Sunday, January 19, 2025
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दलित उत्पीड़न और सवर्ण जातियों की चुप्पी

– Written By- सुरेश कुमार
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सवर्णों की प्रताड़ना का बिंदु दलित समाज है। यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला समाज दलितों पर अन्याय और जुल्म करने के मामले में इतिहास के पन्ने काले से काले करते आया है। अभी पिछले दिनों आगरा के अछनेरा तहसील के रायभा गांव में जिस तरह से एक दलित महिला के शव को उच्च जाति के सवर्णों ने श्मशान में अंतिम संस्कार नहीं करने दिया, उस से पता चलता है कि देश में जातिवाद की जड़े कितनी गहरी और अंदर तक धंसी हुई है। इस तरह की घटनाओं और सवर्णों का जातिगत भेदभाव दलितों को मनुकाल में ले जाकर धकेल देता हैं। उच्च श्रेणी के सवर्णों द्वारा दलितों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि इस देश में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है। यहां तक दलितों लिये मरने के बाद दो गज जमीन उनकी नहीं है। कमाल की बात यह है कि संविधान और लोकतंत्रवादी व्यवस्था के भीतर भी सवर्णों का जातीय दंभ और उच्च श्रेणी की मानसिकता कमजोर होने के बजाय बलवती होती जा रही है।
दलितों को अपमानित करने वाली घटनायें समाज के सभी हलको में दिन प्रतिदिन घटती रहती है। अभी हाल में ही कानपुर देहात के मगतापुर गांव में दलित समाज के लोग सनातन कथा कराने के बजाय बौद्ध या भीम कथा करवा रहे थे। यह बात गांव के उच्च श्रेणी के लोगों को इतनी नगवार लगी कि उन्होंने पूरे गांव के दलितों की जमकर पिटाई कर दी थी। उच्च श्रेणी की मानसिकता और सामंती ठसक दलितों के संस्कृति क्षेत्र को भी नियंत्रण करने का उपक्रम करती आई है। बौद्ध कथा या बाबासाहब की कथा कराने से सवर्णों को लगता है की उनके वर्चस्व को चुनौती दी जा रही है। और, उनके नायकों और प्रतिमानों के समक्ष दलित अपने नायक या प्रमिमान क्यों स्थापित कर रहें है? दलित के नायक और प्रमिमान स्थापित न हो जाये इसलिए उनके संस्कृतिक क्षेत्र को नियंत्रित करने की कोशिस की जाती रही है। उच्च श्रेणी की मानसिकता और दंभ दलितों को मनुकाल की याद दिलाये रखने के लिये उनकों प्रताड़ित और अपमानित करने का उपक्रम करता रहता है।

बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि दलित की कोई मातृभूमि नहीं है। इस कथन के पीछे उनकी गहरी चिंता और पीड़ा महसूस की जा सकती है। बाबासाहब के कहने का अर्थ था कि इस देश में दलितों का कुछ नहीं है। यहां के सवर्ण दलितों को देश का नागरिक नहीं बल्कि गुलाम और अछूत के सिवा कुछ नहीं समझते है। दलित न तो सार्वजनिक संपत्ति का प्रयोग कर सकते थे, और न तो मन्दिर जा सकते, और न ही वे शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। बाबासाहब ने यह भले यह बात बीसवीं सदी के तीसरे दशक में कही हो लेकिन सच्चाई यह है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी सवर्णों की मानसिकता में ज्याद बदलाव नहीं हुआ है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ वैसा ही सलूक देखने को मिल रहा है जैसा उनके साथ मनुकाल में होता था। आज भी सवर्ण मानसिकता के लोग दलितों के साथ बड़ी क्रूरता और निर्ममता से पेश आते हैं।
यह कटु सच्चाई है कि दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार देखकर सवर्ण मानसिकता से भरे लोगों को खून खौल जाता है। सवर्णवादी संरचना दलितों को अछूत और बंधुवा गुलाम के तौर देखने की अभ्यस्त रही है। वर्णगत और सवर्णवादी व्यवस्था की ओर से तय की गयी परिभाषा पर जो दलित नहीं चलता है, उसको सवर्णों के द्वारा सबक सिखा दिया जाता है। दलितों के लिये इस से बड़ी त्रासदी और पीड़ा क्या हो सकती है कि वे जिस मिट्टी में पैदा हुये, जिसके लिये अपना खून पसीना एक कर दिया हो, और, मारने के बाद सवर्णों के द्वारा उनके शव को चिता से उठवा दिया जाये। डॉ. आंबेडकर की चिंता थीं कि हिन्दुओं के शासन में दलितों को प्रताड़ित और अपमानित किया जायेगा। आज बाबासाहब की बात शत प्रतिशत सही साबित हुई है। जहां जातिगत और वर्णगत व्यवस्था का ढांचा सवर्णों को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलवाता है, वहीं दलित और स्त्रियों को सम्मान और अधिकारों से वंचित करने का काम भी करता है। देखा जाय तो जातिगत संरचना दलितों और स्त्रियों के लिये मरण-व्यवस्था की तरह है। इसकी संरचना जहां दलितों के अधिकारों का दायरा सीमित कर देती है वहीं उच्च श्रेणी के हिंदुओं को विशेष अधिकारों का समर्थन करती है। वर्ण-व्यवस्था की संरचना दलितों को संसाधनों से भी वंचित कर देती है। संसाधनों से वंचित हो जाने पर दलित समाज की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की कमर टूट गई है। जमीन से लेकर संस्थाओं तक के सारे संसधानों पर सवर्णों का कब्जा है। दलित के पास जमा पूंजी के नाम पर भूख और सवर्णों की प्रताड़ना के सिवा और क्या है? भूमि विहीन दलित आखिर अपने मृत शरीर को कहां दफन करें। यदि दलितों के प्रति सवर्णों का रवैया नहीं बदल रहा है, और वे दलितों के शव को अपने शमशान में जलाने नहीं दे रहें है, तो सरकार बहादुर को दलितों के लिये अलग से श्मशान भूमि के आवंटन की ओर ध्यान देना चाहिये।

भारतीय समाज का सवर्ण तबका जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और रुढ़ियों का पोषक और रक्षक रहा है। यह समाज शास्त्रों और पुरोहितों के दिशा निर्देश में संचालित होता आ रहा है। पुरोहित और पोथाधारी शास्त्रों और स्मृतियों का हवाला देकर दलित विरोधी वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सवर्ण समाज का पढ़ा लिखा तपका भी जाति के जामे को पहना ओढ़ना और बिछना अब तक नहीं छोड़ सका है। संविधान और ज्ञान-विज्ञान की छत्रछाया में भी सवर्ण समाज जातिवाद और भेदभाव की संस्कृति का त्याग नहीं कर सका है। 21वीं सदी में भी दलितों के साथ यह समाज वैसे ही पेश आता है, जैसे मनुकाल में दलितों के साथ व्यवहार किया जाता था। दलितों के प्रति घृणा का भाव चेतन और अवचेतन के स्तर पर हावी रहता है; जिसके फलस्वरुप दलितों के ऊपर जुल्म और अत्याचार किया जाता है। सवर्णों का श्रेष्ठता का भाव ही दलितों की गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का काम करता है। संविधान और लोकतंत्र की व्यवस्था किसी भी व्यक्ति और समाज को यह अधिकार नहीं देता है कि वह किसी मनुष्य के साथ भेदभाव और उसकी गरिमा को लांक्षित और अपमानित करने का उपक्रम करे।
हमारे देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का वर्चस्व रहा है। इनके वर्चस्व ने दलितों और स्त्रियों के साथ घोर सामाजिक अन्याय किया है। उच्च श्रेणी के लोगों की संवेदनायें दलितों के साथ नहीं बल्कि वर्णवादियों के साथ रही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने जातिगत वर्चस्व को कायम रखने के लिये दलितों के साथ बड़ी निर्ममता और संवेदनहीनता से पेश आते रहे हैं। जातिवादी वर्चस्व ने दलित शोषण और प्रताड़ना की एक अंतहीन जमीन तैयार की है। वर्णवादी शाक्तियां समाज का वातावरण दलितों के अनुकूल नहीं होने देती है।

सवर्णवादी मानसिकता के लोग संविधानवादी व्यवस्था को ताक पर रखकर दलितों को मनुकाल की याद तरोताजा कराने का कोई अवसर नहीं छोड़ते है। वर्णवादी लोग समता और सामाजिक न्याय की सदा धज्जिया उड़ाते आयें है। दलितों पर अत्याचार करने में संवदेनहीनता की सारे हदे पार कर जाते हैं। श्मशान भूमि से दलित स्त्री का शव चिता से उठवा देना, यह सवर्णवाद और सामन्ती ठसक की संवेदनहीनता की पराकष्ठा का उत्कर्ष नहीं तो और क्या है?
सवर्णवादी मानसिकता दलितों और पिछड़ों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सदैव अवरोध पैदा करती रही है। इसी मानसिकता के पक्षधर और समर्थकों ने दलितों को बुनियादी हकों से वंचित करने का काम किया है। यह तय है कि वर्णगत और जातिगत जुगलबंदी जब तक कायम है, तब तक दलितों को अधिकार और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती है। दलितों के सर्वजानिक क्षेत्र के विकास के लिये जातिवाद और वर्णवाद का खात्मा होना निहायत ही जरुरी है। समाज के नियंताओं और बुद्धिजीवियों को वर्णगत और जातिगत संरचना के खि़लाफ विमर्श का माहौल तैयार करना होगा। सबसे पहले सवर्णो को जातीय दंभ और सामन्ती ठसक के खोल से मुक्त करना होगा। जब तक सवर्ण समाज के लोग अपने भीतर बैठे जातिवाद के दानव को नहीं खत्म करेगें, तब तक समाज के भीतर बदलाव की लहर नहीं आ सकती है। क्योंकि सवर्णवादी मानसिकता ही दलितों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में सर्वाधिक बाधा को तौर पर उपस्थिति होती है। सवर्ण समाज को अमेरिका के रंगभेद आंदोलन से सीख लेनी चाहिये। यदि वहां कोई स्वेत अस्वेतों के साथ भेदभाव करता है तो सबसे पहले मुखर विरोध स्वेतों की ओर से होता है। लेकिन भारत में दलितों के साथ जो अत्याचार और जुल्म होता उसको लेकर सवर्ण समाज के अधिकांश बु़द्धिजीवि चुप्पी साध लेते हैं। सवर्ण समाज के बुद्धिजीवियों को जातिवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों के प्रति ‘गैर-आलोचनात्मक’ नहीं होना है। उन्हें दलित समाज पर अत्याचार और जुर्म करने वालों अपने स्वजातीय लोगों की सर्वजानिक तौर पर भर्स्ाना करने की पहल शुरु करनी होगी। सवर्ण बुद्धिजीवियों को जाति विरोधी गोलबंदी में दलितों का साथ देना होगा। मिल जुलकर दलित दलित शोषण के विरुद्ध विमर्श का माहौल तैयार करना होगा, तभी समाज समतावादी व्यवस्था कायम होगी।


लेखक सुरेश कुमार स्वतंत्र रूप से नियमित लेखन करते हैं। संपर्क- 8009824098

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