संख्यानुपात में आरक्षण का मुद्दा म्लान कर सकता है: राष्ट्रवादी लहर !

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एक ऐसे समय में जबकि लोकसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा होने ही वाली है, गत 14 फ़रवरी को जम्मू कश्मीर के पुलवामा जिले में सीआरपीऍफ़ की टुकड़ी पर एक भयावह आतंकी हमला हुआ, जिसमें 40 से अधिक जवानों की जान चली गयी और कई घायल हुए. इस आतंकी हमले के बाद देश भर में बड़े स्तर पर लोगो में वैसा ही गुस्सा देखा गया जैसा कभी संसद, मुंबई, उरी इत्यादि आतंकी घटनाओं के बाद दिखा था. किन्तु पुलवामा की घटना कुछेक मामले में बाकी घटनाओं भिन्न रही. अतीत की सभी घटनाओं में हमारी चूक को लेकर सवाल जरुर खड़े हुए, किन्तु इस मामले में पुलवामा आतंकी हमला शायद सबसे अलग है. देश के इस सबसे सुरक्षित मार्ग पर 250 किलो भयावह विस्फोटक सामग्री लेकर एक अकेला हमलावर कैसे 78 गाड़ियों के काफिले में घुस गया और कैसे उस एकमात्र गाड़ी को टारगेट किया, जो बुलेट प्रूफ नहीं थी, ऐसे दो-चार नहीं ढेरों सवाल हैं, जिसे लेकर केंद्र सरकार की ओर से संतोषजनक जवाब अबतक नहीं मिल पाया है. इस कारण ही इस किस्म की घटना को लेकर पहली बार कोई सरकार इस तरह विपक्ष व बुद्धिजीवियों के निशाने पर आई है. सोशल मीडिया पर ढेरों लोगों ने सरकार पर निशाना साधते हुए लिखा है, ’पुलवामा धमाके में बस और सैनिकों के ही परखच्चे नहीं उड़े, बल्कि राफेल, राम मंदिर, मंहगाई-बेरोजगारी, भष्टाचार, भागते लुटेरे, पिंजरे में कैद होता तोता, सुप्रीम कोर्ट के बहार आकर रोते जज, किसानों की दुर्दशा, सवर्ण आरक्षण, 13 पॉइंट रोस्टर, मोदी सरकार की समस्त विफलतायें और देश से जुड़े दूसरे जरुरी मुद्दे भी उड़ गए. यही है मोदी मैजिक!’ यही नहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने तो इसके लिए मोदी सरकार को सीधा दोषी ठहरा दिया है.

दरअसल मोदी सरकार अगर विपक्ष के निशाने पर आ गयी है तो उसके लिए खुद भाजपा के नेता जिम्मेवार हैं. मीडिया में कई ऐसे तस्वीरें वायरल हुई हैं,जिनमें देखा गया है कि शहीदों की लाशें ले जाते वक्त उसके कई नेताओं के चेहरे पर ऐसी हंसी खिली रही जो जश्न के माहौल में उभरती है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश-विदेश के नेताओं के साथ ऐसी कई तस्वीरे मीडिया में आई है, जिनमें वह ठहाके लगाते हुए दिखे. इन पक्तियों के लिखे जाने के दौरान इस मामले में सबसे बड़ा आरोप मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ओर से यह लगाया गया है-‘ 14 फ़रवरी,2019 को दिन में 3 बज कर 10 मिनट पर पुलवामा की घटना हुई, पूरा देश सदमे से जूझ रहा था, किन्तु मोदी उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट में अपने प्रचार की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग में व्यस्त रहे. देश जब शहीदों के शवों के टुकड़े चुन रहा था, मोदी डिस्कवरी चैनल के मुखिया व उनके क्रू के साथ नौका विहार करते हुए घडियालों को निहार रहे थे. मोदी के लिए सत्ता की लालसा देश की सेना और शहीदों से बड़ी है.शहीदों और शहादत के अपमान का जो उदहारण मोदी जी ने पेश किया है वैसा कोई उदारण पूरी दुनिया में नहीं है. ’विपक्ष की इस बात को पूरी तरह न झुठलाते हुए सरकार की ओर से कह दिया गया है,’ भारत उस घटना से डरा नहीं है, रुका नहीं है’, यह सन्देश प्रधानमंत्री देना चाहते है.

इसमें कोई शक नहीं कि पुलवामा जैसी स्तब्धकारी घटना पर जितनी गंभीरता सरकार को दिखानी चाहिए थी, वैसा नहीं किये जाने के कारण ही इसे लेकर विपक्ष को राजनीति गरमाने का मौका मिल गया है. लेकिन इस मामले में खुद मोदी सरकार विपक्ष से कई कदम आगे है. पुलवामा घटना के बाद विपक्ष जनभावना का सम्मान करते हुए अपना कई प्रोग्राम ख़ारिज कर दिया, किन्तु मोदी सरकार की ओर से ऐसा नहीं किया गया. शहीदों की लाशें चिता पर चढ़ने के पहले मोदी-शाह और उनके लोग इस घटना से उपजे गुस्से को भुनाने में जुट गए और पकिस्तान तथा कश्मीरियों के बहाने, उस मुस्लिम विद्वेष को एक बार फिर तुंग पर पहुचाने में सफल हो गए, जो भाजपा की विजय में सबसे प्रभावी कारक का काम करता है. पुलवामा की घटना के जरिये आगामी लोकसभा चुनाव का लक्ष्य सधते देखकर ही इसे ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल करने के लिए 19 जनवरी को गुजरात भाजपा के नेता और पार्टी प्रवक्ता भरत पंड्या ने कार्यकर्ताओं को कह दिया, ’40 जवानों के शहीद होने के बाद देश में इस समय ‘राष्ट्रवादी लहर’ चल रही है. हमें इसे वोटों में तब्दील करना होगा.’

वास्तव में विपुल प्रचार माध्यमों के समर्थन से पुष्ट दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा जिस तरह मुद्दे सेट करने में महारत हासिल कर चुकी है, उसके आधार पर यह मानकर चलना चाहिए कि पुलवामा का आतंकी हमला ही लोकसभा चुनाव-2019 का मुख्य मुद्दा बनने जा रहा है, जिसमें राष्ट्रवादी लहर पर सवार होकर मोदी एक बार फिर सत्ता में आने का प्रयास करेंगे. चूँकि मुद्दा सेट करने में भाजपा अप्रतिरोध्य है, इसलिए न चाहते हुए भी विपक्ष मोदी सरकार की तमाम नाकामियां भूलकर राष्ट्रवाद की पिच पर खेलने के लिए मजबूर होगा. और दुनिया जानती है कि इस पर भाजपा को मात देना बहुत कठिन काम है. हालांकि प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद नयी उर्जा से सराबोर कांग्रेस शायद इस पिच पर भी कुछ कमाल कर जाये, क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ उसका ट्रैक रिकार्ड भाजपा से बेहतर होने के साथ– साथ इंदिरा और राजीव गांघी के प्राण-बलिदान की पूंजी भी उसके पास है. किन्तु ऐसी लड़ाई में तो बहुजनवादी दल भाजपा और कांग्रेस की लड़ाई में के बीच सैंडविच बनकर रह जायेंगे:उनका अता-पता ही नहीं चलेगा. ऐसा में वे कौन सा ऐसा मुद्दा उठायें जो भाजपा को अप्रतिरोध्य बनाने वाली ‘राष्ट्रवाद की लहर’ को म्लान कर सके, यह सबसे बड़ा सवाल है! बहरहाल आज जबकि राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर भाजपा एक बार फिर निर्णायक चुनावी लड़ाई में उतरने जा रही है, मीडिया,धन-बल और मोदी जैसे प्रभावशाली नेता से शून्य बहुजनवादी दलों को भाजपा की खूबियों और कमियों का एक बार गंभीरता से सिंहावलोकन कर लेना चाहिए.

देश के धन्नासेठों, मीडिया, लेखकों, साधु-संतों एवं प्रभु वर्ग के प्रबल समर्थन से पुष्ट संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा जैसी ताकतवर राजनीतिक पार्टी आज भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में कोई और नहीं है: विपक्ष, विशेषकर बहुजनवादी दल उसके सामने पूरी तरह बौने हैं. किन्तु यदि हम इस बात को ध्यान में रखे कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता हासिल करने में संख्या-बल सर्वाधिक महत्वपूर्ण फैक्टर का काम करता है और इसी संख्या-बल को अनुकूल करने के लिए राजनीतिक दलों को धन-बल,मीडिया-बल ,कुशल प्रवक्ताओं-कार्यकर्ताओं की भीड़ तथा योग्य नेतृत्व की जरुरत पड़ती है तो पता चलेगा ढेरों कमियों से घिरे भारत के बहुजनवादी दलों जैसी अनुकूल स्थिति पूरे विश्व में और कहीं है ही नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि आज की तारीख में सामाजिक अन्याय की शिकार बनाई गयी भारत के बहुजन समाज (एससी-एसटी-ओबीसीऔर इनसे धर्मान्तरित तबकों) जैसी विपुलतम आबादी दुनिया में कही और है ही नहीं.इसी विशालतम आबादी के सबसे बड़े हिस्से को न्याय दिलाने के लिए जब अगस्त, 1990 में मंडल की रिपोर्ट प्रकाश में आई, तब संग-संग भाजपा ने राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया, जिसके फलस्वरूप राष्ट्र की करोड़ों की संपदा और असंख्य लोगों की प्राण-हानि हुई. सामाजिक न्याय को दबाने के लिए शुरू किये गए मंदिर आन्दोलन की नौका पर सवार होकर ही भाजपा एकाधिक बार सत्ता में आई और हर बार उसने ऐसी नीतियां अख्तियार की जिससे बहुजन मंडल-पूर्व स्थिति में पहुँच जाए. इसके लिए उसने खास तौर से उस आरक्षण को निशाना बनाया, जिसके सहारे हजारों साल से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक) से बहिष्कृत बहुजन कुछ-कुछ राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे थे. आरक्षण के खात्मे के लिए उसने नरसिंह राव की उन नवउदारवादियों नीतियों को हथियार की तरह इस्तेमाल किया, जिन्हें कभी वह विदेशियों का गुलाम बनाने वाली नीतिया घोषित किया करती थी. इससे आरक्षण को ख़त्म करने में वह काफी हद कामयाब जरुर हो गयी, किन्तु उसकी छवि सबसे बड़े सामाजिक न्याय-विरोधी दल की बन गयी, यही उसकी एक ऐसी कमजोरी है, जिसकी काट वह आंबेडकर प्रेम प्रदर्शन में दूसरे दलों को मीलों पीछे छोड़ने के बाद भी आजतक नहीं ढूंढ पाई है. उसकी इसी कमजोरी का सद्व्यवहार कर लालू प्रसाद यादव ने उसे बिहार विधानसभा चुनाव- 2015 बुरी तरह शिकस्त दे दिया था. स्मरण रहे बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब संघ प्रमुख ने आरक्षण के समीक्षा की बात उठाया, तब लालू प्रसाद यादव ने फिजा में यह बात फैला दी,’तुम आरक्षण का खात्मा करना चाहते हो, हम सत्ता में आयेंगे तो संख्यानुपात में सबको आरक्षण देंगे.’ तब विपुल प्रचारमाध्यमों और संघ के विशाल संख्यक एकनिष्ठ कार्यकर्ताओं से लैस भाजपा लाख कोशिशें करके भी लालू की उस बात की काट नहीं ढूंढ पाई और शर्मनाक हार झेलने के लिए विवश हुई.

2019 में स्थितियां और बदतर हुईं हैं. तब 2015 में मोदी का सम्मोहन चरम पर था : वे अपराजेय थे. किन्तु अपने कार्यकाल में लोगों के खाते 15 लाख रूपये जमा कराने; युवाओं को हर साल दो करोड़ नौकरियां देने व अच्छे दिन लाने इत्यादि में बुरी तरह विफल मोदी आज खुद भाजपा के लिए ही बोझ बन चुके हैं. इस बीच वह सामाजिक न्याय को क्षति पहुचाने व आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने के मोर्चे पर नरसिंह राव, डॉ.मनमोहन सिंह और खुद संघी वाजपेयी जैसे अपने पूर्ववर्तियों को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं. इधर उनके कार्यकाल के स्लॉग ओवर में 7 से 22 जनवरी, 2019 के मध्य जिस तरह ‘सवर्ण आरक्षण’ तथा ‘विभागवार आरक्षण’ पर मोहर लगी है, उससे जहाँ एक ओर उनकी छवि नयी सदी के सबसे बड़े सवर्ण ह्रदय-सम्राट के रूप में स्थापित हुई है, वहीँ दूसरी ओर वह बहुजनों की नज़रों में मंडल उत्तर-काल के सबसे बड़े सामाजिक न्याय विरोधी के रूप में उभरे हैं. उनकी चरम सामाजिक न्याय-विरोधी छवि के कारण ही 8 जनवरी, 2019 से रातो-रात बहुजन नेताओं में संख्यानुपात में आरक्षण की वह मांग शोर में तब्दील हो गयी, जिसके लिए बहुजन बुद्धिजीवी वर्षों से प्रयास कर रहे थे. उसके अतिरिक्त 13 प्वाइंट रोस्टर के खात्मे की लड़ाई के साथ बहुजन बुद्धिजीवि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में मूलनिवासी एसटी-एससी और ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की मांग उठाने लगे है, जिसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाखों आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने का आदेश जारी होने के बाद जोर पकड़ने की सम्भावना काफी बढ़ गयी. ऐसे में 7 जनवरी, 2019 के बाद के बदले हालात को दृष्टिगत रखते हुए यदि बहुजनवादी दल नौकरियों के साथ-साथ शैक्षणिक व अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों में प्रमुख सामाजिक समूहों -एसटी/एससी,ओबीसी,सवर्ण और धार्मिक अल्पसंख्यकों – के संख्यानुपात में आरक्षण के दिलाने के मुद्दे पर चुनाव में उतरें तो शायद बिहार विधानसभा चुनाव- 2015 से भी बेहतर परिणाम देने में सफल हो जायेंगे. संख्यानुपात में आरक्षण के सामने राष्ट्रवाद की बड़ी से बड़ी लहर का भी म्लान होना अवधारित है.

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष है- सम्पर्क: 9654816191

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