गकोेपकानपुर के इनामी आतंकी विकास दुबे को मार गिराये जाने के बाद भाजपा निशाने पर है। जिस फिल्मी अंदाज में विकास दुबे का एनकाउंटर हुआ है, उस पर सवाल उठने लगे हैं। पुलिस चाहे जितनी सफाई दे, जो भी कहानी सुनाए, साफ पता चल रहा है कि विकास दुबे को मारने का पुलिस का पहले से ही प्लान था। और इसी वजह से इस पर तमाम सवाल भी उठ रहे हैं।
लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर पुलिस विकास दुबे को अदालत में क्यों नहीं पेश करना चाहती थी। राहुल गांधी ने ट्विट में इसी सवाल को शायरी के जरिए कह दिया है। राहुल गांधी ने तंज किया है, “हजारों जवाबों से अच्छी है खामोशी उसकी, न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली।”
तो अखिलेश यादव ने भी विकास दुबे के पिछले हफ्ते का कॉल डिटेल रिकार्ड सामने लाने की मांग की है। इस मामले पर अखिलेश काफी मुखर हैं। वह लगातार भाजपा को घेर रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने भी सवाल उठाया है कि आखिर किसके भरोसे विकास दुबे मध्यप्रदेश में आया था।
विकास दुबे ने अपराध की दुनिया में कदम दलितों का उत्पीड़न कर के रखा था। सबसे पहले उसने एक दलित व्यक्ति से मारपीट की थी। फिर वह 1992 में दो दलितों की हत्या कर चर्चा में आया था। तब उसे सवर्ण समाज के बीच काफी लोकप्रियता मिली थी। तब सवर्ण समाज को लगा था कि विकास दुबे ने दलितों को उनकी औकात दिखा दी है। सो वह रातो-रात अपने समाज के भीतर लोकप्रिय हो गया। फिर क्या था, उसकी लोकप्रियता सत्ता में बैठे लोगों तक भी पहुंची। क्योंकि सत्ता चलाने वालों को हर पांचवे साल लोगों के बीच आना होता है। बस फिर क्या था, विकास दुबे की लोकप्रियता को सत्ता में बैठे लोग भुनाना चाहते थे और विकास दुबे सत्ता का संरक्षण चाहता था। दोनों को मनचाही मुराद मिल गई। अब तक सब ठीक भी चल रहा था, लेकिन विकास दुबे का हौसला इतना बढ़ा की उसने पुलिसकर्मियों को ही निशाना बना डाला। उसने पुलिसकर्मियों को जिस तरह मार डाला, उससे हंगामा मच गया। हालांकि वह पहले भी एक नेता की हत्या कर चुका था, लेकिन तब सब कुछ ‘मैनेज’ हो गया और विकास दुबे का कुछ बहुत बुरा नहीं हो सका।
दरअसल पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद जिस तरह इस मामले में पुलिसकर्मियों द्वारा ही मुखबिरी की बात सामने आई थी, उससे साफ था कि खाकी के बीच विकास दुबे की पहुंच अच्छी खासी थी। और ऐसा तभी होता है जब किसी अपराधी के सर पर खादी यानी नेताओं का हाथ हो।
लेकिन अब तक बचते आ रहे विकास दुबे ने एक साथ दो गलतियां कर दी। एक तो पुलिसकर्मियों को मार डाला, तो दूसरा उसने जिन पुलिसकर्मियों को मारा, उसमें उसके स्वजातिय थे। ऐसे में अचानक से सत्ता से लेकर समाज तक में बैठे विकास दुबे के संरक्षकों का माथा ठनक गया। क्योंकि विकास दुबे खतरनाक बन चुका था। वह देश भर के निशाने पर आ गया था। अदालती ट्रायल में कई राज खुलने के आसार थे। क्योंकि विकास दुबे अपने राजनीतिक आकाओं से बचाने की गुहार लगाता और ऐसा नहीं करने पर वह राज से पर्दा उठाने की धमकी देता। यानी कुल मिलाकर विकास दुबे का रहना कईयों के लिए खतरनाक था। सवाल यह है कि क्या विकास दुबे का एनकाउंटर करवा कर सत्ता में बैठे उसके संरक्षकों ने इस कड़ी को ही खत्म कर दिया है?
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।