Monday, March 10, 2025
Homeओपीनियनआरक्षण खत्म होने पर दलित जातियों पर पड़ने वाला सामाजिक प्रभाव क्या...

आरक्षण खत्म होने पर दलित जातियों पर पड़ने वाला सामाजिक प्रभाव क्या होगा?

Written By- पंकज टम्टा

संभवतः ‘आरक्षण’ एक ऐसा विषय है, जिसने दलित जातियों को एक साथ बांध रखा है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आरक्षण के समाप्त होते ही दलित जातियों के बने गुटों के आपसी  रिश्तों में तनाव आ जाए। बाबा साहब और समाज के नाम पर एकजुट होने के चलते दलित जातियों ने केवल अपने जातीय संगठन ही बनाये। इसमें दोष वर्तमान पीढ़ी का नहीं। यदि इतिहास में देखा जाए तो हुआ यही है कि जो भी व्यक्ति सामाजिक और राजनैतिक रूप से सबल हुआ उसने अपनी जाति को संगठित किया। कुछ हद तक इसने समाज में कुछ एक खास दलित जातियों को उनकी खोई पहचान भी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्योंकि अस्पृश्यता का व्यवहार सभी जातियों के साथ अलग अलग तरह से होता था। इसलिए जो संगठित हो गए उनके साथ इसकी भयावयता कुछ कम हुई। यही कारण है कि दलित जातियों ने सजातीय संगठनों में एकजुट होना सही समझा।

लेकिन आरक्षण एक ऐसा विषय बना जिसने सभी दलित जातियों और उनके संगठनों को एक मंच पर आने पर मजबूर किया। संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति के रूप में जाने जाने के बावजूद भी दलित जातियां सामाजिक रूप से एक नहीं हो पाई हैं। आज भी इन जातियों में सामाजिक विभेद बहुत बड़े स्तर पर दिखता है। संविधान बनने के इतने वर्ष बाद भी सामाजिक रूप से एक न हो पाना दलित समाज की सबसे बड़ी नाकामी है।

इस नाकामी से बचने के लिए क्या किया जाए?

दलित जातियों के नाम पर बने संगठन जैसे शिल्पकार चेतना मंच, टम्टा सभा, वाल्मीकि सभा, चमार संगठन, जाटव सभा आदि दलित जातियों में विभेद करने वाले संगठनों को खत्म कर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार के शब्दों में सामाजिक रूप से पहल करते हुए पाबंदी लगाई जाए। यदि ऐसा नहीं होगा तो इसका बहुत बड़ा खामियाजा पूरे दलित समाज को तब भुगतना पड़ेगा जब हमसे आरक्षण छीन जायेगा!

आरक्षण के मुद्दे पर एक होने के चलते व सामाजिक रूप से अलग -अलग रहकर हम अपने विरोधी को एक ऐसा अवसर मुहैया करा रहे हैं जब वह एक तीर से दो शिकार कर सकता है। आरक्षण के खत्म होते ही, दलितों के जातियों के आधार पर बने संगठनों के बीच आपसी वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाएगी। जिसमें फिर दलित जातियों के संगठन आपस में ही एक दूसरे को खत्म करने से पीछे नहीं हटेंगे। क्योंकि फिर इनके पास कहने को केवल यही आत्मसम्मान बचेगा की दलित जातियों में कौन किससे बड़ा है। इस प्रकार के संभावित वर्ग संघर्ष या यूं कहें कि दलित जातियों के बीच होने वाले जातीय संघर्ष को टाला जा सकता है। इसके लिए करना यह है कि दलित जातियों के बीच पनप रही जातीय अहम की भावना का समूल अंत कर दिया जाए, और ऐसे शब्दों का विलोप हो जो दलित जातियों में जाति भेद करते हो।

मेरा ताल्लुक उत्ताखंड से है। मुझे वहां एक शब्द हमेशा से चुभता है जो है ‘शिल्पकार। कुमाऊं के दलित समाज में अब इस शब्द का विलोप हो जाना चाहिए क्योंकि यह शब्द दलित जातियों में विभेद पैदा करता है। यह कुछ दलित जातियों को श्रेष्ठ और कुछ को निकृष्ट बताता है जबकि सवर्णों की दृष्टि में सभी दलित एक समान है और वे सभी से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी वे कर सकते हैं।

यदि जातीय विभेद के शब्द ना अपनाए तो फिर क्या करे?

आज दलित समाज को ऐसी शब्दावली की जरूरत है जो जातीय विभेद न पैदा करती हो। जैसे बाबा साहब आंबेडकर के नाम की तरह जातीय नाम की जगह स्थान विशेष के नामों का प्रयोग करना। जिनसे किसी भी प्रकार के छोटे बड़े व्यवसाय का पता नहीं चलता है। ऐसे नामों का भी प्रयोग किया जा सकता है जो सभी में समान रूप से स्वीकार हो। लेकिन ऐसे नामों की खोज सभी को एक साथ मिलकर, सामाजिक रूप से एक साथ आकर करनी होगी। महज आरक्षण के मुद्दे पर एकजुट दिखने वाले दलित समाज के बारे में यह सोच लेना की समाज एक हो गया है निरी मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है। इससे आगे चलकर अगर समाज एक होता है तो सामाजिक रूप से एक होने के बहुत से फायदे समाज को मिलेंगे। लेकिन समाजिक रूप से एक दलित समाज तभी माना जाएगा, जब दलित वर्ग के हर जाति बिरादरी के लोगो में आपस में रोटी – बेटी के संबंध स्थापित करेंगे। वरना समाज लाख ढकोसला कर ले, सामाजिक एकता का जो द्वंद है वो समाज के सामने आज नहीं तो कल आ ही जायेगा।


इस आलेख के लेखक पंकज टम्टा सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

लोकप्रिय

संबंधित खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content