मोदी की सवर्णपरस्ती से पैदा हुये : लोकतंत्र के ढांचे के विस्फोटित होने लायक हालात!

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सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव समापन की ओर अग्रसर है. अब इसके सिर्फ दो चरण बाकी रह गए हैं. इस बीच पक्ष-विपक्ष बदजुबानी जंग पर उतारु हो आया है. इनमें मोदी जिस तरह की स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे पूरा देश स्तब्ध है. लेकिन इस मामले में विपक्ष, खासकर कांग्रेस भी दूध की धुली नहीं है, मोदी ने यह प्रमाणित करने का अभियान 8 मई से कुरुक्षेत्र से शुरू कर दिया है . इस सभा में उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले और बाद में अपने खिलाफ इस्तेमाल किये गए एक-एक अपशब्दों को गिनाते हुए कहा कि मुझे प्रधानमंत्री बनने के पहले गन्दी नाली का कीड़ा, गंगू तेली, पागल कुत्ता, भष्मासुर, बन्दर, वायरस, दाउद इब्राहीम जैसा, हिटलर, बदतमीज-नालायक, रैबीज पीड़ित, लहू पुरुष, असत्य का सौदागर,रावण, सांप, बिच्छू, मौत का सौदागर तक कहा गया. उन्होंने राहुल गाँधी पर तंज कसते हुए कहा कि वह प्रेम की भाषा बोलने का दावा करते हैं, लेकिन प्रधानमन्त्री बनने के बाद मुझे मोस्ट स्टूपिड पीएम, जवानों के खून का दलाल, गद्दाफी, हिटलर, मुसोलिनी, मानसिक तौर पर बीमार, नीच, मोदी के पिता-दादा का नाम नहीं मालूम, नालायक व नाकारा बेटा, निकम्मा , नशेड़ी और औरंगजेब जैसे नाम दिए गए. मोदी ने कहा कि सार्वजानिक मंचों से इनका उल्लेख करना उचित नहीं था,परन्तु अपने घर हरियाणा में पहुंचकर दर्द भरी दास्तान पहली बार सुना रहे हैं. अंत में उन्होंने जनता से अपील की कि उनपर लगातार जुल्म हो रहा है. इसे सोशल मीडिया के जरिये घर-घर पहुचाएं. बहरहाल मोदी अपने खिलाफ इस्तेमाल किये गए प्रायः हर अपशब्द को ही गिनाया है, पर, यह नहीं बताया कि उन्हें लोग सवर्णपरस्त और लोकतंत्र को संकटग्रस्त करनेवाला पीएम भी बताते रहे हैं. बहरहाल मोदी ने चुनाव का इमोशनल मुद्दा बनाने के लिए अपशब्दों की जो फेहरिश्त जनता के बीच रखी है, हो सकता है उससे सहमत होना कठिन हो. पर, उन्होंने अपनी सवर्णपरस्ती से जिस लोकतंत्र का हम महापर्व मना रहे है तथा जिस लोकतंत्र पर हमारे गर्व का अंत नहीं है,उसे संकटग्रस्त किया है, इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती. इसे समझने के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा लोकतंत्र की सलामती के लिए सुझाये गए मन्त्र को एक बार फिर से समझ लेना होगा.

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को संविधान सौंपने के एक दिन पूर्व 25 नवम्बर, 1949 को संसद के सेन्ट्रल हॉल से लोकतंत्र को बचाए रखने की शर्त से अवगत कराते हुए चेतावनी के स्वर में कहा था,’26 जनवरी,1950 से हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग समानता का भोग करेंगे, किन्तु आर्थिक और सामाजिक जीवन में हमें मिलेगी भीषण असमानता. राजनीति के क्षेत्र में हमलोग एक वोट एवं प्रत्येक वोट के एक ही मूल्य की स्वीकृति देने जा रहे हैं..हमलोगों को निकटम भविष्य के मध्य अवश्य ही इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा. अन्यथा यह असमानता कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है’. तो क्या संविधान निर्माता की इस चेतावनी से यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र के सलामती की सबसे अनिवार्य शर्त थी, आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा ! चूँकि सारी दुनिया में ही शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक) का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारा कराकर ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि की जाती रही है, इसलिए इसके निवारण के लिए विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य संख्यानुपात में शक्ति के स्रोतों से बंटवारे से भिन्न कोई उपाय नहीं रहा . इस बात को दृष्टिगत रखकर ही लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और नए-नवेले दक्षिण अफ्रीका इत्यादि ने शक्ति –वितरण में इस सिद्धांत का अनुसरण किया. इसके फलस्वरूप इन देशों में विभिन्न वंचित नस्लीय समूहों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों इत्यादि को शासन-प्रशासन सहित अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों में वाजिब हिस्सेदारी मिली. इससे वहां आर्थिक और सामाजिक विषमताजन्य विछिन्नता-विद्वेष, अशिक्षा-गरीबी-कुपोषण इत्यादि का खात्मा और लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण हुआ.
लेकिन आजाद भारत के शासकों ने इसकी अनदेखी कर दिया. फलतः कई सौ जिले नक्सलवाद/माओवाद की चपेट में आ गए. इस स्थिति की भयावह घोषणा 6 मार्च ,2010 को माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ़ किशन जी ने इन शब्दों में की–‘हम 2050 के बहुत पहले भारत में तख्ता पलटकर रख देंगे. हमारे पास यह लक्ष्य हासिल करने के लिए पूरी फ़ौज है.’ जाहिर है जिस फ़ौज के बूते उन्होंने लोकतंत्र के मंदिर पर कब्जा जमाने की धमकी दी थी, वह और कोई नहीं शक्ति के स्रोतों से वंचित लोगों की जमात थी. उनकी उस चेतवानी के बाद उम्मीद बंधी थी कि बारूद की ढेर पर खड़े विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सलामती को ध्यान में रखकर देश के हुक्मरान शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे की दिशा में तेजी से आगे बढ़ेगे, ताकि उस आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा हो सके , जो लोकतंत्र की सलामती की सबसे अनिवार्य शर्त है. इस लिहाज से जब हम मोदी राज का आंकलन करते हैं, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.कारण मोदी राज में आर्थिक और सामाजिक विषमता को जिस बिंदु पर पहुंचा दिया गया है, उसका विस्फोटक परिणाम कभी भी सामने आ सकता है.

बहरहाल कल तक देश के प्रधानमंत्री से लेकर गृह-मंत्री और असंख्य बुद्धिजीवी जिस माओंवाद/नक्सलवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या बताते रहे,उसके प्रति अज्ञात कारणों से मोदी राज में उतनी चिंता जाहिर नहीं की गयी,जबकि सचाई है कि मोदी राज में धन-दौलत के अत्यंत असमान बंटवारे के कारण विषमता की समस्या पहले से और ज्यादा गंभीर रूप अख्तियार करती गयी. मोदी राज में समय-समय पर माओवादियों द्वारा बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा, पर, सरकार हमेशा इसे हलके में लेते हुए माओवाद का सर कुचल देने की घोषणा करती रही. उधर बीच-बीच में अख़बार यह चेतावनी देते रहे हैं,‘ आर्थिक गैर-बराबरी देश में उथल-पुथल को जन्म देती रही है इसलिए धन-दौलत का न्यायपूर्ण बंटवारा अब प्राथमिक महत्त्व का विषय बन गया.’ किन्तु मोदी सरकार इस सब बातों से आँखे मूंदे अपनी खास अंदाज में अपनी अर्थनीति आगे बढाती रही. जिसका भयावह रूप जनवरी 2018 में दावोस में जारी ऑक्सफाम की रिपोर्ट में सामने आ गई . उस रिपोर्ट से यह तथ्य उभरकर आया कि देश की 73% संपदा देश के केवल 1 प्रतिशत लोगों के हाथ में सिमट गयी है. इन 1 प्रतिशत लोगों की सपत्ति पिछले एक साल में 21 लाख करोड़ बढ़ी है.

1% लोगों के हाथ 73% संपत्ति जाना कितनी बड़ी घटना थी, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के मुताबिक टॉप की 1% आबादी के पास 2000 में 37% हुआ करती थी, जो 2005 में बढ़कर 42%, 2010 में 48%, 2012 में 52% तथा 2016 मे 58% हो गयी। इससे जाहिर है कि 2000-2016 अर्थात 16 सालों में 1% वालों की दौलत में कुल इजाफा 21% का हुआ, जबकि 2016 के 58 के मुक़ाबले 2017 मे 73% पहुचने का मतलब हुआ कि एक वर्ष में उनकी दौलत में सीधे 15% की बढ़ोतरी हो गयी। है न यह आश्चर्य! और यह आश्चर्य इसलिए घटित हुआ क्योंकि भाजपा सबसे बड़ी सवर्णपरस्त पार्टी है। इस सवर्णपरस्ती के चलते ही उसने मण्डल के विरुद्ध कमंडल उठाकर देश की हजारों करोड़ की सम्पदा और असंख्य लोगों की प्राणहानि करा दिया. सवर्णपरस्ती के चलते ही स्वयंसेवी प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चरम आंबेडकर विरोधी अरुण शौरी को साथ ले, विनिवेश मंत्रालय खोलकर उन लाभजनक सरकारी उपक्रमों औने-पौने दामों में बेचने का एक तरह से अभियान छेड़ा, जहां आरक्षित वर्ग के लोग जॉब पाते थे. लेकिन मण्डल के बाद सवर्णों के हित में आरक्षण को कागजों तक सिमटाने का जो काम दोनों सवर्णवादी दलों- कांग्रेस और भाजपा- के नरसिंह राव ,वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने दो दशकों में किया, उतना मोदी ने तीन सालों में कर दिया है। मोदी की अतिसवर्णपरस्त नीतियों, जिसे प्रगतिशील बुद्धिजीवी कारपोरेटपरस्त नीतियां बताकर बहुजनों को भ्रमित करते रहते हैं, के कारण ही 1% वालों की दौलत में 1 साल के मध्य ही 15% वृद्धि का त्रासदपूर्ण चमत्कार घटित हो गया है

बहरहाल जनवरी 2018 में आई ऑक्सफाम की रिपोर्ट से टॉप के 1% वालों की दौलत को लेकर तो खूब चर्चा हुई.पर, यदि टॉप की 10% आबादी वालों की दौलत का आंकड़ा मिलता तो पता चलता विषमता की स्थिति और बदतर हुई है । लेकिन तब टॉप के 10% वालों की दौलत का चर्चा न होने का कारण यह रहा कि ऑक्सफाम की उस रिपोर्ट में शायद अलग से टॉप की 10% आबादी की दौलत का आकड़ा सामने नहीं आया था. पर, यदि हम क्रेडिट सुइसे की 2015 वाली रिपोर्ट, जिसमे यह बताया गया था कि भारत के टॉप की 10% आबादी के पास 81% दौलत है तथा नीचे की 50% आबादी सिर्फ 4.1% धन-संपदा पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है, के आधार पर आंकलन करें तो शर्तिया तौर पर 10 % टॉप वालों की दौलत 90% से ज्यादे का आकड़ा पार कर गयी होगी। भारत के शासक इच्छाकृत रूप से जाति जनगणना इसीलिए नहीं कराते कि सवर्णों की शक्ति के स्रोतों पर 80-90% कब्जे की कलई खुल जाएगी। बहरहाल हमें यह मानकर चलना चाहिए कि 90% देश की दौलत के इन 10% अर्थात 13 करोड़ मालिकों में से 99.9% उस जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त तबकों अर्थात सवर्ण समुदायों से होंगे जिनका सदियों से शक्ति के प्रायः समस्त स्रोतों पर 90% से ज्यादा कब्जा रहा है।

इसके भयावह परिणामों से चिंतित ऑक्सफैम इंडिया की सीईओ निशा अग्रवाल ने तब रिपोर्ट पर अपनी टिपण्णी में कहा था,’ अरबपतियों की बढती संख्या अच्छी अर्थव्यवस्था का नहीं, ख़राब होती अर्थव्यवस्था का संकेत है. जो लोग कठिन परिश्रम करके देश के लिए भोजन उगा रहे हैं, इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर रहे हैं, फैक्टरियों में काम कर रहे हैं , उन्हें अपने बच्चों की फीस भरने, दवा खरीदने और दो वक्त का खाना जुटाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. अमीर- गरीब के बीच बढती खाई लोकतंत्र को खोखला कर रही है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है।’ इन्ही कारणों से 2015 में क्रेडिट सुइसे की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद बहुत से अखबारों ने लिखा था -‘गैर – बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है. सरकार और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए.संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण बंटवारा कैसे हो , यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है.’

किन्तु भीषण आर्थिक विषमता पर आई ढेरों चेतावनियों से मोदी की सेहत पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा. कोई और शासक होता तो कम से कम चुनावी वर्ष में दुनिया की विशालतम वंचित आबादी के रोष से बचने के लिए उनके पक्ष में कुछ बड़े कदम जरुर उठाता .पर, चूँकि संघ प्रशिक्षित मोदी का एक ही लक्ष्य रहा है सवर्णों को और शक्तिसंपन्न बनाना, लिहाजा प्रधानमंत्री के रूप उनकी पारी के स्लॉग ओवर में सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने, 13 प्वाइंट रोस्टर के जरिये विश्वविद्यालयों में शिक्षक भर्ती सहित तमाम क्षेत्रों में सवर्णों को पहला अवसर प्रदान करने सहित 10 लाख आदिवासी परिवारों को जंगल से खदेड़ने जैसा अमानवीय निर्णय ले लिया गया. इससे विषमता का नयी ऊंचाई छूना तय है. बहरहाल जिस तरह मोदी के स्लॉग ओवर में सवर्ण आरक्षण और 13 प्वाइंट रोस्टर के साथ दस लाख आदिवासी परिवारों को जंगल से खदेड़ने का दु:साहसिक फैसला लिया गया है, उससे तय है कि यदि सत्ता में उनकी दुबारा वापसी होती है, तो वे सवर्णपरस्ती के हाथों मजबूर होकर इस देश के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हित में ऐसे-ऐसे फैसले लेना शुरू करेंगे, जिसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक विषमता उस बिंदु पर पंहुच जाएगी, जहाँ से लोकतंत्र के ढांचे का विस्फोटित होना महज कुछ अन्तराल का विषय रह जायेगा.

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