फादर स्टेन स्वामी की मौत और निरंकुश होती सत्ता पर उठते सवाल

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जीवन भर आदिवासियों के हक के लिए संघर्ष करने वाले फादर स्टेन स्वामी नहीं रहें। 84 साल की उम्र में उन्होंने बतौर कैदी अस्पताल में आखिरी सांस ली। वह पिछले एक महीने से कोरोना से जूझ रहे थे और जब उनकी मृत्यु हुई वो न्यायिक हिरासत में थे। फादर स्टेन स्वामी उन तकरीबन दर्जन भर लोगों में से एक थे, जिन्हें भीमा कोरेगांव मामले में संदिग्ध मानते हुए गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने अपनी उम्र और खराब तबियत का हवाला देते हुए बेल मांगा था लेकिन अदालत ने उन्हें बेल देने से साफ इंकार कर दिया था। स्टेन स्वामी पर सरकार की ओर से आतंकवादी होने का आरोप था जिसे साबित करने में सरकार नाकाम रहीं। भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में उन पर हिंसा भड़काने का आरोप था और पिछले साथ उन्हें रांची से गिरफ्तार किया गया था, तब से वो हिरासत में थे। सोमवार दोपहर 1.30 बजे उन्हें मृत घोषित किया।

 स्टेन स्वामी की मौत के बाद तमाम लोगों ने सिस्टम पर सवाल उठाया है। इसमें सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सहित राजनीतिक दल के बड़े नेता तक शामिल हैं।

स्टेन स्वामी की मौत पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने संवेदना जताते हुए ट्वीट किया कि “वे न्याय और मानवता के हक़दार थे।”

स्टेन स्वामी ने जिस झारखंड राज्य में अपने जीवन के तीन दशक से ज्यादा का समय बिताया वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेने ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाया है, उन्होंने लिखा है-

फादर स्टेन स्वामी के निधन के बारे में जानकर स्तब्ध हूं। उन्होंने अपना जीवन आदिवासी अधिकारों के लिए काम करते हुए समर्पित कर दिया। मैंने उनकी गिरफ्तारी और कैद का कड़ा विरोध किया था। केंद्र सरकार को पूर्ण उदासीनता और समय पर चिकित्सा सेवाओं का प्रावधान न करने के लिए जवाबदेह होना चाहिए, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा है- स्टेन स्वामी नहीं रहे! लेकिन यह उनकी स्वाभाविक मौत नहीं, एक तरह की ‘हत्या’ है, सिस्टम के हाथों हत्या ! 84 साल के आदमी को महामारी के दौर में किसी सबूत के बगैर लगातार जेल में रखना कितना बड़ा गुनाह है! देश अब ऐसे व्यवस्थागत-गुनाहो का ख़तरनाक द्वीप बनता जा रहा है! सलाम-श्रद्धांजलि

तो वहीं वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने तो अपने ट्विट में गुस्से का इजहार किया है। दिलीप मंडल ने लिखा है- भीमा कोरेगांव में हिंसा करने वाला आतंकवादी मनोहर कुलकर्णी भिड़े बाहर घूम रहा है और सरकार इस केस में झारखंड में आदिवासियों के लिए आंदोलन करने वाले बुजुर्ग स्टैन स्वामी को पकड़ लाती है। सही इलाज न मिल पाने के कारण बीमार स्टैन स्वामी मारे जाते हैं। उन पर आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ। सरकार और न्यायपालिका ने 84 साल के बुड्ढे बीमार, चलने-फिरने से लाचार, आदिवासी अधिकारों के समर्थक स्टैन स्वामी को बिना दोष सिद्ध हुए जेल में सड़ाकर मार डाला।लानत है।

तो वहीं राष्ट्रीय जनता दल ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हेंडल से लिखा है- देश के तानाशाह को फादर स्टैन स्वामी की ‘हत्या’ की मुबारकबाद!

योगेन्द्र यादव ने इसे NIA, NHRC, बीजेपी और न्यायपालिका द्वारा एक निर्मम हत्या करार दिया है। उनका कहना है कि- स्टेन स्वामी को बाद में जो भी सुविधा मिली, वह बहुत कम थी,  और बहुत देर हो चुकी थी। इस तरह इस देश के सबसे बेघर लोगों के लिए लड़ने वाले मानवतावादी की हत्या कर दी गई है।

निश्चित तौर पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस स्टेन स्वामी ने अपने पूरे जीवन में गरीबों-आदिवासियों की सेवा की और मानव अधिकारों की आवाज बने, उन्हें आखिरी वक्त में भी न्याय एवं मानव अधिकारों से वंचित रखा गया।

स्टेन स्वामी तामिलनाडु के रहने वाले थे। साल 1991 में वह झारखंड आ गए, जहां वह अपने आखिरी सांस तक आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करते रहें। नक्सली होने के आरोप के साथ जेलों में सड़ रहे 3000 महिलाओं और पुरुषों की रिहाई के लिए वो हाई कोर्ट गए। वो आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी देने के लिए दूरदराज़ के इलाक़ों में गए। लेकिन जब उन्हें लोगों के समर्थन की जरूरत थी, उनके समर्थन में कोई बहुत बड़ा आंदोलन नहीं हो पाया। जो आंदोलन हुए भी तो मीडिया ने विरोध के उन आवाजों को अनसुना कर दिया। जिससे सरकार को उन आवाजों को दबाना आसान हो गया।

फादर स्टेन स्वामी की मौत कहें या हत्या कहें, उसके बाद सवाल उठाया जा रहा है कि हिरासत में हुई मौत की जिम्मेदारी तय हो।

जी हां, लोग मौत की जिम्मेदारी तय करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन जिम्मेदारी किस पर तय होगी? उन पुलिस अधिकारियों पर जिन्होंने स्वामी को गिरफ्तार किया, उस सरकार पर, जिसने उन पर सिर्फ शक के आधार पर बिना सबूत गंभीर धाराएं लगाने की अनुमति दी, या उस न्यायपालिका पर, जिसने उन्हें बेल देने तक से इंकार कर दिया। या जिम्मेदारी उन पर तय हो, जिन्होंने स्टेन स्वामी और उन जैसे दर्जनों सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल के भीतर जबरन बिना किसी ठोस आपराधिक सबूतों के ठूंस देने के बावजूद कहीं कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया। चुप्पी साध ली, या सत्ता के डर से चुप बैठे रहें। स्टेन स्वामी की मौत की जितनी जिम्मेदार भारत का यह सिस्टम है, भारत के लोग उससे कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो ऐसे अत्याचारों के खिलाफ आवाज तक उठाने से डर रहे हैं। बेजुबान देशवासियों को यह गुलामी मुबारक हो।

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