कर्नाटक के लेखक केएस नारायण ने अपनी पुस्तक ‘वाल्मीकि कौन’ (मूल नाम ‘वाल्मीकि यारू’) लिख कर 2015 में यह विवाद खड़ा कर दिया था कि वाल्मीकि एक ब्राह्मण थे और रामायण जैसा पवित्र ग्रंथ ब्राह्मण ही लिख सकते हैं. दलित समुदाय ने इसका विरोध किया और कर्नाटक सरकार ने केएस नारायण की किताब को प्रतिबंधित कर दिया, प्रकाशक कोर्ट गए और कोर्ट ने इस बात का पता लगाने के लिए एक टीम गठित की कि ‘वाल्मीकि की जाति क्या है’.
यह घटना तो अभी घटी है पर ‘महर्षि वाल्मीकि’ की जाति को लेकर विवाद हमेशा से ही बना रहा है. पर दलित वर्ग के एक खास समुदाय के संदर्भ में हम देखें तो वाल्मीकि केवल एक व्यक्ति नहीं है. वह अपने आप मे एक सम्पूर्ण समुदाय है, एक जाति है ‘वाल्मीकि जाति’. इस जाति ने कई सदियों से महर्षि वाल्मीकि को अपनी आस्था का आधार बनाए हुआ है. और अब जाकर यदि ब्राह्मण वर्ग इससे उनका भगवान छीन लेगा तो यह केवल भगवान छीनना नहीं होगा बल्कि उनसे उनकी पहचान छीनना होगा. वाल्मीकि समुदाय के लोग अपने लिए ‘भंगी’ या ‘चूड़ा’ (हालांकि इन शब्दों का भी मिथकीय अर्थ है) संबोधन अपमान जनक समझते हैं. अब तो इन शब्दों का इस्तेमाल भी कानून प्रतिबंधित है.
दलित शब्द एक हद तक उपयुक्त होते हुए भी इस समुदाय के लिए नाकाफ़ी है. क्योंकि यह वर्ग दलित से भी आगे बढ़ कर शोषण का शिकार हैं. रेल की पटरियों का मल, महानगरों के खत्तों को यही वर्ग साफ सुथरा रखता है. यही नहीं बड़े-बड़े शहरों के मल-मूत्रों से भरे गटरों में हर रोज़ इसी तबके के लोग दम तोड़ रहे हैं. यह स्थिति समाज के अन्य किसी भी वर्ग ने नहीं झेली. यही वर्ग सदियों से छुआछूत का शिकार रहा है.
गरीबी और अशिक्षा, असम्मान के इस अंधेरे में वाल्मीकि ही इनकी रोशनी है. वाल्मीकि जयंती के दिन ये लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार दिल्ली सहित कई शहरों में अपने भगवान की झांकियां निकलेंगे, धूमधाम से पूजा करेंगे. हालांकि इस तबके को भगवान से ज़्यादा शिक्षा की ज़रूरत है पर उस पहचान का क्या किया जए जिसको इन्होंने सदियों से अपनाया हुआ है. वाल्मीकि भगवान ही नहीं इनकी पहचान बन चुके हैं.
अब ऐसे में ब्राह्मणवादियों द्वारा छीने जा रहे इनके ईश्वर और इसी ब्राह्मणवादी समाज द्वारा इनकी जाति के वैकल्पिक नामों को अपमान के रूप में गढ़ने के बाद इनकी पहचान के लिए अन्य कौनसी शब्दावलियां बच जाती है?
ये लेख पूजा पवार का है.
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।