मणिपुर मे इरोम की हार का किसे दुख नहीं होगा… लेकिन सिर्फ काम और बिना माहौल बनाए राजनीतिक सफलता किसी को नहीं मिलती. इरोम ने पार्टी बनायी किंतु कोई राजनीतिक माहौल बनाने में नाकामयाब रहीं. अनशन के दिनों में भी मणिपुर में उन्हें ले कर कोई उत्तेजना नहीं थी. खैर! इरोम की हार से यह तो समझा ही जा सकता है कि कोई भी सामाजिक आन्दोलन का पक्षधर केवल और केवल अपने काम और समाज के प्रति चिंता के बल पर राजानीतिक प्रहरी नहीं बन सकता. अगर ऐसा हो सकता तो इरोम को अफनी सीट पर अपार बहुमत मिलना चाहिए था. किंतु उनके मौन संघर्ष और वर्षों के अनशन की कद्र नहीं हुई.
इस बार बी.एस.पी. ही नहीं अपितु कांग्रेस और सपा गठबंधन भी कुछ खास नहीं कर पाया. कांग्रेस केवल 7 सीटों पर सिमट कर रह गई और बसपा केवल 19 सीटों पर. ना राहुल चैन से रहे और न ही प्रियंका को आराम करने दिया. उनका दलित-कार्ड भी बेकार गया. उनका यह अभियान न केवल चर्चा का विषय बनकर रह गया बल्कि उनकी छवि के विपरीत ही गया. बीजेपी ने अपने तमाम शीर्ष नेताओं के जरिए न केवल वायदों के खूब गोले दागे अपितु नोटबन्दी को अमीरों के खिलाफ की गई कार्यवाही बताकर, गरीबों के हक में की गई एक सघन लड़ाई की संज्ञा देकर, गरीबों को अपने हक करने में सफलता प्राप्त कर ली. गरीबों ने ये सोचने की कवायद ही नहीं की कि नोटबन्दी यदि अमीरों के खिलाफ उठाया गया कदम है तो गरीबों को इसका क्या लाभ मिलेगा? यहाँ मुझे अपना ही एक शेर याद आ रहा है…
देखकर वादों की मणिका मालिकों के हाथ में, भुखमरी की मांग में सिन्दुर सा भर जाता है.
दिनांक 12.03.2017 को फेसबुक पर डा. विवेक कुमार लिखते हैं, “.एक्सिस माई इंडिया द्वारा चुनाव उपरांत किए गए सर्वे के अनुसार 2017 में उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभाई चुनावों में 62% ब्राह्मणों, 64% बनियों, 62% ठाकुरों, 55% कायस्थों ने भाजपा को वोट दिया है. इतना ही नहीं, सर्वे में यह भी उल्लिखित किया गया कि 57% कुर्मियों, 63% लोधियों, 60% अन्य पिछड़ा वर्ग वालों तथा 32% गैर-जाटव दलितों और 9% जाटवों ने भी भाजपा को वोट किया. इस प्रकार भाजपा मुसलमानों को एक भी टिकट न देने के बाद भी सर्वजन समाज का इन्द्रधनुषी गठबंधन बनाने में कामयाब हो गई.” तो क्या यह कहना न होगा कि न केवल तथाकथित उच्च जातियां दलितों और पिछड़ों की राजनीति के खिलाफ एक षड्यंत्र के तहत लामबन्द हुईं अपितु दलितों और पिछड़ों के एक अच्छे खासे वर्ग ने भाजपा को वोट किया. जिसका कारण बीएसपी सुप्रीमो मायावती का दलितों में केवल जाटवों और मुसलमानों के वोटों तथा सपा से केवल यादवों और मुसलमानों के वोटों पर ही ध्यान केंद्रित किया गया. इस प्रकार ज़ाटवों के इतर अन्य दलित जातियां और यादवों के इतर अन्य पिछड़ी जातियां भाजपा की झोली में जा पड़ीं.
इतना ही नहीं, बीएसपी की हार क्या हुई कि कुछेक दलित चिंतकों का कहना है कि मायावती ने अपनी यह स्थिति अपने आप पैदा की है. मुसलमानों को सौ टिकट देकर एक तरह से उन्होंने भाजपा की झोली में ही सौ सीटें डाल दी थीं. रही-सही कसर उन्होंने चुनाव रैलियों में पूरी कर दी, जिनमें उनका सारा फोकस मुसलमानों को ही अपनी ओर मोड़ने में लगा रहा था. उन्होंने जनहित के किसी मुद्दे पर कभी कोई फोकस नहीं किया. कुछ ने ये भी कहा कि तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह आज तक जननेता नहीं बन सकीं. आज भी वह लिखा हुआ भाषण ही पढ़ती हैं. इस संबन्ध में जहाँ मुझे याद आता कि बाबा साहेब अम्बेडकर का कहना था कि जहां तक हो सके लिखित भाषण को ही प्राथमिकता देनी चाहिए. इन लोगों को ये जान लेना चाहिए. यह भी एक स्वभाविक तथ्य है कि जीत के साथ अपने और पराए सब साथ खड़े हो जाते हैं और हार के साथ गैरों की तो बात क्या अपने भी विरोध में खड़े हो जाते हैं. ऐसे लोगों को ये नहीं भूलना नहीं चाहिए कि उत्तर प्रदेश में 2017 के विधान सभा चुनावों में सरकार विरोधी मत ही नहीं अपितु दलित विरोधी मत ज्यादा पड़े.
खैर! जो भी हो, बी.एस.पी. के शासन काल में खासा काम हुआ, किंतु संकीर्ण विचारधारा के चलते गैर-दलितों ने तो उन कामों की अनदेखी की ही, परंतु बी.एस.पी. भी अपने कार्यकाल में जनता से लगभग दूर ही रही. हाँ! जनता के हक में प्रशासन पर खूब डंडे बरसाए. दौरे पर दौरे किए. प्रशासन को आराम की नींद नहीं सोने दिया. यह पक्ष भी बी.एस.पी. के पक्ष में नहीं गया. बी.एस.पी. की सरकार आने के बाद जाति-भेद के दंश को झेलने से परेशान दलितों में चेतना का भाव भी आया था.
यू.पी. में बी.एस.पी. की हार का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि इस बार सरकार विरोधी मत नहीं बल्कि दलित/पिछड़ों के विरोध में मत विभाजन हुआ. उदाहरण के तौर देखें तो पता चलता है कि बी.एस.पी. की हार केवल दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर ही नहीं हुई, अपितु मुसलमानों को आवंटित सीटों पर भी खासी पराजय का मुँह देखना पड़ा. मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पाले में चला गया. न केवल इतना बल्कि दलित समाज की अन्य उपजातियों का लगभग शत प्रतिशत वोट भी भाजपा को गया है.
2017 के चुनावों में, दलित वोटों का तो बिखराव हुआ ही… मुसलमानों और गैर द्लितों के वोट भी बी.एस.पी. के खाते में नहीं आए. गैरदलित उम्मीदवार भी हार गए. क्या यह किसी सोची-समझी साजिश का हिस्सा है? प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि आरक्षित सीटों पर समाज विरोधी दलितों ने अन्य दलों के जाल में फंसकर बी.एस.पी. के खिलाफ काम किया. इस बार दलित मतदाताओं की बी.एस.पी. के साथ प्रतिबद्धता देखने को नहीं मिली और बीएसपी को मिलने वाला दलित वोट टुकड़ा-टुकड़ा हो गया.
इस चुनाव में बी.एस.पी. को केवल 19 सीटें मिली हैं. यदि अन्य दलों के खातों में गए दलित-मत भी बी.एस.पी. को मिल जाते तो उनकी संख्या कम से कम 100 तक हो सकती थी. यदि गैर-दलितों के मत भी बसपा को मिल जाते तो यह आँकड़ा 100 से ऊपर भी जा सकता था. बी.एस.पी. के आलाकमान को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बी.एस.पी. का जमीनी कार्यकर्त्ता नेतागिरी करने में ज्यादा लगा रहा, काम करने में कम. यहां तक कि वोटरों के घरों तक वोटर-पर्चियां तक नहीं पहुंचा पाए. और न ही चुनावों से पूर्व अपने मतदाताओं से मिलने की कवायद ही की. नतीजा ये हुआ कि बी.एस.पी. के वोटरों का लगभग 10-12 प्रतिशत वोट ही नहीं डाल पाया. यहां तक कि ज्यादातर वोटरों को अपने पोलिंग बूथ का ही पता नहीं था. इलाकाई कार्यकर्त्ताओं से पूछने पर भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिला. मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यहां तक कि चुनाव की तारीख से दो दिन पहले तक उनमें से ज्यादातर के पास वोटर-लिस्ट भी उपलब्ध नहीं थी.
एक और भी दिक्कत है कि दलितों में शामिल कुछेक जातियां अपने आपको दलित मानने को ही तैयार नहीं हैं. संविधान के आर्टिकल 16.4 के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग भी दलितों में आता है. किंतु अफसोस कि वो अपने आप को ब्राह्मण ही मानने पर उतारू है जिसके चलते समूचे वंचित समाज का अनहित हो रहा है. मेरा मानना है कि यदि बी.एस.पी. और स.पा आपस में एक हो जाएं तो इनके हाथों में न केवल राज्यों की सता होगी अपितु केंद्रीय-सता भी इनके हाथों में ही होगी. पर इन्हें समझाए कौन? जरूरत है तो केवल निजित्व की भावना से उबरकर सामाजिक हितों की साधना हेतु काम करने की. गौरतलब है कि बीजेपी को इन चुनावों में लगभग 41.4 प्रतिशत वोट मिले हैं, बीएसपी को 22.2 प्रतिशत और सपा को 21.5 प्रतिशत मत मिले हैं. स्पष्ट है कि यदि बीएसपी और एसपी मिलकर चुनाव लड़ते तो उनका मत प्रतिशत लगभग 44 प्रतिशत होता. जो बीजेपी के मत प्रतिशत से अधिक होता. बीएसपी के लिए यह भी श्रेयकर होगा कि वो अपनी प्राथमिक संस्थाओं BAMCEF, BMM, BMP को साथ लेकर पुन: जनआंदोलन करें जिससे बीएसपी के साथ-साथ बहुजन समाज और लोकतंत्र दोनो की रक्षा को बल मिलेगा.
bsp ke prtyasi yeh nahi dekhte ki dalito ke voter list me nam he ya nahi city me sc bahuly bastiyo ke vote 20-30% tak or ganv me 10- 15% tak voter list me nam nahi hote he