70 वर्ष की आजादी के बाद भी जिस देश की 85 प्रतिशत आबादी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पायी हो और उसमें भी हम जैसी अधिकांश आबादी की जुबान पर यह जुमला “कोई होहिं नृप हमें का हानि” घर कर गया हो तो वह देश या समाज अपना सर उठाकर कैसे चल सकता है? यह हम सब कुछ जागरूक लोगों के समक्ष एक विचारणीय प्रश्न है.
हम नट, मुसहर, डोम, मेहतर और बंजारा इत्यादि अति अछूत लोग भी तो इंसान हैं और इस 70 वर्षीय आजाद भारत के नागरिक भी हैं. सबकी तरह हमारे भी मुंह, नाक, आंख, कान, हाथ और पैर हैं. दिल और दिमाग भी है. हमारे भी बाल-बच्चे है और कठिन से कठिन काम कर देने की क्षमता भी हम्ही में है. हां! यह बात अलग है कि तुम्हारे ही घृणित षड्यंत्र की वजह से हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनपढ़ गंवार रहते चले आ रहे हैं और आज भी हमारी किसी को कोई चिंता नहीं है. हम सभी मानवीय अधिकारों से वंचित भी हैं. अगर सछूत शूद्रों से हमें अलग कर दो तो हमारी जनसंख्या भी इतनी नहीं कि हम किसी को चुनाव में जीता-हरा सकें और शायद यही वजह है कि हमारी कोई खबर भी नहीं लेता. हम निसहाय पड़े हुए हैं. लेकिन हमें इस भयानक परिस्थिति में छोड़कर तुम भी तो चैन की सांस नहीं ले पा रहे हो.
विकास, विकास, विकास. किसके विकास की बात करते हो? जीडीपी ग्रोथ इतना हो गया. अगले वर्ष उतना हो जाएगा. बुलेट ट्रेन चलने लगेगी. सांसद-विधायकों के वेतन ढाई-तीन लाख हो जाएंगे. चमचमाती सड़कें हो जाएंगी. सैकड़ों की संख्या में स्मार्ट सिटी दिखने लगेंगी. तो बताओ, हमारे जैसे करोड़ों कंगलियों का क्या हो जाएगा? आजादी मिलने के बाद तुम बड़े-बड़े लोगों ने अपनी व्यवस्था कर लिया. जज-कलक्टर तुम्हीं बनोगे. सीओ-बीडीओ तुम्हीं बनोगे और दारोगा-डीएसपी-एसपी तुम्ही बनोगे. क्लर्क और चपरासी भी तुम्हीं बनोगे. मतलब सबकुछ तुम्ही बनोगे और सबकुछ तुम्हें ही चाहिए.
बड़ी चिंता है हमारे घर की. हमारे राशन कार्ड की. अब 70 वर्ष की आजादी के बाद हमारे भी बच्चों की पढ़ाई की बात करने लगे हो. छिः छिः शर्म भी नहीं आती. हमारे नाम पर विदेशों से धन लाते हो और उसे भी गटक जाते हो. जो हमारे हित की बात करता है उसे जातिवादी कहते हो और जो हमारे लिये संघर्ष करता है उसे नक्सली कहते हो. नक्सली कहकर हम भूखे-नंगे आदिवासियों को अपनी जमीन से हमें बेदखल करते आ रहे हो और अब सुन रहे हैं आतंकवादी करार देकर हमारे सफाये की योजना भी बना रहे हो. करो जो जी में आए हमारी मेहनत पर गुलछरे उड़ाने वालों. हमारी भी तो कोई सुनेगा. एक बार बाबासाहेब ने सुना तो तुम्हारी हेंकड़ी गुम हो गई और इस बार कोई सुन लिया तो पता नहीं चलेगा कि तुम कहां गुम हो गए.
हमारा विकास चाहते हो? झूठ! बिल्कुल झूठ. सब कुछ तो लूट लिया. तुम लिए रहो अपना सब कुछ पढ़े-लिखे योग्य लोग जो हो. हम तो अनपढ़-गंवार अयोग्य और अधम, अछूत, पापी, चंडाल लोग हैं. हम तो जज-कलक्टर नहीं बन सकते. एसपी-डीएसपी भी नहीं बन सकते. क्लर्क बनने के योग्य भी तो नहीं बनाया. चलो! हमारे विकास की भी अब चिंता छोड़ दो. चलो! और कुछ नहीं बना सकते तो हमें केवल चपरासी बना सकते हो तो बना दो. हम नट, मुसहर, मेहतर, डोम, बंजारा, हलखोर इत्यादि ऐसी अत्यंत अछूत जातियों के हर घर से केवल एक चपरासी. हर सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में चपरासी का पद हमारे लिये सुरक्षित कर दो. देखो! छुआ-छूत का भी कैसे सफाया हो जाता है. योग्यता का बहाना मत बनाना. देखो हम सब कुछ कर लेंगे. जमीन खरीदकर अपना घर बना लेंगे. छह माह में हम साफ-साफ कपड़ा भी बिल्कुल तुम्हारी ही तरह पहनना भी सीख जाएंगे. अपने बच्चों को पढ़ा लेंगे. और इससे घर-घर शिक्षा की लौ भी जल उठेगी. तुमसे दो वर्ष बाद आजाद हुए चीन के समकक्ष भारत भी पूरी तरह मजबूत होकर दुनिया के नक्शे पर उभरेगा. फिर कोई आंख उठाकर भारत की ओर गुर्राने की हिम्मत भी नहीं करेगा. आज तो कोई भी आंखे लाल कर वापस लौट जाने की हिम्मत रखता है. पाकिस्तान तो रोज 56 इंच की छाती को 56 सेंटीमीटर का बनाकर चला जाता है. और हम रटा-रटाया वही जुमला “इसबार नहीं छोड़ेंगे” कह-कहकर टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते हैं. तब तक वह दूसरा धमाका भी करके चला जाता है और आंखे भी तरेरने लगता है.
कैसी है तुम्हारी खुफिया एजेंसी और कैसे तुम हो कि 20-25 किलोमीटर तुम्हारी सीमा में घुसकर तुम्हारी सैनिक छावनियों को भी धूल में मिलाते रहता है. हमारी बहादुर सेना तुम्हारे आदेश की मोहताज बन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. पठानकोट फिर उरी और तुम आंसू के केवल दो बूंद बहाकर दुनियावालों को गोलबंद करने के बहाने अपनी नपुंसकता का परिचय देते रहते हो. हम अछूत पढ़े-लिखे नहीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम समझदार भी नहीं हैं. देश की यह दुर्गति देख हमें भी दुख होता है. आखिर हमारा भी तो यही देश है. हम भी तो इसी मिट्टी में पले-बढ़े हैं. काश! संकीर्ण जातीय दुर्भावनाओं से ऊपर उठकर हमें भी अपने साथ चलना सिखाया होता तो मुझे लगता है तुम्हें दुनियावालों के सामने हाथ-पैर फैला-फैलाकर भीख मांगने के लिये विवश नहीं होना पड़ता बल्कि दुनियावाले तुम्हारी चौखट पर माथा टेकने को मजबूर होते. बौद्धयुगीन् काल को याद करो. हमारी गौरव-गाथा आज भी दुनियावाले गाते नहीं थकते. लेकिन महात्मा बुद्ध का वह समता, स्वतन्त्रता और भाईचारे का संदेश तुम्हें आज भी मंजूर नहीं. तुम तो उच्च-नीच वर्ण और जातीय व्यवस्था के निर्माणकर्ता और आज भी पोषक बने हुए हो. यह समझते क्यों नहीं कि जबतक हमें नीच समझते रहोगे, दुनियावाले तुम्हें चिढ़ाते रहेंगे और तुम 56 इंच का सीना लेकर भी उनके चौखट पर नाक रगड़ते रहने के लिये मजबूर बने रहोगे.

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