साम्यवाद का काबा माना जाने वाला सोवियत संघ जब भरभराकर ढ़ह गया, तब यह कहा गया कि विश्व की पूंजीवादी शक्तियों ने पूरी ताकत के साथ समाजवाद का अंत कर दिया. लेकिन उन विपरीत हवाओं में भी भारत में कई राज्य ऐसे थे जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का शासन कायम हुआ और बरकरार रहा. धीरे-धीरे यहाँ भी कम्युनिस्ट संगठन और उनकी सरकारें दरकने लगीं. पहले संसद में उपस्थिति कम हुई, फिर राज्यों के विधान मंडल में कमजोर हुए और बाद में पश्चिम बंगाल हाथ से गया.
अब 2018 विधानसभा चुनावों के परिणाम आ जाने के बाद 25 साल पुराना त्रिपुरा की सरकार भी कम्युनिस्टों के हाथ से चली गयी. अब इसे सत्ता विरोधी लहर कहें या विरोधी ताकतों की अभेद रणनीति, सच्चाई यही है कि तकनिकी रूप से त्रिपुरा रंग लाल से भगवा हो चुका है. 25 साल की कम्युनिस्ट हुकूमत में 20 साल तक त्रिपुरा के मुख्यामंत्री रहने के बावजूद माणिक सरकार आखिर लाल झंडे की बुलंदियों को बचा क्यूँ नहीं पाए, इस पर विचार होना चाहिए.
त्रिपुरा चुनाव परिणाम के बहाने आईये जानते हैं कि वे 10 बड़े कारण क्या हैं, जिनकी वजह से त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे भारत से एक-एक कर कम्युनिस्ट पार्टियों के दुर्ग भरभराकर ढह रहे हैं :
1. घिसी-पिटी कार्यशैली
एक जमाने में कम्युनिस्ट होने का अर्थ आधुनिक होना माना जाता था. नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल, चुस्त-दुरुस्त कार्यशैली और आधुनिक सोच-समझ की वजह से कम्युनिस्ट लोग सबसे अलग दिखते थे. किताबें पढ़ने की आदत और किताबों के प्रकाशन व प्रसार में कम्युनिस्टों का कोई मुकाबला नहीं था. जब लोग मुश्किल से टाइपराइटर का इस्तेमाल कर पाते थे, तब कम्युनिस्ट पार्टी ले दफ्तरों में आधुनिकतम टाइपिंग और साइक्लोस्टाइल मशीनें, छापेखाने और प्रकाशन हुआ करते थे. समय के साथ कम्युनिस्टों ने अपने तंत्र को अपडेट नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि बेहतरीन माना जाने वाला कम्युनिस्टों का संगठन निर्माण कौशल धीरे-धीरे परम्परापरस्त और अप्रसांगिक हो चला है, जबकि उसके मुकाबले खड़े खेमों में आधुनिक तकनीक पर आधारित सांगठनिक ढांचे पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. सूचना क्रांति के इस दौर में सोशल मीडिया पर कम्युनिस्ट नेताओं की मौजूदगी और फैन फॉलोविंग बहुत कम है. दूसरी पार्टियों के नेतागण जहाँ जनता से संवाद कायम करने के लिए सूचना माध्यमों का आक्रामकता से इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके मुकाबले कम्युनिस्ट लीडर इस रेस में बहुत पीछे हैं.
2. युवाओं का मोहभंग
भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों में नेतृत्व का संकट पैदा हो चुका है. एक जमाने में युवाओं को आकर्षित करने वाली विचारधारा की पार्टी मानी जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में आज युवा देखने को नहीं मिलते हैं. अगर कुछ युवा पार्टी के साथ जुड़े भी हैं तो वे नेतृत्व में नहीं हैं. पार्टी के पोलित ब्यूरो या नेशनल काउंसिल में लगभग सभी सफेद बाल वाले कॉमरेड ही बचे हैं.
3. नेतृत्व में वंचित समाज का प्रतिनिधित्व नगण्य
जिनके हक में राजनीती करने का दावा कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं, वे पार्टी संगठन में कभी नेतृत्व की भूमिका में नहीं आ पाते हैं. वंचित समाज के लोग, दलित, मजदूर, किसान, खेतिहर मजदूर, अल्पसंख्यक और पसमांदा समाज की राजनीती का दावा तो कम्युनिस्ट करते हैं लेकिन उस समाज से आने वाले लोगों की भागीदारी पार्टी नेतृत्व में नहीं हो पाती है. ये विरोधाभासी सत्य है कि जातिवाद का विरोध करने वाले कम्युनिस्टों के संगठन में नेतृत्व अधिकतर ऊँची जातियों से आए कामरेड्स के हाथ में है.
4. कमजोर होते जनसंगठन
कम्युनिस्ट पार्टियों में कैडर जनसंगठनों (मास-आर्गेनाईजेशंस) से आया करते थे. ये जनसंगठन विद्यार्थियों, युवाओं, महिलाओं, लेखकों, रंगकर्मियों, किसानों और अन्य समूहों के लिए बनाए जाते थे. पार्टी का अपना सांस्कृतिक समूह होता था जो अब भी कहीं-कहीं है. ऐसे जनसंगठन शाखा स्तर से ही बनाए जाते थे, जिनके संघर्ष की अपनी रणनीति होती थी. अलग-अलग मुद्दों और मांगों को लेकर जनसंगठन संघर्ष किया करते थे. जनसंगठन में ही रहकर व्यक्ति वैचारिक रूप से मजबूत होता था. आंतरिक बैठकों से निकलकर सड़क पर उतर कर सभाओं, धरनों, प्रदर्शनों में भाग लेना और नेतृत्व की क्षमता का विकास करना, ये सब जनसंगठन में रहकर सम्भव हो पता था. किसी साधारण सदस्य को कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बनने के लिए असली प्रशिक्षण जनसंगठन में ही मिल जाया करता था और साधारण से साधारण व्यक्ति पक्का कॉमरेड बन जाया करता था.
समय के साथ-साथ भारत की लगभग सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के जनसंगठन कमजोर हो गए और पार्टी नेतृत्व ने इसे नजरअंदाज कर दिया. नतीजा यह हुआ कि गर्म खून वाले जोशीले युवा जो पहले जनसंगठन के रास्ते पार्टी में आया करते थे, वह मार्ग अवरुद्ध हो गया. धीरे-धीरे स्थिति यह हो गयी कि पार्टी संगठन में काम करने वाले नए लोगों की भारी कमी हो गयी.लेफ्ट जो काडर बेस पार्टी कहलाती थी, जनसंगठनों के कमजोर होने से उसी पार्टी में काडर का अकाल पड़ गया.
5. ट्रेड यूनियन और पार्टी के बीच तालमेल की कमी
ट्रेड यूनियन को पार्टी की रीढ़ की हड्डी कहते हैं. किसी पार्टी से जुड़े ट्रेड यूनियन के संघर्ष की राह पार्टी की राजनैतिक धारा पर आधारित होती है. ट्रेड यूनियन के सदस्य पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण करते हैं. लेकिन पार्टी और ट्रेड यूनियन में जो तालमेल होना चाहिए, समय के साथ उसमें भारी कमी देखने को मिली है. ट्रेड यूनियन का जुडाव पार्टी से नाम मात्र का रह गया है बल्कि वे लगभग स्वतंत्र इकाईयों की तरह कार्य करने लगे हैं. नतीजा यह हुआ है कि जिस इलाके में ट्रेड यूनियन के सदस्यों की संख्या हजारों में है वहां पार्टी के कार्यक्रम में मुट्ठी भर लोग ही पहुँच पाते हैं. इसके अलावा जिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की नुमाईंदगी का दावा कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं, उन्हीं के बीच ट्रेड यूनियन कमजोर है या है ही नहीं. यह भी एक चिंताजनक स्थिति है कि जिन ट्रेड यूनियनों को पार्टी की रीढ़ की हड्डी बनकर संगठन को मजबूत बनाने में मददगार होना चाहिए था, वह पार्टी पर हावी हो जाते हैं. नतीजतन, ट्रेड यूनियन लीडर ही पार्टी का भी नेता हो जाता है और लम्बे समय तक उसका प्रभुत्व और प्रभाव पार्टी संगठन पर बना रहता है. ऐसी स्थिति में पार्टी के अंदर से सिर्फ पार्टी के विस्तार और मजबूती के लिए काम करने वाला लीडर नेतृत्व में नहीं आ पाता है. ट्रेड यूनियन और पार्टी के बीच घटते तालमेल से पार्टी संगठन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
6. अनेक कम्युनिस्ट पार्टियाँ
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्थापना 1925 में हुई. इसके बाद 1964 में वैचारिक मतभेद के कारण पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) का जन्म हुआ. इसके बाद नक्सलबाड़ी समर्थक नेताओं ने ‘ऑल इंडिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी’ (एआईसीसीआर) का गठन किया और वे सीपीएम से अलग हो गए. फिर बाद में आंध्र प्रदेश में भी तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह समर्थक नेताओं का अलग धड़ा बना. फिर सीपीआई (एम एल) बना. इस तरह समय-समय पर बनीं अनेक कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज अस्तित्व में हैं. यही भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमजोरी भी है. अनेक अवसर ऐसे आए जब एक कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी से अलग खड़ी दिखी.
पिछले महीने ही पडोसी देश नेपाल में एक बड़े राजनैतिक घटनाक्रम के तहत दो सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट दलों, सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन (माओवादी सेंटर) ने विलय कर एक नई पार्टी बनाने का फैसला किया है. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के नेताओं ने फैसला किया कि नेपाल में अब एक ही कम्युनिस्ट पार्टी होगी जिसका नाम नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी होगा. मौजूदा दौर में जब हवाएं कम्युनिस्ट आन्दोलन के विपरीत बह रहीं हैं, साम्प्रदायिकता का जहर समाज में घुलता जा रहा है, कॉर्पोरेट घरानों के हक़ में नीतियां बनाई जा रही हैं, रिटेल से लेकर कोयला खनन तक सब निजी हाथों के हवाले हो चुका है, नौकरियां धडल्ले से छीनीं जा रहीं हैं, महंगाई, बेरोजगारी और असमानता विकराल रूप घारण कर चूकी है, ऐसे समय में भारत में लेनिन, मार्क्स और माओ को मानने वाली मुख्यधारा और कट्टरपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों में नेपाल से सबक लेते हुए वामपंथ की एकता और मजबूती के लिए जितनी बेचैनी दिखनी चाहिए थी, वो नहीं दिख रही है.
7. आत्मसमर्पण की मुद्रा
ऐसा प्रतीत होता है जैसे भारत के कम्युनिस्ट आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गए हों. टूटा हुआ मनोबल साफ़-साफ़ दिखाई देता है. विरोधी खेमा लगातार कम्युनिस्टों के बार में दुष्प्रचार कर रहा है कि ये भारत विरोधी हैं, हिन्दू विरोधी हैं, नास्तिक और धर्म विरोधी हैं, विदेशी विचारधारा वाले हैं और यहाँ तक कि विकास और राष्ट्रवाद के विरोधी भी हैं. भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास संघर्षों और आन्दोलन का इतिहास रहा है. अंग्रेजों से लोहा लेने के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्टों ने देशी पूंजीपतियों, भू-माफियाओं, जमींनदारों और सरकारों की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लम्बी लडाई लड़ी है. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने बड़ी संख्या में आज़ादी से पहले और बाद में शहादत हासिल किया है. कम्युनिस्टों ने इस देश को बेहतरीन सांसद और जनप्रतिनिधि दिए हैं. भ्रष्टाचार का दाग कम्युनिस्टों को छू भी नहीं पाया है. इसके अलावा बहुत कुछ है जो कम्युनिस्ट अपने खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार के काउंटर में कह सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे भारत के कम्युनिस्टों ने हथियार डाल दिए हैं. हालत यहाँ तक खराब हो चुकी है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर कम्युनिस्ट पार्टियों के बयान तक जारी नहीं हो पाते हैं.
8. जनमानस में स्वीकार्यता
भारतीय समाज में धर्म विशेष दखल रखता है. यहां लोगों के जीवन में धर्म का महत्व रोटी के बराबर है. वहीं दूसरी ओर जाति भारतीय समाज की एक और ज्वलंत सच्चाई है. धर्म और जाति पर बात किए बगैर भारत की बात करना बादलों पर पैदल चलने जैसा है. कम्युनिस्टों ने यहां वर्ग संघर्ष के आगे वर्ण, जाति और धर्म की सच्चाईयों को नजरअंदाज किया है. लकीर की फकीरी की तरह भारत के कम्युनिस्टों ने मार्क्स के उस कथन का अक्षरशः अनुपालन करते हुए धर्म को ‘अफीम का नशा’ मान लिया. जबकि सोवियत संघ में कभी कम्युनिस्ट गवर्नमेंट और चर्च के बीच कोई टकराव देखने को नहीं मिला. जाति की मौजूदगी और उसके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को सिरे से नकारते हुए वर्ग चेतना की घुट्टी जबरन पिलाने की कोशिशों के कारण भारतीय समाज में कम्युनिस्टों की वह स्वीकार्यता नहीं बन पायी जितनी अन्य विचारों के लिए बनी है. कम्युनिस्टों का आचरण कैसा हो, इसके लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पार्टी संविधान के अलावा एक आचार संहिता का निर्माण किया था लेकिन आज उस आचार संहिता के अनुपालन की अनिवार्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. आमजनमानस में कम्युनिस्टों के बारे में नास्तिक, धर्म विरोधी और विदेशी विचारों के अनुयायी जैसी छवि जो शुरुआत में ही बन गयी थी, वह आज भी कायम है.
9. कार्यक्रमों की घोर कमी
कम्युनिस्टों को सड़क से संसद तक संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी की तरह देखा जाता था लेकिन आजकल आलम यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के पास संघर्ष के कोई देशव्यापी कार्यक्रम ही नहीं हैं. पार्टी की आंतरिक संचार व्यवस्था जो नियमित सर्कुलर जारी करके ज़िंदा रखी जाती थी, वह भी अब दम तोड़ती सी दिखाई पड़ती है. पार्टी के सामाचार-पत्रों की पाठक संख्या भी दिनों-दिन घट रही है. कई कम्युनिस्ट पार्टियों के अखबार जो कभी दैनिक हुआ करते थे, बंद हो चुके हैं. कुछ मुद्दों पर आन्दोलन की कॉल लेफ्ट पार्टियों द्वारा समय-समय पर दी भी है तो वे आन्दोलन पहले की तुलना में खानापूर्ति भर रह गए हैं.
10. चुनौती को किया नजरअंदाज
बीजीपी की त्रिपुरा में हासिल की गयी जीत कोई एक दिन की मेहनत का नतीजा नहीं है. 2014 में एनडीए की केन्द्र में सरकार आने के बाद बीजेपी ने पूर्वोत्ततर के राज्योंन पर खासा ध्यापन दिया है,जिसमें से त्रिपुरा भी एक है. बीजेपी का समर्थन करने वाली धार्मिक, आध्यात्मिक संस्थाएं, एनजीओ और संघ से जुडी अनेक संस्थाओं ने त्रिपुरा सहित पूरे उत्तर-पूर्व में सुनियोजित ढंग से काम करना शुरू कर दिया था. इस बात को वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने हल्के में लिया. 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को त्रिपुरा में सिर्फ दो फीसदी वोट मिले थे. इसके बाद बीजेपी ने जमीनी स्तिर पर काम किया और निकाय चुनाव में 221 सीटों पर जीत हासिल की थी. बीजेपी ने सबसे ज्यािदा ट्राइबल वोटरों पर ध्याीन दिया है. क्योंकि वहां 30 फीसदी सिर्फ ट्राइबल है और ट्राइबल की 20 सीटें लेफ्ट का गढ़ हैं. त्रिपुरा में लेफ्ट का पिछले चुनाव में 51 फीसदी वोट पर कब्जास था, जिसे बीजेपी ने इस बार कड़ी चुनौती दी है. यही कारण है कि 25 साल राज करने और बेहतर मत प्रतिशत हासिल करने के बावजूद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी त्रिपुरा में सत्ता से बाहर हो गयी है.
- लेखक- सुशील स्वतंत्र (9811188949)
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। इनकी दिलचस्पी खासकर ग्राउंड रिपोर्ट और वंचित-शोषित समाज से जुड़े मुद्दों में है। दलित दस्तक की शुरुआत से ही इससे जुड़े हैं।