
दोनों ने हर स्तर पर बराबरी का जीवन जिया। उस रूढ़िवादी दमनकारी परम्परा में सही और स्वतंत्र सोच वाले इस दंपति-युगल ने इस अवधारणा को तोड़ दिया कि स्त्री का काम सिर्फ़ घर संभालना, पति व उसके घर वालों की सेवा करना और बच्चे पैदा करना मात्र है।
उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि पुरुष सिर्फ़ बाहरी कार्य करेगा। इसका पालन स्वयं जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने भी जीवनभर किया और व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन के संघर्षों में दोनों कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चले।
दोनों ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की; एक साथ मिलकर स्कूल स्थापित किए। दोनों एक साथ घर से बाहर निकाले गए। दोनों ने मिलकर विधवाओं के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। सत्यशोधक समाज की स्थापना दोनों ने मिलकर की। सत्यशोधक विवाह पद्धति के निर्माण में दोनों की भूमिका रही।
अकाल पीड़ितों की मदद करने दोनों एक साथ निकले और कौन क्या कहेगा इसकी चिंता किए बिना अलग-अलग जगहों पर मानवसेवा के महान कार्य में पूरी तन्मयता से लगे रहे। यानि जीवन में हर क्षण हर क़दम पर बराबरी की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का पालन करते हुए दोनों एक-दूसरे का साथ देते रहे।
शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए दोनों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया। दोनों पूरी तरह आधुनिक चेतना और मानवीय संवेदना से परिपूर्ण महान व्यक्तित्व के धनी थे। स्वतंत्रता, समता और सबके लिए न्याय, ये सब दोनों के जीवन के आदर्श थे। दोनों के सपने एक थे। दोनों का रास्ता एक था और दोनों की मंज़िल भी एक ही थी।
यदि यह देश वर्ण-जातिवादी न होता और इस पर अपरकॉस्ट मानसिकता के विचारकों-लेखकों का प्रभुत्व न होता, तो इस देश के जन-जन को आदर्श दंपत्ति के रूप में फुले दंपत्ति को पढ़ाया और बताया जाता तथा उनके दिखाए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।