आमतौर पर ‘वाल्मीकि’ को लेकर दलित समाज दो धड़ों में बंटा नजर आता है. सफाई कर्मचारियों का एक तबका वाल्मीकि को ‘भगवान’ का दर्जा देता है तो वहीं अन्य तबका यह सवाल उठाता नजर आता है कि वाल्मीकि दलित नहीं थे. दर्शन रत्न ‘रावण’ का मानना है कि लोगों ने वाल्मीकि को ठीक से समझा ही नहीं. वह वाल्मीकि को रामायण के जरिए राम की बखिया उधेड़ने वाले के तौर पर देखते हैं. 20 साल की उम्र से सफाई कर्मचारी वर्ग के बीच काम करने वाले ‘रावण’ आधस नाम के संगठन के जरिए इस समाज में फैली अशिक्षा और गंदगी दूर करने निकले हैं. साथ ही वाल्मीकि और अंबेडकर को एक मंच पर स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. फिलवक्त जब देश भर में ‘रामलीला’ की धूम मची है, रावण के जरिए वाल्मीकि के संदर्भ में राम को समझना जरूरी है. पिछले दिनों दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने दर्शन रत्न रावण से उनके दिल्ली प्रवास के दौरान विस्तार से चर्चा की.
आप क्या कर रहे हैं, कब से कर रहे हैं और क्यूं कर रहे हैं?
– हम देश में सफाई मजदूर जातियों; जिन्हें उत्तरी भारत में वाल्मीकी कहते हैं, उनके लिए काम कर रहे हैं. और इसलिए कर रहे हैं क्योंकि दलित समाज और इससे पहले लेफ्ट फ्रंट के मूवमेंट से जुड़े लोगों ने वाल्मीकी समाज की एक
नाकारात्मक छवि बना ली कि यह समाज नहीं बदल सकता. उन्होंने इसका प्रचार किया और इतना किया कि वह दुष्प्रचार हो गया. लेकिन जब मैं उन्हीं लोगों से यह पूछता हूं कि उन्होंने धरातल पर क्या किया, तो उधर से कोई जवाब नहीं मिलता. उन्होंने केवल भाषण दिए हैं. वो बड़ी बड़ी बातें करते हैं, अपनी जीवनियां लिखते हैं, उसमें मां-बाप, दादा-दादी और खुद के दुख भोगने की बात लिखते हैं. मैं कहता हूं कि दुख तो सभी दलितों ने भोगे हैं. मुसहर समाज को ही देखिए, वो आज भी चूहा खा रहा है.
वाल्मीकि समाज को लेकर एक आम धारणा है कि वह बाबासाहेब से दूर रहा है. आखिर यह स्थिति क्यों हो गई है और क्या आपने इसे पाटने की कोशिश की है?
– अब यह स्थिति नहीं है. हमने जहां जहां काम किया है आप वहां चलिए. हमारे काम करने के बाद वाल्मीकि समाज में बाबासाहेब के प्रति सोच बदली है. हमलोगों ने डॉ. अम्बेडकर को वाल्मीकि समाज के साथ लाने का काम किया है. मैंने 1989 में पहली बार 14 अप्रैल का कार्यक्रम रखा. आप आज पंजाब चले जाएं, हरियाणा में चले जाएं, उत्तर प्रदेश की वाल्मीकि बस्तियों में चले जाएं वहां अब स्थिति बदली है. वहां आपको बाबासाहेब और वाल्मीकि का चित्र एक साथ मिलेगा. आप जो बाबासाहेब से वाल्मीकि समाज के दूर होने की बात कर रहे हैं तो वाल्मीकि समाज को बाबासाहेब से दूर
करने वाले भगवान दास जैसे लोग थे, आर. सी संदर जैसे लोग थे जो जीवन में कभी कामयाब नहीं हुए. दिल्ली में रहते हुए किसी एक बस्ती को टारगेट कर के इन्होंने काम किया हो तो बताएं. मैं कभी कभी जब इनकी जीवनियां पढ़ता हूं कि मां के सर पर गंदगी की टोकरी थी तो मुझे लगता है कि मां के दुख को बेच रहे हैं. ठीक है कि मां के सर पर टोकरी थी लेकिन आने वाली बेटी के भविष्य के लिए इन्होंने क्या किया, ये बताएं? जरूरी यह था कि किसी बेटी के सर पर वो टोकरी ना आए इसके लिए काम किया जाए. वो ज्यादा जरूरी था लेकिन यह काम नहीं हुआ. 6 दिसंबर को आप लोग परिनिर्वाण दिवस कहते हो मैं बलिदान दिवस कहता हूं. हम इसका पोस्टर भी निकालते हैं हर साल.
वाल्मीकि समाज के लिए तमाम लोग काम कर रहे हैं. आप उनसे कितने जुड़े हुए हैं?
– बेजवाड़ा विल्सन के साथ हमारी यहीं (पंजाब भवन) बात हुई थी. हमने उनसे कहा कि आप कहते हो कि सर पर मैले की टोकरी नहीं होनी चाहिए, हमने कहा कि ठीक बात है, नहीं होनी चाहिए. ये तो हर दलित कहेगा. इस पर काम करो. लेकिन इसके आगे क्या होना चाहिए? केवल सरकार की स्कीम का पैसा एक परिवार को दिला दें उससे काम नहीं होने वाला. उससे आगे सामाजिक परिवर्तन कैसे आएगा इस पर सोचना होगा. मैंने कहा कि लोगों को बाबासाहेब के उन चार बच्चों के नाम याद दिलाओ जो आंदोलन की भेंट चढ़ गए. विल्सन के साथ पॉल दिवाकर भी आए थे. लेकिन उस दिन बात करने के बाद दोनों ने मेरा फोन लेना बंद कर दिया. हालांकि विल्सन ने समाज के लिए काफी काम किया है. बाकी ज्यादातर लोग मंच के लोग हैं. वो सिर्फ भाषण दे रहे हैं.
वाल्मीकि समाज और दलित समाज का जो अन्य तबका है, इनको आपस में जोड़ने के लिए आपने क्या काम किया है?
– हम वाल्मीकि समाज को यह बताने में कामयाब हो रहे हैं कि गांधी की वजह से आपको पैंट कमीज नहीं मिली है. गांधी की वजह से आपको वोट या पंच बनने का अधिकार नहीं मिला है, बल्कि ये अधिकार बाबासाहेब की वजह से मिला है. हम लोगों तक यह बात पहुंचाने में सफल रहे हैं. हम महात्मा रावण को लेकर कार्यक्रम कर रहे हैं. मैंने फेसबुक पर देखा कि कुछ लोग महिषासुर की बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि महिषासुर अभी आम लोगों से जुड़े नहीं हैं. पहले रावण पर काम करना चाहिए था, उसमें बाद में महिषासुर आ जाते. हम अपने हर मंच से वाल्मीकि और बाबासाहेब की बात एक साथ करते हैं. मेरा मानना है कि बिना रूके लगातार काम करते रहने से नतीजे निकलते हैं. लोगों में सकारात्मक बदलाव आ रहा है.
‘भगवान वाल्मीकि’ को लेकर अक्सर दलित समाज के तमाम लोगों के बीच एक द्वंद की बात सामने आती है. सवाल यह भी उठता है कि वाल्मीकि दलित समाज से थे या नहीं थे. दूसरा सवाल यह भी उठता है कि जब वाल्मीकि ने उस वक्त में रामायण लिखा तो फिर उनके वंशजों के हाथ में कलम की जगह झाड़ू कैसे आ गया?
– वंशज तो हम एकलव्य के भी हैं; तब भी हमारे हाथ में झाड़ू है. वंशज हम बाबा जीवन सिंह के भी हैं; तब भी हमारे हाथ में झाड़ू है. ये उससे कंपेयर नहीं होता. मेरा मानना है कि वाल्मीकि को पेरियार से लेकर बाद के अन्य किसी ने भी स्टडी किया ही नहीं है. इनलोगों ने वाल्मीकि को ऊपर ऊपर से समझा है. मोटे-मोटे संदर्भ उठा लिए हैं जिनको इस्तेमाल किया जा सके. अब पेरियार क्या कहते हैं? पेरियार लिखते हैं कि रामायण मिथक है. फिर लिखते हैं कि रावण हमारा बड़ा योद्धा था. दोनों बातें एक साथ कैसे संभव हो सकती है? पेरियार की किताब को ललई सिंह यादव ट्रांसलेट करते हैं और जब इलाहाबाद हाई कोर्ट में उस पर स्टे आ जाता है तो फिर वहां वाल्मीकि रामायण पेश करते हैं. मैं कहता हूं कि जब दलितों का एक बड़ा हिस्सा यह समझता है कि उसे वाल्मीकि को नहीं मानना है तो फिर वाल्मीकि की किताब को सबूत के तौर पर क्यों इस्तेमाल करते हो? उसकी कोई भी चीज क्यों इस्तेमाल करते हो?
कानपुर देहात में रावण मेला होता है. मुझे वहां दो बार बुलाया जा चुका है. मैंने वहां कहा कि एक तरफ आप सारा दलित साहित्य रख लिजिए जिसमें आप महामुनि शंबूक भी बात करते हैं, राम के उनके कातिल होने की बात करते हैं और दूसरी तरफ एक कागज पर वाल्मीकी नाम लिख कर के उसे कैंसिल कर दीजिए. आपका सारा साहित्य कूड़ा हो जाएगा क्योंकि फिर राम द्वारा शूंबूक के मारे जाने की बात का कोई एविडेंस ही नहीं बचता. एविडेंस वाल्मीकी से ले रहे हो और उन्हीं को काट रहे हो. ये एक बड़ी साजिश है, जिसका हम शिकार हैं. वो साजिश यह है कि दलित दलित इकट्ठा नहीं होनी चाहिए. हो सकता है कि यह साजिश गांधी ने डाली हो और एक तबके को खड़ा किया हो कि आप वाल्मीकी के खिलाफ बोलो. यह ध्यान देना होगा कि गांधी ने बाबासाहेब को सपोर्ट नहीं किया बल्कि जगजीवन राम को किया. हो सकता है कि उन्होंने
जगजीवन राम या फिर किसी और के माध्यम से यह बात फैलाई हो. मगर मैं जिस रूप में देखता हूं और अन्य दलित साहित्यकार लिखते हैं, रामायण का पहला हिस्सा है बाल कांड. बाल कांड में ही दलित साहित्यकार यह बात उठाते हैं कि राम दशरथ की औलाद नहीं है. मगर यह मूल तो वाल्मीकि का लिखा हुआ है. और जो व्यक्ति यह लिखे कि राम अपने पिता की औलाद नहीं है यह बताइए कि वह उसकी एडवोकेसी कर रहा है या फिर उसे नंगा कर रहा है. थोड़ा सा और आगे बढ़ते हैं. राम जब वनवास जाते हैं तो अपनी तीनों माताओं से मिलने के बाद सीता से भी बात करते हैं. वह सीता से कहता है कि यह महल और सुख सुविधाएं भरत और शत्रुध्न के हिस्से में चले गए हैं. मुझे वनवास मिला है. और अगर तुझे इन सब चीजों की जरूरत है तो तू उनकी शरण में चली जा. सीता वहां जो कहती है उसको दलित सहित्यकार खूब इस्तेमाल करते हैं. सीता कहती है कि “मेरे पिता को अगर पता होता कि तू पुरुष के भेष में नारी है तो मेरे पिता कभी मेरे हाथ में तुम्हारा हाथ न देते.” अब ये वाल्मीकि रामायण में है. वाल्मीकि रामायण कहती है कि महामुनि शंबूक को उल्टा लटका कर कत्ल किया गया. तो वाल्मीकि तो ये सारी बातें लिखकर हमें बता रहे हैं. तो फिर वाल्मीकी दोषी कैसे होते हैं.
वाल्मीकि जी की एक और किताब है ‘योग विशिष्ट’. इस किताब में वो ब्राह्मणवाद के खिलाफ खूब लिखते हैं. इसकी एक लाइन है- तप, दान और तीरथ से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान से होती है. अब ये एक लाइन कितनी बड़ी है. अब आप देखिए कि सारा ब्राह्मणवाद तप, दान और तीरथ को ही महत्व देता है और उसी को मोक्ष का उपाय मानता है लेकिन वाल्मीकि इसकी खिलाफत करते हैं. तो वह ब्राह्मणवाद के समर्थन में कहां लिख रहे हैं? श्राद्ध के बारे में वाल्मीकि लिखते हैं कि अगर श्राद्ध करने से परलोक गए लोगों तक खाना पहुंचता है तो फिर यात्रा पर गए लोगों का भी श्राद्ध कर दिया करो.
अब ब्राह्मण वाल्मीकि के साथ कहां खड़ा है, इस पर भी किसी का अध्ययन नहीं है. दिल्ली के चुनाव में एक साध्वी ने रामजादे की बात कही. उस पर रवीश कुमार ने अपने चैनल पर डिबेट किया. मैंने उन्हें फोन किया. मैंने कहा कि डिबेट अधूरा था. मैंने कहा कि आप मुझे राम का कोई भी मंदिर दिखा दो जहां राम परिवार है और उसके साथ उसके बच्चे भी हैं. बिना बच्चों के परिवार कैसे हो सकता है? और पहले रामजादे तो लव और कुश हैं. कौन सा ब्राह्मण, कौन सा ठाकुर, कौन सा बनिया उन दोनों को मानता है? यानि ब्राह्मण वाल्मीकि से इतना दूर है कि वह राम के बच्चों को इसलिए स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह वाल्मीकि आश्रम में, वाल्मीकि की शिक्षा में, उनके सानिध्य में पले.
दर्शन रत्न ‘रावण’ का साक्षात्कार लेते हुए ””””दलित दस्तक”””” पत्रिका के संपादक अशोक दास.
बुद्ध को आप कैसे देखते हैं?
– बुद्ध को हम बहुत अच्छे रूप में देखते थे, जब पढ़ते थे. जहां बुद्ध यह कहते हैं कि किसी शास्त्र को इसलिए ना मानों क्योंकि वह बहुत पुराने हैं. बहुत शानदार विचार थे. इसको हमने अपनी डायरी में नोट किया था. लेकिन जब दलित बुद्ध को लेकर हमारे पास आएं तो उन्होंने हमें बुद्ध से दूर कर दिया. बुद्ध तर्क को प्रधानता देते हैं लेकिन यह बात अनपढ़ लोगों को नहीं समझाया जा सकता. तो पहले उनको उस लेवल पर लेकर आना पड़ता है फिर ज्ञान की बात बतानी पड़ती है. जो बुद्ध वाले लोग वाल्मीकि बस्तियों में आएं उनके पास अन्य धर्मों की आलोचना के सिवा कुछ नहीं था. इनका बुद्ध तर्क और विचार वाला बुद्ध नहीं था. इनका बुद्ध गाली वाला बुद्ध था. इससे लोग उन्हें दुर से देखकर ही चिढ़ने लगे. और इस तरह उन्होंने बाबासाहेब को भी अपना विरोधी मान लिया.
बुद्ध को नाम पर वो दीवाली करते हैं क्या ये ब्रह्मणीकरण नहीं है. बुद्ध के चार सत्यों को आर्य सत्य कहते हैं. उसको मानवीय सत्य क्यों नहीं कहते, आर्य सत्य ही क्यों कहते हैं? हां, बाबासाहेब जिस बुद्धिज्म को ग्रहण करते हैं उसको मैं दूसरे रूप में देखता हूं. बाबासाहेब बुद्धिज्म को अध्यात्मिक रूप में लेते ही नहीं है, मेरा मानना है कि बाबासाहेब बुद्धिज्म को राजनैतिक तौर पर ले रहे हैं कि हमें सिर्फ हिन्दू से अलग होना है. हिन्दू से अलग होने की तो जरूरत ही नहीं है क्योंकि जब बाबासाहेब यह लिखते हैं कि ‘अछूत कौन और कैसे’? वहीं साबित हो जाता है कि हम हिन्दू से अलग हैं. कहीं भी हम हिन्दू हैं ही नहीं फिर अलग होने की बात ही बेमानी है. हिन्दू से अलग होने की बात संस्कारों में आती है कि हमारा बच्चा हो तो हम पंडित से नाम ना निकलवाएं. हम पंडित से कोई अन्य काम ना करवाएं वो बात आती है. लेकिन जब बाबासाहेब 22 प्रतिज्ञाओं की बात करते हैं वहां बुद्धिज्म कहीं नहीं आता. वहां बुद्ध का शील नहीं आता. मैं हिन्दू-हिन्दू करता रहूं इसका मतलब मैं उसका प्रचार ही कर रहा हूं. तो पढ़ाई के दौरान हमने जिस बुद्ध को समझा और माना था, आलोचना वालों ने उस बुद्ध को हमसे दूर कर दिया.
लेकिन आप जिस बुद्ध से दूर हैं उसे तो आपके पास लोग लेकर आए ना, बुद्ध तो वही हैं. फिर बुद्ध को कैसे खारिज किया जा सकता है?
– मैं खारिज नहीं कर रहा हूं. मैं बस इतना कह रहा हूं कि एक जो हमने पढ़ते हुए बुद्ध को समझा और दूसरा जो हमारे पास बुद्ध को जिस रूप में लेकर आया तो हम पहले जिस बुद्ध को मानते थे, हमें उससे भी दूर हटना पड़ा. दूसरी बात, मैं सोचता हूं कि हमें ना बुद्ध बनने की जरूरत है और न ही जैन बनने की जरूरत है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के सामने यह मजबूरी थी, और यह वाजिब और जरूरी मजबूरी थी. क्योंकि मेरा मानना है कि इतना बड़ा विद्वान गलती नहीं कर सकता. एक दूसरे तरह कि मजबूरी थी. एक वर्ष से ज्यादा हो गए जब राजेन्द्र यादव की मृत्यु हुई. सारी उमर वह ब्राह्मणवाद को कोसते रहे. मरे तो सारे संस्कार ब्राह्मण ने किए. इंदिरा गांधी की मृत्यु हुई. उसका लड़का विदेश में पढ़ा. विदेशी औरत से शादी की लेकिन जब पंडित ने कहा कि कमीज उतारो और जनेऊ पहनों तो उसने जनेऊ पहन लिया. मैं सोचता हूं कि यही मजबूरी बाबासाहेब के सामने थी और यह जायज मजबूरी थी. उन्होंने शायद धर्म परिवर्तन यह सोच कर किया कि मेरे अंतिम संस्कार पर कोई ब्राह्मण ना आ जाए. क्योंकि अगर वो ना करते तो हम सब तब ब्राह्मणवाद की ओर चले जाते.
मगर जिसे हम आदि संस्कृति कहते हैं वो इन सबमें कहां आती है? मुझे इसमें वो नहीं दिखता. इसमें शंबूक बुद्ध से बड़े नहीं होते. और जब मैं चैत्य भूमि जाता हूं जो कि बाबासाहेब की याद में है तो वहां देखता हूं कि बाबासाहेब की प्रतिमा काले रंग में नीचे पड़ी है और बुद्ध की प्रतिमा सवर्ण रंग में ऊपर है. हम कहीं न कहीं वहीं खड़े हैं. इसमें हम अपना क्या पैदा कर पाएं? सिक्खों के ग्रंथ में चार हजार बार राम का नाम आया है लेकिन आप किसी गुरुद्वारे में राम का नाम ऊपर ढ़ूंढ़ कर बता दो. किसी ने यह हिमाकत नहीं कि लेकिन हमारे यहां यह हो रहा है. अगर बुद्ध हैं भी तो उनकी बात तमाम अन्य दलित महापुरुषों जिनकी बात बाबासाहेब अछूत कौन और कैसे में करते हैं उनके बाद होनी चाहिए. लेकिन आज देखा यह जा रहा है कि दलितों का एक बड़ा तबका सिर्फ बुद्ध को स्थापित करने में लगा है, बल्कि बाबासाहेब भी उससे कहीं पीछे छूट गए हैं.
आधस की परिकल्पना कैसे की. कब आपको लगा कि आपको वाल्मीकि समाज के बीच काम करना है?
– ऐसा नहीं था कि हमें बचपन से ही जातिवाद झेलना पड़ा. शहर में जन्म हुआ, पब्लिक स्कूल में पढ़े तो भेदभाव जैसा कुछ नहीं हुआ. कॉलेज में आने पर बातें समझ में आने लगी और वो भी खबरों को पढ़कर. लेनिन और मार्क्स को पढ़कर आग लगना शुरु हो गया. जब दलित साहित्य को पढ़ा तो लगा कि यहां काम करने की जरूरत है. जब बाबासाहेब को पढ़ा तो उनकी एक लाइन से यह साफ हो गया कि कम्यूनिज्म भारत के लिए नहीं है. कम्यूनिज्म वहां के लिए हैं, जहां क्लास (वर्ग) है, भारत में कॉस्ट (जाति) है. 24 सितंबर, 1994 में आदि धर्म समाज (आधस) की स्थापना तब की जब हमने मान लिया कि हमें हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन इन सबसे हटकर आदि धर्म की कल्पना करनी है, इसके लिए काम करना है. सिक्खों के दस गुरू हैं उनका इतिहास छोटा है. हमारा इतिहास बहुत बड़ा है, हम अपने सौ गुरुओं की श्रृंखला बनाकर आदि धर्म बनाएंगे.
इस श्रृंखला में कौन-कौन है?
– पहले वाल्मीकि, दूसरे शुक्राचार्य फिर रावण, महामुनि शंबूक, महामुनि मतंग, मां शबरी, मां कैकसी (रावण की माता) और ऐसे ही हम रविदास और कबीर तक आते हैं.
इन सबके पीछे आपका उद्देश्य क्या है?
– उद्देश्य यही है कि दलित समाज की अपनी पहचान होनी चाहिए. हम भले ही नारा देते रहें कि जातियां तोड़ो, यह नहीं टूटने वाली. राजनैतिक दलों से तो बिल्कुल नहीं टूटने वाली. जब हम आदिधर्म की परिकल्पना करेंगे और जब वाल्मीकि, रविदास और कबीर को एक ही स्थान देंगे तो जातियां अपने आप टूटने लगेगी. ये कल्पना है हमारी.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।