पूरे विश्व में ‘बुध्द’’ ही ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने कहा था कि मेरी पूजा मत करना, ना ही मुझसे कोई उम्मीद लगा के रखना कि मैं कोई चमत्कार करूंगा…….. दु:ख तुमने पैदा किया है और उसको दूर भी तुम्हें ही करना पड़ेगा. मै सिर्फ मार्ग बता सकता हूँ क्योंकि मै जिस मार्ग पर चला हूँ उस रास्ते पर तुम्हे स्वयं ही चलना पडेगा. मैं कोई मुक्तिदाता नही, मैं केवल और केवल मार्गदाता हूँ.
मुझे लगता है कि बुद्ध का यही एक ऐसा विचार रहा होगा जिसने बाबा साहेब को बुद्ध धम्म के अलावा कोई अन्य धम्म अपनी ओर नहीं खींच पाया क्योंकि बाबा साहेब ने भी अपने अंतिम दिनों में ऐसा ही कुछ कहा था कि कोई भी मुझे पूजने की वस्तु न बनाए, अन्यथा इसमें उसका ही अहित होगा. बताते चलें कि 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था. इसका खास कारण था कि वे तथाकथित देवताओं के जंजाल को तोड़कर एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जो धार्मिक तो हो किंतु ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने.
उन्होंने ये भी कहा था कि कोई भी किसी बात को महज इसलिए न माने कि वो किसी किताब में लिखी है या फिर किसी अमुक व्यक्ति के द्वारा कही गई है. इसलिए भी नहीं कि वो मैंने कही है… उस बात की सत्यता या तर्क को अपने स्तर पर भी परख लेने की जरूरत है. बाबा साहेब आंबेडकर ने यह बात 1950 में ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में कहा था कि यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से धर्म की अधिक जरूरत है. उनकी यह तमाम कोशिशें शोषण के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दासत्व के प्रकट-अप्रकट कारणों को समाप्त करने की दिशा में एक ठोस प्रयास था.
अक्सर यह भी पढ़ने को मिलता है कि बाबा साहेब अंबेडकर के द्वारा बौद्ध धम्म को एक उचित धम्म मानने के पीछे बुद्ध की विचारधारा में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता थी. बाबा साहेब अपने एक प्रसिद्द लेख ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’ में लिखते हैं कि भिक्षु संघ का संविधान एक लोकतांत्रिक संविधान था. स्वयं बुद्ध केवल भिक्षुकों में से एक भिक्षु ही थे. वह तानाशाह कभी नहीं रहे. कहा जाता है कि उनकी मृत्यु से पहले उनसे दो बार कहा गया कि वह संघ पर अपना नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें. लेकिन हर बार उन्होंने तानाशाह बनने और संघ का प्रमुख नियुक्त करने से इंकार कर दिया. कहा भिक्षु संघ ही प्रमुख है.
आज जिस विषय पर मै विचारने का प्रयास कर रहा हूँ, वह सीधे तौर पर हमारे रहन-सहन, हमारी संस्कृति और आज के गतिशील जीवन के मूल्यों से सम्बंधित विषय है. कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को आत्मसात न कर पाने के कारण आज भी हम अनेक परम्परागत विचारों और शैलियों से उभर नहीं पाए हैं. रुढिवादिता आज भी हमारे जहन में डर बनाए हुए है. इसका कारण मुझे तो केवल और केवल यह लगता है कि हम बुद्ध और बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुयाई होने का दावा तो करते हैं किंतु उनके आदर्शो को हम स्वीकार करने में अभी लगभग दूर ही हैं. यह बात अलग है कि तथाकाथित अम्बेडकरवादियों की एक लम्बी कतार मंचों से बड़ी-बड़ी बात करती है लेकिन आचार-व्यवहार में जहाँ की तहाँ है. यह जानते हुए भी कि कि परम्पराएं हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि विकास के लिए न केवल बाधक हैं अपितु कष्टकारी भी हैं, हम इन को छोड़ कर हम अपने जीवन मूल्यों को बचा सकने का प्रयास क्यों नहीं करते? यही आज का मूल प्रश्न है. कमाल की बात तो ये है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को हिन्दूवादी शक्तियां अपनी ओर ठीक वैसे ही उन्होंने मुसलमान सांई बाबा को अपनी ओर खींचकर कमाऊ देवता की भूमिका में अंगीकार कर लिया. अब वो शक्तियां बाबा साहेब को अपने पाले में खींचकर राजसत्ता के शिखर को चूमने के प्रयास में जुटी हैं. और हम नाहक ही उछ्ल-कूद रहे हैं बुद्ध और बाबा साहेब के नाम पर.
ऊपरी तौर पर आज हम नित्यप्रति होने वाले अनेक आयोजन बुद्ध रीति अथवा बाबा साहेब अम्बेडकर विचारों के अनुरूप और उनको साक्षी मानकर सम्पन्न करते हैं किंतु कार्यविधि में कोई अन्तर देखने को नहीं मिलता. हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों की छाया ही हर कार्यक्रम में देखने को मिलती है. तथागत बुद्ध और बाबा साहेब की पूजा ठीक उसी प्रकार की जाती है जैसे हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की जाती है. यह गर्व की बात मानी जा सकती है कि आज शहरों के मुकाबले गावों में बुद्ध और बाबा साहेब की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं किंतु ये नवनिर्मित बुद्ध विहार अथवा अम्बेडकर भवन पूजा-पाठ के हिसाब से परम्परागत हिन्दू मन्दिरों का रूप ही लेते जा रहे हैं…. यह दुख की बात ही नहीं अपितु समाजिक विकास के लिए अति घातक है. ऐसे कर्मकाण्डों से बचने के लिए हमें पहले अपनी औरतों को वैचारिक और मानसिक रूप से शिक्षित करके उनके मन से तथाकथित भगवान के डर से मुक्त करने की जरूरत है. आज हमें बुद्ध जैसे भिक्षु की ही जरूरत है न कि बुद्ध और अम्बेडकर के नाम पर माला जपने वाले झुंडों की.
बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के दौर में अम्बेडवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में. अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं और फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तबदील हो जाते हैं. ….जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबा साहेब के. ये तो बस बाबा साहेब का लाकेट पहनकर अपने-अपने हितों को साथने के लिए वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के हितों साधने का साधन बनकर कुछ चन्द चुपड़ी रोटियां पाने का काम ही करते हैं. मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ, इस सच्चाई का सबको पता है किंतु इनमें से अधिकतर लोग वो हैं जो अम्बेडकर विरोधी दलों की गुलामी कर रहे दलितों नेताओं के चमचों में शामिल हैं. गए वर्षों में भाजपा नीत सरकार के दौर में दलितों के खिलाफ न जाने कितने ही निर्णय हुए… वो अलग बात है कि बाद में सरकार ने दलितों की नाक काटकर अपने ही रुमाल से पौंछने का काम किया. एक जानेमाने तथाकथित दलित नेता ने तो अपने बेटे को ही मैदान में उतारकर 02.04.2018 के दलित/ अल्पसंख्यक/ पिछड़ा वर्ग के द्वारा आयोजित सामुहिक बन्द में उतार कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का काम किया. भाजपा में शामिल दलित नेता ही नहीं, कांग्रेस में शामिल दलित नेता भी ऐसी दलित विरोधी गतिविधियों पर सवाल करने से हमेशा कतराते रहे हैं. और तो और ये दलित नेता अपने आकाओं के क्रियाकलाप की समीक्षा न करके दलित राजनीति के सच्चे पैरोकारों के पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं. बाबा साहेब का ये कहना कि मुझे गैरों से ज्यादा अपने वर्ग के ही पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, ऐसे में यह सही ही लगता है.
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Good analysis of current movement