नई दिल्ली। एससी-एसटी समाज को मिले हकों के विरोध में देश का सवर्ण तबका काफी मुखर रहा है. बात चाहे आरक्षण की हो या फिर अन्य बातों की, वंचित तबका हमेशा सवर्णों के निशाने पर रहा है. वंचित तबके का तर्क होता है कि वो देश का मूलनिवासी है और सवर्ण समाज ने तमाम साजिशों और छल-कपट के जरिए उसे उसी के देश में तमाम हकों से वंचित कर दिया है. सवर्ण हिन्दू समाज को हमेशा देश के बाहर से भारत आने की बात कही जाती है. यह बहस काफी पुरानी है.
हाल ही में हरियाणा के राखीगढ़ी में मिले 4500 साल पुराने कंकाल के ‘पेट्रस बोन’ जिसमें कई गुणा ज्यादा डीएनए मिलते हैं के अवशेषों के अध्ययन के परिणामों ने एक नई बहस छेड़ दी है. देश की प्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे के संवाददाता काय फ्रीजे ने इस मुद्दे का विश्लेषण किया है, जिसे इस प्रतिष्ठित पत्रिका ने कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक राखीगढ़ी में मिले कंकाल का डीएनडी यह बताता है कि वह देश के द्रविड़ों के ज्यादा करीब हैं.
राखीगढ़ी के इस नए शोध से चौंकाने वाला खुलासा हो सकता है. दरअसल राखीगढ़ी पिछले डेढ़ दशक से हड़प्पायुगीन/सिंधु घाटी के भारत के सबसे बड़े क्षेत्र के रूप में पाठ्य पुस्तकों, पर्यटन के पर्चों और मीडिया में छाया रहा है. 2014 से तो इसे बाकायदा पाकिस्तान के सिंध स्थित पुरातात्विक स्थल ‘मोएनजो-दड़ों’ से भी बड़ा बताया जा रहा है, जिसकी पहली बार 1920 के दशक में खुदाई हुई थी. राखीगढ़ी में जो कंकाल सामने आय़ा है उसे ‘आई4411’ का नाम दिया गया है. इस साइट से प्राप्त डीएनए में आनुवंशिक मार्कर ‘आर1ए1’ का कोई संकेत नहीं पाया गया है. यह काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ‘आर1ए1’ को ही आर्य जीन कहा जाता है.
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शोध यह बताते हैं कि उत्तर-पश्चिम से आए आर्य आक्रमणकारियों ने हड़प्पा सभ्यता को पूरी तरह नष्ट कर के हिन्दू भारत की नींव रखी. हालांकि बाद में इस सिद्धांत को खारिज करने की कोशिश की गई क्योंकि आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत हिन्दुत्व के पैरोकार राष्ट्रवादियों को चुभता है. जबकि एक सच यह भी है कि सिंधु घाटी सभ्यता पहले से ही अस्तित्व में थी और यह पशुपालकों, घोड़े और रथ की सवारी करने वाले, कुल्हाड़ी एवं अन्य हथियारों से लैस, प्रोट-संस्कृतभाषी प्रवासियों, जिनके वंश आज उत्तर भारतीय समुदायों की उच्च जातियों में सबसे स्पष्ट रूप से दिखते हैं, से एकदम भिन्न थी. बाल गंगाधर तिलक ने भी माना था कि आर्य भारत में ईसा पूर्व 8000 में आर्कटिक से आए.
दूसरी ओर हड़प्पा सभ्यता को लेकर इस तरह के शोध को केंद्र सरकार के हिन्दुत्व के एजेंडे से टकराना पर सकता है, जिसकी राजनीति वैदिक हिन्दू धर्म को भारतीय सभ्यता की उत्पत्ति बताए जाने की मांग करती है. वैज्ञानिक साक्ष्य के हिन्दुत्ववादी भावनाओं के आड़े आने के बाद कई तरह के आक्षेपों और पत्रकारिता के जरिए भ्रम फैलाने की कोशिशें हो रही थी ताकि मूल बातें दबाई जा सकें. 2014 में भाजपा के बहुमत वाली सरकार आने के बाद से हिन्दुत्ववादी इतिहास के आत्म-मुग्ध आग्रहों को नई ऊर्जा और फंड, दोनों प्राप्त हुए हैं. भारतीय इतिहास को फिर से लिखने के प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने के अभियान की कमान केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने संभाली है.
इसी साल मार्च में रॉयटर ने जनवरी 2017 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक के कार्यालय में शर्मा द्वारा आयोजित‘इतिहास समिति’ की एक बैठक के विवरण का खुलासा करती एक रिपोर्ट दी. समिति के अध्यक्ष के.एन. दीक्षित के अनुसार इसे एक ऐसी रिपोर्ट पेश करने का काम सौंपा गया, जिसके आधार पर सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर से लिखने में मदद मिल सके. बैठक के विवरणों में दर्ज हुआ, “समिति लक्ष्य निर्धारित करती है- पुरातात्विक खोजों और डीएनए जैसे प्रमाणों का उपयोग करते हुए यह साबित करना कि आज के हिन्दू ही हजारों साल पहले इस भूमि से सीधे अवतीर्ण हुए और वे ही इसके मूल निवासी हैं. और इसमें यह भी स्थापित करना है कि प्राचीन हिन्दू ग्रंथ तथ्य आधारित हैं, कोई मिथक नहीं.”
रॉयटर की यह रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुत्व के पैरोकार खुद को देश का मूल निवासी साबित करने के लिए किस तरह छटपटा रहे हैं. और इसके लिए वह वैज्ञानिक तथ्यों को भी दरकिनार कर देने के लिए तैयार हैं.
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