिन्दगी जीने के लिए मजबूर क्यों थे ? सदियों से वे नारकीय एवं जलालत की जिन्दगी जीने के लिए विवश थे. ऐसी जीवन जीने का एक मात्र कारण था चातुर्वण्र्य व्यवस्था, जिसमें हम आज भी पल रहे हैं, वही गुलामी हम आज भी झेल रहे हैं और न संभले तो आने वाली पीढ़ी भी यही गुलामी जीने के लिए विवश रहेगी. यह सामाजिक गुलामी का क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा. क्या हमने कभी विचार किया है कि इस गुलामी से कैसे मुक्त हो सकते हैं ?
बाबा साहब ने जीवन भर हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी और इसमें सुधार करने का भी प्रयास किया लेकिन चातुर्वण्र्य व्यवस्था के ठेकेदारों ने कहा कि एक अछूत व्यक्ति हिन्दू धर्म को सुधारने की बात करता है यह कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता. तब बाबा साहब ने कहा कि हिन्दू धर्म को सुधारा नहीं जा सकता है इसे सिर्फ नकारा जा सकता है. बाबा साहब ने हमें नया मार्ग देने के लिए 14 अक्तूबर 1956 (अशोक धम्म विजय दशमी) को हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिये. उन्होंने प्रेरणा देकर चले गये कि बौद्ध धर्म में ही व्ठब्ए ैब्ए ैज् को समानता, भाईचारा, न्याय एवं स्वतंत्रता मिल सकता है. बहुजन समाज को अपना इतिहास पढ़ना होगा और उससे प्रेरणा लेने की आवष्यकता है. अपने महापुरूषों के विचारों को अपनाना होगा और उनके बताये हुये मार्ग पर चलना भी होगा. तभी हमारी मुक्ति संभव है.
चातुर्वण्र्य व्यवस्था में बंधे शूद्र और शोषण में उनका जीना
जिस चातुर्वण्र्य व्यवस्था ने हमें कभी अपना नहीं माना, उसने हमें कभी स्वीकार नहीं किया और इसमें हमें कभी मानवता का दर्जा नहीं दिया, फिर भी हम उसेे अपना मान रहे हैं? ऐसे जलालत की जिन्दगी जीने के लिए कब तक मजबूर और लाचार बने रहेंगे? यह मजबूरी कब तक पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहेगी? यह अपमान और कलंक अपने माथे पर रख कर कब तक विवश की जिन्दगी जीते रहेंगे. क्या हम कभी अपने आप से प्रष्न करते हैं कि इस अपमान और कलंक रूपी बोझ से कैसे मुक्त होंगे? हिन्दू धर्म में वर्ण है, वर्ण में शुद्र, शुद्र में जातियाॅ, जातियों में क्रमिक उॅच नीच की व्यवस्था जिसमें अपने से नीचे वाली जातियों पर अत्याचार और शोषण करना अपना अधिकार समझता है. हिन्दू धर्म में जाति रूपी क्रमिक दासता की व्यवस्था में शोषित व्यक्ति कभी भी गौरवान्वित महसूस नहीं कर सकते हैं और न वह स्वाभिमान की जिन्दगी जी सकते है. ऐसी जलालत भरी जिन्दगी में वे गर्व से कैसे कह सकते हैं कि हम हिन्दू हैं??? हिन्दू धर्म में मरी हुई गाय का महत्व ज्यादा है और जिन्दा इन्सानों की कीमत कम है.
धर्म का आधार लेकर शूद्र समाज का शोषण:
चातुर्वण्र्य व्यवस्था में सैकड़़ो पीढ़ियों से जन्म देना माता-पिता का काम था लेकिन उनके बच्चों के जीवन जीने का निर्धारण चातुर्वण्र्य व्यवस्था द्वारा किया जाता था. इस व्यवस्था में मूलवासियों को अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता नहीं थी. जब तक हम अपना जीवन का महत्व नहीं समझेंगे तब तक अपना जीवन जीने का नियंत्रण खुद नहीं कर सकते हैं. हमारी दयनीयता की स्थिति यह है कि हम इंसान हैं या नहीं हैं, इस बारे में भी हमें संदेह हो जाता है. अगर हम इंसान हैं तो फिर हमें इस समाज में इंसान का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है? क्यों हमारे साथ हर कदम पर भेदभाव होता है? हमारे उपर बेवजह अत्याचार क्यों होता है? बिना कोई अपराध के, बिना कोई बुरा बर्ताव किये हमसे घृणा क्यों करता है? खुद के परिश्रम से हम आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें क्यों रोका जाता है?
अपनी कमाई के पैसे से कपड़ा पहनते हैं, जमीन खरीदते हैं, मकान बनाते हैं, गाड़ी खरीदते हैं तो तथाकथित सवर्णों को तकलीफ क्यों होती है? हमारी तरक्की होने से शोषक जातियों को कष्ट होता है. जब हम अपना हक और अधिकार की मांग करते हैं तो वे इसे अपने स्वाभिमान के खिलाफ समझते हैं. इसे रोकने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं और समझते हैं कि तुम्हारी यह मांग हमारे हिन्दू धर्म व्यवस्था के खिलाफ है. शूद्रों के विकास होने से चातुर्वण्र्य व्यवस्था खतरे में पड़ने लगती है. इसलिए तथाकथित सवर्ण हमारे साथ भेदभाव, दुव्र्यवहार, अपमान, और अत्याचार करता है और हमारी उन्नति का हर संभव रास्ता रोकता है. हमारे साथ वह अन्याय करता है इसके लिए वह कभी अफसोस नहीं करता है. हमारे साथ अन्याय करना वह अपना धर्म समझता है. धर्म का सहारा लेकर सवर्ण हमारा शोषण करता है. धर्म के आधार पर ही हमें नीच और अछूत बनाये हुये है.
बीमारियों से भरे चातुर्वण्र्य व्यवस्था से हम बाहर निकलें.
शूद्र समाज जो इस देश का मूलवासी है. चातुर्वण्र्य व्यवस्था के अन्तर्गत वह आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से गुलाम बने हुये हैं. शूद्र समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है कि उसेे गुलामी का एहसास नहीं हो रहा है. इस समाज को 6743 जातियों में बाॅट कर लाचार और मजबूरी की जिन्दगी जीने के लिए विवश किया गया है. इस सोपानगत सामाजिक व्यवस्था (हिन्दू धर्म) में जिस जाति को जितना नीचे स्तर पर रखा गया है वह उतना ही गरीब, लाचार, उपेक्षणीय है. और उसके साथ उतना ही भेदभाव, द्वेष और अमानवीय व्यवहार किया जाता है. इस व्यवस्था में अपने से नीचे वाली जातियों पर अत्याचार करना और उन्हें दबा कर रखने में तथाकथित उच्च जाति के लोग अपने को गर्व महसूस करते हंै. चातुर्वण्र्य व्यवस्था के पोषक लोग बराबर कहते रहते हैं कि यह कथित सनातन और समृद्ध आदर्श सामाजिक व्यवस्था है. इस व्यवस्था के समर्थक इसे मजबूत बनाये रखना चाहते हैं क्योंकि इसमें जातीय श्रेष्ठा के आधार पर उसे हरामखोरी और मान-सम्मान फोकट में मिलता है. इस व्यवस्था में मानव के एक बड़े हिस्से को दूसरे मानव वर्ग द्वारा इंसान का दर्जा नहीं दिया जाता. इस धर्म आधारित सामाजिक व्यवस्था में उॅच्च नीच की भावना के कारण जातिगत भेदभाव और अत्याचार होता रहता है. हिन्दू धर्म के ब्राह्मण तुलसीदास द्वारा रचितकथित पवित्र ग्रंथ रामचरितमानस में आदेश दिया गया है कि ‘‘पूजये विप्र शीलगुण हीना, पुजिये न शुद्रगुणज्ञान प्रवीणा’’. अर्थात हिन्दू धर्म का कानून कहता है कि सवर्ण यदि आचरण-व्यवहार से गिरा हुआ है फिर भी वह पुज्यनीय, मान-सम्मान पाने योग्य है और शुद्र (ैब् ैज्ए व्ठब्) कितना भी ज्ञानी है आचरण और व्यवहार से निपुण है फिर भी वह मान-सम्मान पाने का हकदार नहीं है. इसी रामचरितमानस में कहा गया है-‘‘ढोल, गॅवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़न के अधिकारी’’. अर्थात ढोल, गॅवार, शूद्र पशु, नारी ये सभी अपमानित होने और प्रताड़ना पाने के हीे लायक हैं.
शूद्र समाज को मानसिक गुलाम बनाने के लिए ही इस तरह के धार्मिक ग्रंथों की रचना की गयी है. यह धार्मिक कानून हमारे पूर्वजों के उपर जबरदस्ती थोपा गया है. इस काले कानून को भारतीय संविधान के द्वारा खत्म कर दिया गया है परन्तु धार्मिक व्यवस्था के ठेकेदारों ने यह काला कानून आज भी व्ठब्ए ब्ैए ैज् के उपर अप्रत्यक्ष रूप से लागू किया हुआ है. चार्तुवण्र्य व्यवस्था के ठेकेदार यह घिनौना कानून हमारे उपर लागू करता है तो दोषी वह नहीं है, बल्कि दोषी हम हैं कि इस काला कानून को अपने उपर लागू करने देते हैं और हम इसे पूरे मन से सहज स्वीकार कर लेते हैं तथा आॅख बंद करके इसका समर्थन भी करते हैं. कभी हम खुल कर विरोध करने का साहस नहीं दिखाते हैं. परिवार, समाज को इस घिनौनी व्यवस्था से मुक्त करने का कभी प्रयास नहीं करते हैं. फिर भी हम इस व्यवस्था में समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय की आशा लगाये बैठे हैं ?
आरक्षण का सिकुड़ना और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का चैपट होना
बाबा साहब ने हमें जाति बंधन से मुक्त होने के लिए कहा था परन्तु हम पुनः जातिगत बंधन में बंधते जा रहे हैं. हमें जातियों में बाॅट कर हमारा सब कुछ समाप्त कर दिया गया है. जब तक हम जातियों में बंटे रहेंगे तब तक चातुर्वण्र्य व्यवस्था मजबूत बनी रहेगी. हमारा बर्बादी का सबसे बड़ा कारण जातियों में बंटे रहना है. जिसका परिणाम हम देख रहे हैं कि जो भी हमें अधिकार मिला था वह धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं, छीने जा रहे हैं और, यही हाल रहा तो आने वाले समय में हमारी पीढ़ी अधिक बुरा परिणाम झेलने के लिए मजबूर होगी. बाबा साहब का दिया हुआ आरक्षण दिन प्रतिदिन संकुचित और समाप्त हो रहा है. सरकारी व्यवस्था के अन्तर्गत माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा तो बदहाल है ही, व्ठब्ए ैब्ए ैज् को आगे बढ़ने का जो मुख्य आधार सरकारी प्राथमिक शिक्षा, मूलभूत शिक्षा व्यवस्था है, उसे एक सोची-समझी साजिश के तहत नकारा और पंगु बना दिया गया है. स्कूलों के शिक्षकों को जनगणना, टीकाकरण, चुनाव आदि गैर शैक्षणिक कार्यो में लगाकर पठन-पाठन को बाधित किया जाता है. प्राथमिक सरकारी स्कूलों में चलाई जाने वाली महत्वाकांक्षी पोषाहार योजना (खिचड़ी योजना) तो शिक्षा व्यवस्था को चैपट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता कभी नहीं पूछते हैं कि स्कूल में पढ़ाई क्यों नहीं हो रही है ? जबकि बच्चों को एक दिन पोषाहार नहीं मिलेगा तो शिक्षक से अनेक तरह के प्रश्न करने लगेंगे. स्कूल जाने वक्त माॅ अपने बेटा-बेटी से पूछती है कि प्लेट ले जा रहा है कि नहीं ? लेकिन माॅ बच्चों से कभी नहीं पूछती है कि बैग में सभी किताब ले जा रहा है कि नहीं ? इसलिए शिक्षक भोजन व्यवस्था में उलझे रहते हैं तो छात्र-छात्राएॅ खाने-पीने में व्यस्त रहते हैं. सरकारी स्कूलों में पढ़ाई एच्छिक व गैरजरूरी गतिविधि बन कर रह गई है. सरकारी स्कूलों में (SC, ST, OBC) के अधिकांश बच्चे पढ़ाई करते हैं, जहाॅ पढ़ाई नही के बराबर होती है. जबकि प्राइवेट स्कूलों में तथाकथित सवर्ण समाज के अधिकांश बच्चे पढ़ते है, जहाॅ की पढ़ाई उच्च स्तरीय एवं गुणवत्तापूर्ण होती है. विचारणी प्रश्न है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ा हुआ बच्चा प्राइवेट स्कूलों में पढ़े हुए बच्चों के साथ प्रतियोगिता में बराबरी कैसे कर सकते है? सदियों से लेकर अंग्रेजो का शासन आने तक भारत के शूद्र समाज एवं समूचे समाज की स्त्रियों को प्रायः शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था. जबकि अप्रत्यक्ष रूप से शुद्र समाज को आज भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है.
हमारा मार्गदाता हैं तथागत बुद्ध और बाबा साहब.
अगर हम मान-सम्मान, इज्जत, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान के साथ जीवन जीना चाहते हैं तो एक मात्र रास्ता है तथागत गौतम बुद्ध का बताया हुआ धम्म मार्ग को स्वीकार करना. इस मार्ग पर चलने से खुद का जीवन में बदलाव तो होगा ही आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक गुलामी से मुक्ति भी मिल जायेगी. तथागत बुद्ध हमारे मार्गदाता हैं और जो व्यक्ति उनके मार्ग पर चलते हैं उनके जीवन में सुख, शांति एवं खुशहाली मिलना निश्चित है. तथागत गौतम बुद्ध का धम्म मार्ग अपना कर कई देश विकसित हो गए. वहाॅ की जनता उनके मार्ग पर चल कर सुख, शांति एवं समृद्धि का जीवन जी रहे हैं. परन्तु दुर्भाग्य है शुद्र समाज का कि तथागत बुद्ध एवं बाबा साहब को नहीं समझ रहे हैं और न ही उन्हें अपना मार्गदाता मान रहे हैं. बल्कि उनके बताये हुये रास्ते और उनके विचारों को ठुकरा रहे हैं और अनसुना कर दिये हैं. बाबा साहब का आरक्षण और सुविधाएॅ मुझे बहुत अच्छा लगा लेकिन उनके विचार और मार्गदर्शन हमें इतना गन्दा लगा कि उससे हम बहुत दूर भागते गये. जिसका परिणाम देख रहे हैं कि बहुजन समाज को जिस गति से आगे बढ़ना चाहिए था वह नहीं बढ़ रहे हंै बल्कि समस्या और गंभीर होता जा रहा है और बाबा साहब द्वारा दिया गया अधिकार दिन प्रतिदिन समाप्त होते जा रहा है.
साथियो बाबा साहब की विरासत को संभाल कर न रखने एवं उनके सपनों की दिशा में काम न करके हम बाबा साहब को धोखा नहीं दे रहे हैं बल्कि हम अपने आप को धोखा दे रहे हैं. हम अपनी जमीर के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. हम अपनी आने वाली पीढ़ियों (बेटा, पोता…….) के साथ गद्दारी कर रहे हैं. हमारी संतानें, हमारे बेटी-बेटा ही हमसे एक दिन सवाल करेगें कि बाबा साहब जैसे व्यक्ति ने अकेले दम पर इस समाज की अमानवीय एवं घिनौनी दशा से उबार कर खुशहाली, समृद्धि एवं समानता का अधिकार दिलाया और आज हमलोग करोड़ों की संख्या में रहकर भी उनके दिये गये अधिकार को बचा कर नहीं रख पा रहे हैं तो धोखेबाज और गद्दार होने का प्रमाण-पत्र हमलोग अपनी संतानों से ही प्राप्त करेंगे…..
भवतु सब्ब मंगलम् !
युगेश्वर नन्दन (नागसेन)
दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।