पिछले महीने आई एक खबर ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा. ये खबर थी एक आदिवासी दाना माझी की. वीडियो में अपनी पत्नी की लाश ढोता हुआ दाना मांझी अचानक से ही पूरे देश का सबसे अभागा और चर्चित व्यक्ति बन गया. नींद से जागी हुई मीडिया को अचानक ही ये महसूस हुआ की आदिवासी भी इस देश के नागरिक हैं और उनके दुख और तकलीफें भी “प्राइम टाइम” में जगह पाने की हकदार हैं.
फिर क्या था? जोश से लबरेज मीडिया ने दाना मांझी के बहाने सिस्टम की खूब खटिया खड़ी की. बुद्धिजीवियों के हुजूम को मानो नवजीवन मिल गया. कोई सिस्टम को गालियां दे रहा था तो कोई दाना माझी के भाग्य को कोस रहा था. सारे चैनलों में खुद को सबसे ज्यादा संवेदनशील दिखाने की होड़ सी मच गयी. हर बुद्धिजीवी अपनी जंग खाती बौद्धिक क्षमता का परिचय देने पर तुला हुआ था. मैने भी मीडिया में आयी इस नवचेतना का “देर आयद दुरुस्त आयद” वाले अंदाज में दिल खोल के स्वागत किया. समय बीतता जा रहा था और चैनलों पे आदिवासी विमर्श अपने चरम पे पहुंच गया. लेकिन इस सारे शोर में चैनल्स ने असल मुद्दे को छुआ तक नहीं. क्या किसी ने ये सोचने का कष्ट किया की आदिवासियों की और क्या-क्या समस्याएं हैं?
किसी चैनल वाले ने ये सोचा की उन्हें आदिवासियों और उनसे जुड़े हुए मुद्दों की याद कभी-कभी ही क्यों आती है? सच तो ये है मीडिया जैसे सशक्त माध्यम पे कब्ज़ा उन लोगों का है जो इन मूलनिवासियों और इनसे जुड़े हुए मुद्दों को तब तक खबर मानता ही नहीं जब तक की ये घनघोर टीआरपी वाली ना हों. इनके महंगे कपडों और मेकअप से लबरेज संवाददाता जंगलों का रुख तब तक नहीं करते जब तक वहां कोई नक्सली घटना ना हो जाये. बाकी बची हुए मीडिया वालों के लिये ये असभ्य और जंगली हैं जिनका कुछ नहीं हो सकता. जब तक मीडिया पर ऐसे लोगों का कब्ज़ा है तब तक वंचित तबके की ख़बर का सच में ख़बर बन पाना लगभग असम्भव है.
वैसे भी आज-कल मीडिया पर “राष्ट्रवाद” का बुखार चढ़ा है. ऐसे में किसी और मुद्दे के बारे में सोचना भी “देशद्रोह” के समान है. मीडिया का बाकी बचा टाईम मोदी, क्रिकेट, अंधविश्वास, और सिनेमा के लिये रिजर्व है. अब इन जरूरी मुद्दों के आगे आदिवासियों को कौन पूछे? वैसे हम और आप चाहें तो हज़ारों दाना माझी ढूंढ सकते है जो अपने मेहनती कंधों पर अपनी उम्मीदों की लाश ढोते हुए आसानी से मिल जायेंगे. बस उनके नाम और शक्लें अलग होंगी.

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