यह सत्य है कि भारत के गणतंत्र बनने के 65 वर्षों में हमारे राष्ट्र ने बहुत विकास किया है. तकनीकी रूप से आवागमन के साधन (रोड, रेल और हवाई जहाज), सूचना क्रांति, अंतरिक्ष विज्ञान, सैन्य शक्ति (जल, थल, वायु), औद्योगिकीकरण, नगरीकरण कुल मिलाकर आधुनिकीकरण और अब भूमंडलीकरण के दौर से गुजरते हुए हमने बहुत तरक्की की है. आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. विश्व में अरबपतियों की सूची में भारत के अरबपति तीसरे नंबर पर आते हैं. विश्व के 97 अरबपति भारत से हैं. एक अनुमान के अनुसार 2013-14 में भारत की प्रति व्यक्ति औसतन आय 38,856 रुपये है. परंतु इन सब विकासिय आंकड़ों के विपरीत यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत 187 देशों की सूची में 135वे नंबर पर है. यह सूचकांक तीन आधारों पर बनाया जाता है. लंबा एवं स्वस्थ जीवन, शिक्षा की पहुंच तथा सराहनीय रहने के मानक पर बनाया जाता है.
इसी संदर्भ में अर्जुन सेन गुप्ता के एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 70 प्रतिशत भारतीय केवल 20 रुपये प्रतिदिन के आधार पर गुजर करते हैं. और 26 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा के नीचे आते हैं. अब हम स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत के बहुजन किस हालात में है? हम बहुजनों की स्थिति का आंकलन कम से कम दस संस्थाओं की संरचना के अवलोकन के आधार पर कर सकते हैं. इसमें बहुत बड़े अन्वेशषण या शोध की आवश्यकता नहीं है. केवल और केवल खुली आंखों से दसों संस्थाओं की संरचना की बनावट में दलितों, पिछड़ों एवं मुसलमानों के प्रतिनिधित्व पर नजर डालें तो बात साफ हो जाएगी की गणतंत्र के इन 65 वर्षों में ये समूह कहां पर है? ये दस संस्थाएं जो भारत राष्ट्र का निर्माण करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं, वे हैं उच्च एवं उच्चतम न्यायालय, भारतीय राजनीति, संसद (राज्य विधानसभा एवं पंचायती राज्य), कर्मचारी तंत्र उद्योग (सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, निजी क्षेत्र एवं बैंकिंग और बीमा कंपनियां). पांचवां है शिक्षा जगत. परंपरागत शिक्षा (विश्वविद्यालयी शिक्षा, स्कूली शिक्षा), व्यवसायिक शिक्षा (आईआईटी और आईआईएम), कृषि, मीडिया, धर्म, खेल एवं सिविल सोसायटी (स्वयंसेवी संगठन).
उपरोक्त दसों संस्थाओं में जनसंख्या के आधार पर बनावट का परीक्षण करें तो हम पाएंगे कि बहुजनों को इन संस्थाओं में गणतंत्र के 65 वर्षों बाद भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. और कुछ जातियों और वर्णों ने इस पर अपना एकाधिपत्य जमा रखा है. अगर हम उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को ही ले लें तो बहुजनों का यहां प्रतिनिधित्व 65 वर्षों के गणतंत्र में नगण्य दिखाई पड़ता है. और इसलिए बहुजनों की धारणा है कि न्यायालयों से बहुजन समाज को निर्णय तो मिलता है पर न्याय नहीं. राजनीति में यद्यपि लोकसभा, विधानसभा एवं पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण के माध्यम से कुछ दलितों को प्रतिनिधित्व अवश्य मिला है परंतु इनमें प्रभावी नेतृत्व अभी तक नहीं दिखाई दे रहा है. सवर्ण समाज बाहुल्य वाले दलों में दलित समाज के नेताओं को अपने सवर्ण समाज के आका पर निर्भर रहना पड़ता है. वो अपने दल की ही बोली बोलते हैं और विधानसभा और संसद में दलितों के हक की बात को नहीं उठाते हैं. उत्तर प्रदेश में आरक्षित सीटों से जीते हुए सत्ताधारी दल के विधायकों का आरक्षण के पक्ष में कोई भी कदम ना उठाना इस बात को प्रमाणित करता है. इसलिए ये कहा जा सकता है कि राजनीति में दलित समाज के राजनैतिक नेतृत्व का प्रभावी होना अभी बाकी है.
कर्मचारी तंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर भारत सरकार के 92 सचिवों में एक या दो दलित समाज के सेक्रेट्री हो सकते हैं. परंतु इनके विभागों का आंकलन किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि जानबूझ कर इनको मुख्यधारा के विभागों से दूर रखा जाता है. यही हाल इन अधिकारियों का राज्यों में होता है. जहां पर गृह विभाग, वित्त, नियुक्ति, व्यापार, शिक्षा आदि से इनको दूर रखा जाता है. हां ये बात और है कि जब स्वतंत्र दलित राजनैतिक दल की सरकार बनती है तो दलित कर्मचारियों को तरजीह अवश्य मिलती है. शिक्षा के जगत में यद्यपि दलितों को धर्म के आधार पर वंचित रखा गया था परंतु भारतीय संविधान के आधार पर वर्तमान में 1241 अनुसूचित जातियों को पढ़ने लिखने का अधिकार मिला. जिससे उनमें आज 100 में से 66 लोग साक्षर हो चुके हैं. परंतु एक से लेकर कक्षा पांच तक पहुंचते पहुंचते 100 में से 27 दलित विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं. इसी तरह एक से दसवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते 100 में से 56 दलित विद्यार्थी अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं. और इसलिए दलितों का उच्चतम शिक्षा में दलितों के 87 प्रतिशत लोग बाहर निकल जाते हैं. और आज तो सर्वशिक्षा अभियान के कानून के बाद केंद्रीय विद्यालयों में उनका आरक्षण भी खतम कर दिया गया है. ऐसी स्थिति में शिक्षा में प्रतिनिधित्व केवल शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र एवं छात्राओं के रूप में नहीं, बल्कि शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षकों के रूप में भी उनका प्रतिनिधित्व; उनकी जनसंख्या के अनुपात में अभी भी नहीं दिखाई देता है. शिक्षा में पाठ्यक्रमों को लेकर भी उनके समाज के नायकों एवं मूल्यों का पूर्ण ब्लैक आउट है. ऐसी स्थिति में दलित एवं बहुजन समाज का शैक्षणिक उत्थान कैसे संभव है? और जब तक उनको शिक्षा में पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, उनके उत्थान के सभी द्वार बंद प्रायः रहेंगे.
अगर हम कृषि क्षेत्र में दलितों की स्थिति का पता लगाना चाहें तो हमको दिखाई देगा कि लगभग 60 प्रतिशत दलित समाज के लोग भूमिहीन खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं. और वे किसी न किसी रूप में दूसरे पर आश्रित हैं. लगभग 72 प्रतिशत दलित सीमांत किसान हैं जिनके पास आधे एकड़ से कम जमीन पाई जाती है. ऐसी परिस्थिति में उनके पास मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट) कानून का ही सहारा है. परंतु वहां पर भी उनको न्यूनतम मजदूरी के रूप में मध्यप्रदेश में 159 रुपये और सबसे अधिक मजदूरी 229 रुपये केरल में मिलता है. परंतु उनको साल 100 दिन के रोजगार की गारंटी ही दी गई है. अर्थात साल के 365 दिन में से वे केवल 100 दिन ही सरकार की बनाई योजना के अंतर्गत काम कर सकते हैं. उसमें भी बहुत सारे शोध से पता चला है कि इस संस्था में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पाया जाता है. इसलिए दलितों को कहीं पर जॉब कार्ड नहीं मिलता है तो कहीं उनको उनकी न्यूनतम मजदूरी. और इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पा रहा है. शायद इसीलिए बाबासाहेब अम्बेडकर ने दलितों का आवाह्न किया था कि वे ग्रामीण अंचल छोड़कर शहरों में बस जाएं.
खेलों का एक नया क्षेत्र संस्था के रूप में निजी संपत्ति का प्रयोग कर बाजार का रूप ले चुका है. जिसमें क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल, बैडमिंटन और यहां तक की कबड्डी जैसे खेल शामिल कर लिए गए हैं. इस बाजार में दर्शकों के टिकट के साथ-साथ खिलाड़ी और टीम भी बिकते हैं. खुले बाजार में खिलाड़ियों की बोली लगती है. 2015 में इंडियन प्रीमियर लीग में युवराज सबसे महंगे खिलाड़ी थे, जिनको 16 करोड़ में बेचा गया. ऐसे ही महेन्द्र सिंह धोनी, विराट कोहली और रोहित शर्मा को साढ़े 12 करोड़ में खरीदा गया. तमाम खिलाड़ियों की बोली लगी. खिलाड़ियों के एक आईपीएल सीजन में इन करोड़ों की कीमत के सापेक्ष मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का आंकलन करे तो हमें भारत में आर्थिक विषमता का आसानी से पता चल जाएगा. क्या विकास का यही पैमाना होना चाहिए, जिसमें समाज के कुछ लोग करोड़पति होते जाएं और कुछ लोगों को दो जून की रोटी भी न नसीब हो. ऐसी स्थिति में क्या दलित समाज आईपीएल में किसी तरह भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है? जवाब नाकारात्मक ही है. दलितों की उपरोक्त संस्थाओं में अगर भागेदारी नहीं है तो उसकी भागेदारी धर्म में हो सकती है क्या?
भारत के अमीर से अमीर मंदिरों की संरचना का विश्लेषण किया जाए तो वे कहीं नहीं दिखाई देते हैं. मंदिरों से जुड़े हुए ट्रस्टों में अकूत संपत्ति बिना किसी विकास एवं प्रायोजन के पड़ी हुई है. इन मंदिरों के ट्रस्टो से जुड़े हुए अनेक लोग आपूर्ति का काम करते होंगे. क्या उनमें दलितों की सहभागिता हो सकती है? मैं यहां भारत के 6 सबसे अमीर मंदिरों की बात कर रहा हूं. पद्मनाभ मंदिर तिरुवंतपुरम (1 लाख करोड़), तिरुपति वेंकटेश्वरम मंदिर आंध्र प्रदेश की संपत्ति 5 हजार करोड़, सोमनाथ ट्रस्ट की संपत्ति 1,614 करोड़ है. इसी तरह साईं बाबा मंदिर की आय 350 करोड़ सलाना है. सिद्धी विनायक मंदिर में हर साल सौ से 150 करोड़ का चढ़ावा आता है. इन मंदिरों की इस माली हालत में दलितों का कोई भी लेना-देना नहीं है. इसलिए वे इस संस्था से भी बाहर नजर आते हैं. इसका आशय यह नहीं है कि बहुजन समाज मंदिरों में प्रवेश मांग रहा है.
इसी कड़ी में मीडिया में भागेदारी का प्रश्न दलित हमेशा से उठाते रहे हैं. परंतु आज के तमाम समाचार चैनलों को ही ले लें और दूरदर्शन के 42 चैनलों के साथ इसे देखें तो इसमें दलितों की भागीदारी तकरीबन नगण्य है. किसी भी चैनल में एक भी दलित एंकर (महिला या पुरुष) नहीं है. जब व्यक्ति ही नहीं होगा तो उसका दृष्टिकोण भी नहीं होगा. इसलिए मीडिया से दलित दृष्टिकोण एवं दलितों की खबर दोनों ही गायब नजर आते हैं. दलितों पर अपराध की खबर को “दलित खबर” बताया जाता है, यद्यपि यह दूसरे समाज के द्वारा क्रियान्वित की गई प्रतिक्रिया होती है. ऐसी स्थिति में दलितों की भागेदारी मीडिया में न होना प्रजातांत्रिक मूल्यों के विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाती है.
इसी संदर्भ में स्वयंसेवी संगठनों में दलितों की भागेदारी का भी प्रश्न उठता है. यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सरकार अब सामाजिक क्षेत्र में स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने का मन बना चुकी है. अतः दलितों की स्वयंसेवी संगठनों के अंदर प्रभावी भूमिका होनी चाहिए. तभी उन तक सुविधाएं पहुंच सकती है. परंतु ऐसा प्रतीत नहीं होता है. इसलिए गणतंत्र बनने के 65 वर्ष बाद उपरोक्त दसों संस्थाओं में दलितों की नगण्य एवं अप्रभावी भागेदारी हमारे गणतंत्र के विकास की प्रकृति पर सवाल खड़ा करती है. अतः अगर हमें अपने गणतंत्र को मजबूत करना है तो इन दसों संस्थाओं में बहुजनों की भागेदारी सुनिश्चित करनी होगी.
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।