भारत में पिछले कुछ समय में दलितों और ऊंची जातियों के बीच तनाव बढ़ा है. हालांकि सरकारें अलग अलग समय पर दलितों के उत्थान के लिए कदम उठाती रही हैं.
एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार ही चुना है. इन खबरों के बीच बीबीसी हिंदी ने अपने पाठकों से पूछा था कि दलित-ऊंची जाति तनाव के बीच वो इस समस्या के किस पहलू के बारे में जानना चाहेंगे.
बड़ी संख्या में पाठकों ने हमारे लिए ये सवाल रखा कि आज़ादी के 70 साल बाद भी अब तक दलित देश की मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पाए हैं.
पाठकों के इस सवाल का जवाब खोजा है बीबीसी हिंदी के संवाददाता ज़ुबैर अहमद ने अपनी इस रिपोर्ट में.
1. सामाजिक आधार पर देखें तो आप समानता और स्वतंत्र के लिए क़ानून बना सकते हैं लेकिन भाईचारे के लिए क़ानून नहीं बना सकते. अब तक 70 सालों में क़ानून ऊंच-नीच और भेदभाव को ख़त्म नहीं कर पाया है. क़ानून एक या दो को सजा दे सकता है पूरे समाज को कैसे सजा देगा? दलितों पर जारी अत्याचार एक सामूहिक विफलता है
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं- “समाज की दलितों की तरफ जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक निरंतर बदस्तूर उन पर अन्याय जारी रहेगा.
2. क़ानून बनाना और क़ानून लागू करना केवल एक प्रक्रिया है. ये आल-राउंड विकास की प्रक्रिया होनी चाहिए. सामाजिक कार्यकर्ता अनिल चमड़िया कहते हैं- “पिछले 70 में तजुर्बा बताता है कि केवल क़ानून से भेदभाव ख़त्म नहीं होगा. ये समाज में कास्ट सिस्टम से जुड़ा हुआ है. भेदभाव से जुड़ा हुआ है. ये संविधान बनने के कई सौ साल से ऐसा ही चला आ रहा है जो अब तक टूट नहीं सका है.
3. दलित सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि दलितों के खिलाफ छुआछूत प्रतिष्ठा से जुड़ा मुद्दा बन गया है. अनिल चमड़िया कहते हैं “लोकतंत्र की जो संस्थाएं हैं उनके ज़रिये ये सामाजिक अन्याय और मज़बूत हुआ है.”
4. रोटी-बेटी का सम्बन्ध होना चाहिए. अनिल चमड़िया के अनुसार भीम राव आंबेडकर के कहे अनुसार अंतर जाति विवाह को बढ़ावा देना चाहिए. उनका कहना था कि अगर दोनों जातियों के लोग एक दूसरे की जाति में शादी करें तो जातपात की जड़ों को हिलाया जा सकता है.
5. आरक्षण की मंशा समझी जाए. प्रोफेसर विवेक कुमार के अनुसार आरक्षण आर्थिक समस्या को सुलझाने का काम नहीं है. उनके मुताबिक- “ये प्रतिनिधित्व का कार्यक्रम था कि समाज की सभी संस्थाओं में दलितों का प्रतिनिधित्व हो लेकिन दलितों को अब भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है जिसकी वजह से आरक्षण को जारी रखने की ज़रुरत है.
6. सरकार के इलावा निजी क्षेत्र और पूरे समाज की ज़िम्मेदारी बनती है छुआछूत ख़त्म हो. अनिल चमड़िया और विवेक कुमार दोनों कहते हैं कि समाज भी अपनी ज़िम्मेदारी उठाये. लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि दलितों के खिलाफ अन्याय रोकने और उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने पूरी ज़िम्मेदारी सरकार पर आयद होती है.
साभारः बीबीसी हिंदी
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