गांधी और अम्बेडकर के संबंधों पर अक्सर बहस होती रहती है. दोनों के बीच मतभेद को लेकर भी चर्चा आज भी जारी है. सवाल है कि आखिर डॉ. आम्बेडकर का गांधी से विरोध क्यों था, और तमाम मुद्दों पर डॉ. आम्बेडकर गांधी को किस तरह देखते थे. साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर द्वारा बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी. आगामी 2 अक्टूबर को मोहनदास करमचंद गांधी की 150वीं जयंती है. इस मौके पर उस इंटरव्यू में बाबासाहेब द्वारा कही गई बातों को देखना ज्यादा मौजू है.
गांधी से पहली मुलाकात पर
मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था, एक मित्र के माध्यम से, एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे ख़त लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं, इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.
पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा. लिहाज़ा मैं उनसे मिलने के लिए गया. वो जेल में थे. … मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं,क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी. मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था.
आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था. लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं.
गांधी का चरित्र दोहरा था
वो हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे. उन्होंने युवा भारत के सामने दो अख़बार निकाले. पहला ‘हरिजन’ अंग्रेज़ी में, और गुजरात में उन्होंने एक और अख़बार निकाला जिसे आप ‘दीनबंधु’ या इसी प्रकार का कुछ कहते हैं. यदि आप इन दोनों अख़बारों को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे कि गांधी ने किस प्रकार लोगों को धोखा दिया.
अंग्रेज़ी समाचार पत्र में उन्होंने ख़ुद को जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता का विरोधी और लोकतांत्रिक बताया. लेकिन अगर आप गुजराती पत्रिका को पढ़ते हैं तो आप उन्हें अधिक रूढ़िवादी व्यक्ति के रूप में देखेंगे. वो जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम धर्म या सभी रूढ़िवादी सिद्धांतों के समर्थक थे,जिन्होंने भारत को हर काल में नीचे रखा है.
दरअसल किसी को गांधी के ‘हरिजन’ में दिए गए बयान और गुजराती अख़बार में दिए उनके बयानों का तुलनात्मक अध्ययन करके उनकी जीवनी लिखनी चाहिए. उनकी जितनी भी जीवनियां लिखी गई हैं, वो उनके ‘हरिजन’ और ‘युवा भारत’ पर आधारित हैं, और गांधी के गुजराती लेखन के आधार पर नहीं.
गांधी रूढ़िवादी हिन्दू थे
वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे. वो कभी एक सुधारक नहीं थे. उनकी ऐसी कोई सोच नहीं थी, वो अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें. ये एक बात थी. दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें. मुझे नहीं लगता कि इससे अधिक उन्होंने अस्पृश्यों के उत्थान के बारे में कुछ सोचा.
पूना पैक्ट पर
ब्रिटिश सरकार ने मैकडोनल्ड के दिए मूल प्रस्ताव में मेरा सुझाव मान लिया था. मैंने कहा था कि हम एक समान निर्वाचित प्रतिनिधि चाहते हैं,ताकि हिन्दुओं और अनुसूचित जातियों के बीच एक रेखा बनी रहे. मुझे लगता था कि अगर आप एक समान निर्वाचन प्रतिनिधि उपलब्ध कराते हैं तो हम समाहित हो जाएंगे और अनुसूचित जाति के नामित वास्तव में हिन्दुओं के ग़ुलाम बन जाएंगे, आज़ाद नहीं रहेंगे. अब मैंने रामसे मैकडोनल्ड से कहा कि वो इसी विषय को आगे बढ़ाना चाहते हैं, हमें अलग निर्वाचन प्रतिनिधि और आम चुनाव में अलग मत दें. ताकि गांधी ये नहीं कह सकें कि हम चुनाव के मामले में अलग हैं. पहले मेरी सोच यही थी, कि पहले पांच वर्ष हम हिन्दुओं से अलग रहें, जिसमें कोई व्यवहार,कोई संवाद न हो. ये सामाजिक और आध्यात्मिक क़दम होता….
… हम एक समान निर्वाचन के ज़रिये दोनों गुटों को एक मंच पर लाकर इस खाई को भरना चाहते हैं. लेकिन गांधी का विरोध इस बात पर था कि हमें आज़ादी के साथ प्रतिनिधित्व न मिले. लिहाज़ा उन्होंने खुलकर विरोध किया कि हमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए. गोलमेज़ सम्मेलन में उनका यही रुख़ था. उन्होंने कहा कि वो सिर्फ़ हिन्दू, मुस्लिम और सिख समुदाय को जानते हैं. संविधान में सिर्फ़ इन्हीं तीन समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए.
इस विषय पर उनके दोस्तों ने ही उनका विरोध किया. अगर सिख और मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से हज़ारों गुना बेहतर स्थिति में हैं, तो अनुसूचित जाति और ईसाइयों को कैसे छोड़ा जा सकता है?
गांधी का दलितों के प्रति रुख पर
उन्हें अनुसूचित जाति को लेकर भारी डर था कि वो सिख और मुस्लिम की तरह आज़ाद निकाय बन जाएंगे और हिन्दुओं को इन तीन समुदायों के समूह से लड़ना पड़ेगा. ये उनके दिमाग़ में था और वो हिन्दुओं को दोस्तों के बिना छोड़ना नहीं चाहते थे.
गांधी महात्मा थे या राजनीतिज्ञ
उन्होंने राजनीतिज्ञ की तरह काम किया. वो कभी महात्मा नहीं थे. मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं. मैंने अपनी ज़िंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा. वो इस पद के लायक़ कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज़ से भी.
अशोक दास
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