हाल में एक समाचार पत्र में छपे लेख में चंद्रभान प्रसाद जी ने एक गांव का उदाहरण देकर दिखाया है कि भूमंडलीकरण के बाद दलित बहुत खुशहाल हो गए हैं क्योंकि रोज़गार के करोड़ों अवसर पैदा हो गए हैं. हमें इस कहावत को ध्यान में रखना चाहिए कि “हवा के एक झोंके से बहार नहीं आ जाती.” मुट्ठी भर दलितों के खुशहाल हो जाने से सारे दलितों की बदहाली दूर नहीं हो जाती.
दलितों की वर्तमान दुर्दशा का अंदाजा सामाजिक-आर्थिक जनगणना-2011 के आंकड़ों से लगाया जा सकता है. इसके अनुसार ग्रामीण भारत में दलितों के 3.86 करोड़ अर्थात 21.53 प्रतिशत परिवार रहते हैं. भारत के कुल ग्रामीण परिवारों में से 60 प्रतिशत परिवार गरीब हैं जिन में दलितों का प्रतिशत इससे काफी अधिक है. इसी प्रकार ग्रामीण भारत में 56 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं, जिन में दलित परिवारों का प्रतिशत इससे अधिक होना स्वाभाविक है. इसी जनगणना में यह बात भी उभर कर आई है कि ग्रामीण भारत में 30 प्रतिशत परिवार केवल हाथ का श्रम ही कर सकते हैं जिस में दलितों का प्रतिशत इस से काफी अधिक है. इससे स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर दलित गरीब, भूमिहीन और अनियमित हाथ का श्रम करने वाले मजदूर हैं. जनगणना ने भूमिहीनता और केवल हाथ के श्रम को ग्रामीण परिवारों की सबसे बड़ी कमजोरी बताया है. इस कारण गांव में अधिकतर दलित परिवार जमींदारों पर आश्रित हैं और कृषि मजदूरों के रूप में मेहनत करने के लिए बाध्य हैं. इसी कमजोरी के कारण वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का प्रभावी ढंग से प्रतिरोध भी नहीं कर पाते हैं.
चंद्रभान जी ने भूमंडलीकरण के बाद करोड़ों रोज़गार पैदा होने की जो बात कही है वह भी हकीकत से परे है. इसके विपरीत रोज़गार बढ़ने की बजाये घटे हैं. जो रोजगार पैदा भी हुए हैं वे भी दलितों की पहुंच के बाहर हैं क्योंकि वे अधिकतर तकनीकी तथा व्यवसायिक प्रकृति के हैं जिन में दलित तकनीकी योग्यता के अभाव में प्रवेश नहीं पाते. सरकार द्वारा भारी मात्र में कृषि भूमि के अधिग्रहण के कारण कृषि मजदूरी के रोज़गार में भी भारी कमी आई है. सरकार ने श्रम कानूनों को ख़त्म करके दलित मजदूरों के शोषण के दरवाजे खोल दिए हैं. सरकार नियमित मजदूर रखने की बजाए ठेका मजदूर प्रथा को बढ़ावा दे रही हैं. इस प्रकार बेरोज़गारी दलित परिवारों की बहुत बड़ी समस्या है.अतः बेरोजगारी दूर करने के लिए ज़रूरी है कि सरकार की वर्तमान कार्पोरेटपरस्त नीतियों में मूलभूत परिवर्तन किये जाएं. कार्पोरेट सेक्टर पर रोज़गार के अवसर बढ़ने की शर्तें कड़ाई से लागू की जाएं. श्रम कानूनों को बहाल किया जाये. तेज़ी से लागू की जा रही ठेकेदारी प्रथा पर रोक लगाई जाये. सरकारी उपक्रमों के निजीकरण को बंद किया जाये. बेरोज़गारी से निजात पाने किये रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाये जाने तथा बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने की मांग उठाई जाये.
इसी लिए चंद्रभान जी ने अपने लेख में भूमंडलीकरण के बाद दलितों की जिस खुशहाली का चित्रण किया है वह जमीनी सच्चाई के बिल्कुल विपरीत है. भूमंडलीकरण की नीति लागू होने के बाद केवल मुठ्ठी भर दलितों को आगे बढ़ने के अवसर मिले हैं. अधिकतर दलित आज भी भूमिहीनता, गरीबी और बेरोजगारी का शिकार हैं जैसा कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना-2011 के आंकड़ों से भी स्पष्ट है. दलितों तथा समाज के अन्य कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण के लिए ज़रूरी है कि वर्तमान कार्पोरेट परस्त नीतियों की बजाये जनपरस्त नीतियां अपनाई जाएं जिस के लिए सरकार पर भारी जन दबाव बनाये जाने की जरुरत है.
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