– सुमित वर्मा
कोरोना संक्रमण (COVID-19) के कारण लॉकडाउन देश और राज्यों में सबसे ज्यादा परेशानी में आदिवासी समुदाय के लोग हैं. इनमें से ज्यादातर कभी खेतों में तो कभी शहरों में मजदूरी करते हुए जीवनयापन करने वाले हैं. इनके पास न तो खेती वाली बड़ी जमीनें हैं और न ही रोजगार का कोई दूसरा साधन. इनमें से जो अभी भी शहरों में फंसे हैं, उनके सामने दो जून की रोटी का सवाल है और जो अपने गांव घर तक लौट आए हैं, उनमें से ज्यादातर के सामने भी रोजी-रोटी का संकट है. गांवों में, जंगलों में, अपने डेरों, कस्बों, ढानों, मजरे और टोलों में रहने वाले ये लोग इन दिनों भारी मुसीबत में जी रहे हैं. उनका वर्तमान तो जैसे-तैसे कट रहा है, लेकिन आने वाले बारिश के मौसम में और उसके साथ आर्थिक मंदी के दौर में उनका गुजर-बसर कैसे होगा? सरकारी मदद उन तक कब और कितनी पहुंचेगी और तब तक उनकी स्थिति-परिस्थितियां कैसी हो चुकी होंगी, इस पर विचार जरूरी है.
संक्रमण, कोरोना, लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंस और क्वारंटाइन जैसी चीजों से बेखबर रहा आदिवासी समुदाय अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति तक नहीं कर पा रहा. आम दिनचर्या में लगने वाली चीजों के लिए साप्ताहिक बाजार, शहरों से आने वाले छोटे व्यवसायियों पर निर्भर रहने वाले जनजाति समुदाय के लोगों तक सरकारी मदद-राहत उतनी मात्रा में नहीं पहुंच पा रही है, जितना उसका प्रचार-प्रसार हो रहा है. कई राज्यों में राहत सामग्री घोटाला आदि भी जल्द सामने आ जाए, तो हैरानी नहीं होगी. यह तो भला हो कि समय, रबी की फसल का है. गेहूं की कटाई में लगे कुछ मजदूरों को काम मिल गया है तो कुछ इस मौसम ने आम, महुआ जैसे फल आदिवासियों को दे दिए हैं. चिंता है कि आने वाले बारिश के दिनों में जब आदिवासी को कहीं काम नहीं मिल सकेगा तब संकटमोचन कौन होगा?
सरकारी मदद, ऊंट के मुंह में जीरा
बात करें, भारत के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश की तो यहां, सरकार गिराने और बनाने के खेल ने आदिवासियों को हमेशा ही हाशिए पर रखा है. एक-दो नामों को छोड़ दें तो यह वर्ग हमेशा से सही नेतृत्व से वंचित बना हुआ है. चुनावों के दौरान राजनीतिक दल तमाम लुभावने वादे करते हैं, लेकिन सरकार बन जाने के बाद न तो पक्ष और न ही विपक्ष आदिवासियों की ओर ध्यान देता है. आदिवासियों के मुद्दे आज भी वैसे ही चिंताजनक हैं, जैसे दशकों पहले हुआ करते थे. कोरोना वायरस के कारण उपजी बीमारी के इस दौर में भी आदिवासी लाचार, मजबूर और तंगहाली में जी रहे हैं. एक खबर की बानगी देखिए, मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले बैतूल के चिचोली विकासखंड के सुदूर आदिवासी अंचल टोकरा के ग्राम मालीखेड़ा में जब आदिवासियों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा, तो उन्होंने राशन के लिए गुहार लगाई. बमुश्किल उन तक कुछ सरकारी राशन पहुंचा. फोटो खिंचवाने और राशन देने की रस्मों के बाद वे अपने पेट की आग बुझा पाए. हालात फिर वही पुराने जैसे हैं. कमोबेश ऐसा ही हाल सभी आदिवासी क्षेत्रों का है. कुछ जगह वन विभाग, पुलिस विभाग या पंचायत विभाग के माध्यम से आदिवासियों तक राशन पहुंचाया जा रहा है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा जितना ही है. सरकारी अमला भी अपनी तासीर नहीं छोड़ रहा तो आदिवासियों की बसाहटें भी दुर्गम स्थानों पर हैं, जहां पहुंच पाना कुछ कठिन होता है.
सरकार की प्राथमिकता में नहीं
छत्तीसगढ़ में आदिवासी दो पाटों के बीच पिस रहे हैं. सरकारी दुश्वारियां और नक्सलियों के बीच आदिवासी अपने घर, अपने कस्बों और अपनी ही धरती पर लाचार हैं. कोरोना महामारी के इस दौर में कहीं आदिवासियों तक सरकारी मदद-राहत और जानकारियां नहीं पहुंच पाती हैं, तो कहीं सरकारी नियम कानून उनके लिए दुविधा बन जाते हैं. नक्सलियों के डर की आड़ में अधिकारी-कर्मचारी भी गांव-गांव तक जाने से बचते हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो आदिवासी और उनकी समस्याएं कभी, किसी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहीं. शहरों, कार्यकर्ताओं, पार्टी, स्वजनों और खुद के विकास में उलझे नेता-अफसरों ने कभी आदिवासियों की दिक्कतों को समझने तक की जहमत नहीं की. इन दिनों सीमावर्ती आंध्र प्रदेश के इलाकों में मिर्ची तुड़ाई के लिए गए आदिवासियों को वापस अपने गांव आने के लिए कोई साधन नहीं मिला. ये उनकी जीवटता थी कि बीच जंगल वाले रास्ते से कई किलोमीटर पैदल चलते हुए वे अपने गांव पहुंचे. ऐसा देखा जाए तो राजधानी रायपुर से करीब 500 किमी दूर बसे इन आदिवासियों ने बिना उफ किए पहले अपना चेकअप कराया और उसके बाद ही अपने घरों में दाखिल हुए. चेकअप के दौरान भी सोशल डिस्टेंसिंग और सुरक्षा के लिए गमछे का उपयोग किया.
प्रकृति ही सहारा
आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मनीष भट्ट बताते हैं कि कोरोना के इस दौर में तो छोड़िए आम दिनों में भी हालात बदतर रहते हैं. सरकारें चाहें जितने दावे कर लें, कभी कोई योजना आदिवासियों तक सही मायनों में नहीं पहुंच पाती. बंदरबांट तो अभी भी चल रही है. लेकिन आदिवासियों की खाद्य समझ और प्रकृति से उनका सीधा संबंध ही इन दिनों बड़ा सहारा है. सबसे बड़ी बात है, जादुई फसल महुआ का मौसम होना, इसके सहारे कुछ दिन जरूर कट जाएंगे. कुछ गेहूं की कटाई से काम मिल जाएगा, लेकिन बारिश के दिनों में तो हालात बिगड़ेंगे ही. कुछ आदिवासियों ने अपने आंगन में सब्जी-भाजी आदि उगा रखी है, जिससे उनका काम चल रहा है. आदिवासी, सरकार या किसी से भी फ्री में कुछ नहीं लेते हैं, यह उनका स्वाभिमान है. यदि वे कुछ लेने भी आएंगे तो उसकी भरपाई के लिए कुछ न कुछ दे जाते हैं. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए सही मायनों में काफी कुछ करना बाकी है.
झारखंड, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र आदि राज्यों के आदिवासियों की हालत भी ऐसी ही है. राजस्थान में भी आदिवासी समाज को लॉकडाउन से जूझना पड़ रहा है. गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान से जुड़ा राजस्थान का बांसवाड़ा जिले में भी आदिवासियों को पेट भरने के लिए समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है. इन दिनों में प्रकृति से मिलने वाली साग-भाजियों से गुजारा चल रहा है. आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा के लिए उनका अपना सदियों पुराना प्रबंधन है. वे थोड़ी बहुत खेती, सब्जी-भाजी, जंगली जड़ी-बूटी, वनोपज, पशुपालन और उनके उत्पाद से गुजर बसर कर लेते हैं. लेकिन रोजगार की तलाश में गुजरात और मध्यप्रदेश जाने वाले आदिवासी मजदूरों के सामने आने वाले दिन चुनौती भरे होंगे.
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