लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।
शूद्रों गुलाम रहते, सदियां गुजर गई हैं
जुल्मों सितम को सहते, सदियां गुजर गई हैं
अब तो जरा विचारो, सदियां गुजर गई हैं
अपनी दशा सुधारो, सदियां गुजर गई हैं
बहुजनों के जागरण का आह्वान करने वाली उपरोक्त पंक्तियां स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ की हैं। वे उत्तर भारत में बहुजन नवजागरण के पहले चिंतक, कवि, नाटककार, संपादक, पत्रकार, मुद्रक और अगुवा थे। हिंदी भाषा के वे पहले आधुनिक विद्रोही प्रगतिशील साहित्यकार हैं। उत्तर प्रदेश में 80 और 90 के दशक में बहुजन आंदोलन का जो उभार हुआ, उससे कई दशक पहले ऐसा आंदोलन चलाने की कोशिश स्वामी अछूतानंद ने की थी। हालांकि, उनका आंदोलन सामाजिक स्तर पर रहा। लेकिन इसमें सामाजिक सत्ता संघर्ष के बीज मौजूद थे। इस आंदोलन ने बहुजनों खास कर दलितों की चेतना को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाई।
यह सर्वविदित तथ्य है कि द्विज परंपरा के दक्षिणपंथी, उदारपंथी और वामपंथी अध्येताओं, इतिहासकारों, आलोचकों और लेखकों ने वर्ण-जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाले किसी भी बहुजन चिंतक, विचारक और लेखक पर दो शब्द भी नहीं लिखे। चूंकि ज्ञान की स्थापित परंपरा पर इन्हीं द्विज लेखकों का कब्जा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि बहुजन परंपरा के महान से महान विचारक और लेखक भी लंबे समय तक उपेक्षा का शिकार रहे। उपेक्षा के शिकार इन, विचारकों और लेखकों में उत्तर भारत में बहुजन नवजागरण के प्रवर्तक स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ भी शामिल हैं।
स्वामी अछूतानंद डॉ. आंबेडकर के समकालीन थे। दोनों के बीच वर्ण-जाति व्यवस्था और दलितों के मुक्ति के प्रश्न पर गंभीर विचार-विमर्श भी हुआ। अछूतानंद ने आंबेडकर के सुझाव पर दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के संघर्ष में उनका साथ दिया। दोनों लोगों की पहली मुलाकात 1928 में तत्कालीन बंबई में ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में हुई थी। दोनों नेताओं ने दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर विचार किया था। डॉ. आंबेडकर ने उन्हें राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी का सुझाव दिया था।
बहुजन नवजगारण के अन्य नायकों की तरह अछूतानंद ने भी वर्ण-जाति व्यवस्था का खंडन किया और वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करने वाले हिंदू धर्मशास्त्रों को चुनौती दी। वे अपनी बहुचर्चित और लोकप्रिय कविता ‘मनुस्मृति से जलन’ में शूद्रों की स्थिति का वर्णन इन शब्दों में करते हैं–
निशदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है
ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही है
ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबका बनाया अफसर
हमको पुराने उतरन पहनो बता रही है
हमको बिना मजूरी, बैलों के साथ जोतें,
गाली व मार उस पर, हमको दिला रही है
लेते बेगार, खाना तक पेट भर न देते,
बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढा रही है
ऐ हिन्दू कौम सुन ले, तेरा भला न होगा,
हम बेकसों को ‘हरिहर’ गर तू रुला रही है
अछूतानंद का जन्म 6 मई, 1879 में उत्तर प्रदेश में ग्राम उमरी, पोस्ट सिरसागंज, जिला मैनपुरी में हुआ था। उनके बचपन का नाम हीरा लाल था। उनके पिता मोतीराम और उनके चाचा मथुरा प्रसाद अंग्रेजों की फौज में भर्ती हो गए थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सैनिक छावनी में हुई थी। 14 वर्ष की आयु तक उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी में अच्छा अभ्यास कर लिया था। अछूतानंद का पालन-पोषण मूलत: उनके अविवाहित चाचा मथुरा प्रसाद ने किया। जो विचारों से कबीरपंथी। वे कबीर के पद गा-गा कर बालक हीरा लाल (अछूतानंद) को सुनाया करते थे, जिसका गहरा असर अछूतानंद पर पड़ा। यहां ध्यान योग्य तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर के पिता रामजी सूबेदार भी कबीरपंथी थे। स्वयं आंबेडकर बुद्ध के बाद कबीर को अपना दूसरा और जोतीराव फुले को तीसरा गुरु मानते थे।
कबीर के पदों के प्रभाव में अछूतानंद को साधु-संतों का साथ अच्छा लगने लगा। वे घर छोड़ कर कबीर पंथी साधुओं के एक दल के साथ चले गए और उनके साथ जगह-जगह भ्रमण करते रहे। वे 24 साल की आयु तक घुमक्कड़ी करते रहे। अछूतानंद के अध्येता कंवल भारती लिखते हैं कि इसी दौरान उन्होंने धर्म, दर्शन और लोक-व्यवहार का बहुत-सा ज्ञान अर्जित किया तथा गुरुमुखी, संस्कृत, बंगला, गुजराती और मराठी भाषाएँ भी इसी घुमक्कड़ी में सीख लीं।
अछूतानंद 1905 में आर्य समाजी संन्यासी सच्चिदानन्द के सम्पर्क में आये और उनके शिष्य बन गए। आर्य समाज का प्रचार करने लगे। उनका नाम बदलकर हीरालाल से ‘स्वामी हरिहरानन्द’ कर दिया गया। इस दौरान उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और वेदों का गहन अध्ययन किया और 1912 तक आर्य समाज का प्रचार करते रहे।
इसी दौरान उन्हें बोध हुआ कि आर्य समाज भी ब्राह्मण धर्म और वर्ण-व्यवस्था की रक्षा के लिए बना हुआ। इसका भी मूल ध्येय द्विज वर्चस्व को कायम रखना है। आर्य समाज की सच्चाई को उजागर करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘यह ईसाई और मुसलमानों के प्रहारों से ब्राह्मणी धर्म को बचाने के लिए गढ़ा गया वैदिक धर्म का एक ढोंग है। इसकी बातें कोरी डींग और सिद्धांत ऊटपटांग हैं। इसकी शुद्धि महज धोखा और गुण-कर्म की वर्ण व्यवस्था एक झूठा शब्द जाल है। यह इतिहास का शत्रु, सत्य का हन्ता और झूठी गप्पें मारने वाला है। इसकी दृष्टि दोषग्राही, वाणी कुतर्की, स्थापना थोथी और वेदार्थ निरा मनगढ़ंत है। यह जो कहता है, उस पर इसका अमल नहीं। इसका उद्देश्य ईसाई-मुसलमानों से शत्रुता करा कर हिन्दुओं को वेदों और ब्राह्मणों का दास बना देना है।’ आर्य समाज के संदर्भ में इसी तरह का मत डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में प्रस्तुत किया है।
आर्य समाज से बाहर आने के बाद 1917 में ब्राह्मणवादी नाम हरिहरानंद की जगह उनका नाम अछूतानंद रख दिया गया। कंवल भारती लिखते हैं कि स्वामी अछूतानन्द जी ने दलित समाज में जागृति लाने के लिए 1922 में ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन की घोषणा की। ‘आदि हिन्दू’ की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने ‘अछूत’ का अर्थ ‘छूत विवर्जित’ अर्थात ‘पवित्र’ बताया।
उन्होंने लिखा है कि आर्यों ने यहां के मूल निवासी महाप्रतापी राजाओं को छल-बल से पराजित कर के उनका सब कुछ छीन लिया और उनकी हत्या कर दी। इसके बाद यहां के मूल निवासियों को शूद्र बनाकर उनकी संस्कृति को नष्ट कर दिया और अपनी सामंतवादी संस्कृति को स्थापित कर दिया। हम उन्हीं मूल निवासियों के सन्तान हैं। इसलिए हम आदिवंशी हैं। हमें अपने खोये हुए प्राचीन गौरव को इस देश में फिर से पाना है :–
हैं सभ्य सबसे हिन्द के प्राचीन हैं हकदार हम
हा-हा! बनाया शूद्र हमको, थे कभी सरदार हम
अब तो नहीं है वह जमाना, जुल्म ‘हरिहर’ मत सहो
अब तो तोड़ दो जंजीर, जकड़े क्यों गुलामी में रहो
अछूतानंद ने ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कई सभाएं की। सन् 1930 तक स्वामी जी के नेतृत्व में इस आंदोलन के आठ राष्ट्रीय अधिवेशन, तीन विशेष सम्मेलन और पन्द्रह प्रान्तीय सभाओं के साथ-साथ सैकड़ों की संख्या में जनपदीय सभाएं हुईं। पहला वार्षिक अधिवेशन दिल्ली (1923) में, दूसरा नागपुर (1924), तीसरा हैदराबाद (1925), चौथा मद्रास (1926), पांचवां इलाहाबाद (1927), छठा बम्बई (1928), सातवां अमरावती (1929) और आठवां अधिवेशन (1930) में इलाहाबाद में हुआ।
प्रान्तीय सभाएं लखनऊ, कानुपर, इलाहाबाद, मेरठ, मैनपुरी, मथुरा, इटावा, गोरखपुर, फर्रूखाबाद तथा आगरा में आयोजित हुई थीं। इन सभाओं में हजारों की संख्या में दलित जातियों के लोगों ने गांव-गांव से पैदल चलकर भाग लिया था। तीन विशेष सभाएं दिल्ली, मेरठ और इलाहाबाद में की गयी थीं। इस सबका उद्देश्य बहुजन नवजागरण की अलख जगाना था।
उन्होंने 1922-23 में दो साल दिल्ली से ‘प्राचीन हिन्दू’ और 1924 से 32 तक कानपुर से ‘आदि हिन्दू’ पत्र निकाला था। आदि हिन्दू नाम से ही उन्होंने कानपुर में 1925 में प्रिंटिंग प्रेस लगाया था। उसी प्रेस से वे अपने पत्र और साहित्य का प्रकाशन करते थे। वे हिंदी के पहले दलित कवि थे, जिनकी कविता में हमें कबीर और रैदास की निर्गुणवादी वैचारिक परंपरा का विकास मिलता है। कविता में उनका उपनाम ‘हरिहर’ था।
उनके काव्य संग्रहों में, ‘हरिहर भजन माला, ‘विज्ञान भजन माला’, ‘आदि हिन्दू भजनमाला’ एवं ‘आदिवंश का डंका’ का उल्लेख मिलता है वर्तमान में इन रचनाओं में से केवल ‘आदिवंश का डंका’ ही उपलब्ध है। ‘आदिवंश का डंका’ लोक छन्दों में रचित कृति है, जिसमें कव्वाली, गज़ल, भजन, मरसिया आदि शामिल है। दलित साहित्य में नाटक लिखने की परम्परा भी स्वामी जी से ही आरम्भ होती है। उनके दो नाटक हमें मिलते हैं– मायानंद बलिदान और रामराज्य न्याय। ‘राम राज्य न्याय’ नाटक में राजा राम द्वारा शूद्र ऋषि शम्बूक की हत्या किए जाने का चित्रण है। ‘मायानन्द बलिदान’ पूरी तरह से पद्य में लिखा गया नाटक है। यह नाटक हिंदू संस्कृति में विद्यमान नरबलि प्रथा को रेखांकित करता है। प्रो. चमनलाल लिखते हैं, ‘स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ का साहित्य प्रकाश में आने से उनको हिन्दी में आधुनिक दलित साहित्य का जनक माना जा सकता है व हीरा डोम की कविता उनकी परवर्ती कविता कही जा सकती है।’
54 वर्ष की अल्पायु में ही 20 जुलाई, 1933 को कानपुर में उनका निधन हो गया। अछूतानंद जी की मृत्यु पर बहुजन नवजागरण एक अन्य पुरोधा चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने लिखा कि ‘एक आला दिमाग था, न रहा। आदिवंशी चिराग था, न रहा।’