लेखक- लक्ष्मण यादव
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद को लेकर मामला बहुत पेचीदा हो चुका है. हिन्दी विभाग डीयू ही नहीं, देशभर के सबसे बड़े विभागों में एक है. इसलिए यहाँ राजनीति भी बड़े लेवल की होती रही है. पहले प्रोफ़ेसर का क़द मंत्रियों से कई गुना बड़ा हुआ करता था, तब सियासत विभाग में आकर कमजोर हो जाती या अमूमन दम तोड़ देती थी. अब प्रोफ़ेसर नेताओं के तलवे सहलाकर पद के लिए भीख मांगने लग रहे हैं. वक़्त कितना बदल गया. इस बात को ऐसे समझें कि यहाँ पीएचडी में एडमिशन से लेकर नियुक्तियों तक में प्रोफ़ेसर की चलती थी, आज सब कुछ में कैबिनेट लेवल के मंत्रियों का दखल होता है. इसलिए आज एक प्रोफ़ेसर जब नियमों की धज्जी उड़ाने में सफल हो रहा है, तो ये सामान्य बात है.
आज केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय, MHRD, सांसद से लेकर भूतपूर्व विजिटर नॉमिनी तक कुलपति पर दबाव डाल रहे हैं कि नियमों व रवायतों का उल्लंघन करके एक संघ विचारक मेरिटधारी प्रोफ़ेसर को अध्यक्ष बना दिया जाए. जबकि नियमों के मुताबिक़ प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन के रूप में हिन्दी विभाग को 72 साल के जीवनकाल में पहला दलित-बहुजन अध्यक्ष मिलने जा रहा है. इसलिए सारे नियम तोड़ने का दबाव है. जबकि प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन पिछले तीन से अधिक वर्षों से अध्यक्ष के न रहने पर कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका में काम करते रहे हैं. सैकड़ों लेटर उनके कार्यकारी अध्यक्ष के आधार पर जारी हुए, फाइलों पर इनके दस्तख़त हैं. लेकिन अचानक सियासी दबाव इतना भारी हो गया कि नियम सब ध्वस्त कर दिए गए. पूरे हिन्दी विभाग से लेकर कुलपति तक जिसे सही मान रहे, वह सही हो नहीं रहा.
संघ विचारक प्रोफ़ेसर की दावेदारी इतनी ही पुख्ता है, तो कुलपति को तत्काल प्रभाव से उन्हें अध्यक्ष बना देना चाहिए था. लेकिन कुलपति कार्यालय उनकी फाइल रिजेक्ट कर चुका है. क्योंकि मान्यवर का तर्क है कि उन्हें भले ही प्रोफ़ेसरशिप श्यौराज जी के बाद मिली, लेकिन दो साल पहले यूजीसी ने ‘रिसर्च साइंटिस्ट’ के पदों को ख़त्म करके उनकी पे-स्केल वाला पद देने संबंधी एक ख़याली प्रस्ताव जारी किया. ख़्याल हक़ीक़त में बदला दो साल बाद, यानि अक्टूबर 2010 में. लेकिन प्रोफ़ेसर साहेब मेरिटधारी बनारस के ब्राह्मण जो ठहरे, बोले मैं तो यूजीसी के मन में उस ख़्याल आने वाले दिन से ही ख़ुद को प्रोफ़ेसर मानूँगा. और उनकी बात को संघी सियासत सही मानकर कुलपति को दबाव में रखे हुए है. आज कुलपति भी कमज़ोर है.
इसलिए कह रहा हूँ कि ये लड़ाई संविधान बनाम सत्ता की है. आंबेडकर बनाम सावरकर की है. मेरिट बनाम जाति की है. और उन साहेब प्रोफ़ेसरान की भाषा में कहें तो बनारस के ब्राह्मण बनाम शूद्र की है. और अब ये लड़ाई लिटमस टेस्ट है कि इसे कौन जीतता है. अगर आज 2019 में भी दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बनने में ऐसी साज़िशें हैं, तो बाकी अकादमिक जगत की असल तस्वीर की आप कल्पना करें. आज जब एक शूद्र बहुजन हर तरह से सक्षम, पात्र व मेरिट लेकर प्रोफ़ेसर बना है, वह एक प्रख्यात साहित्यकार व विचारक के तौर पर दर्जनों जगहों से सम्मानित हो चुका है, नियम कानून उसे विभागाध्यक्ष बना रहे हैं; तो सवाल ये है कि आज का द्रोणाचार्य कौन है? आप मदद कीजिए उसे पहचाहने में.
लेखक जाकिर हुसैन कॉलेज में हिन्दी विभाग में पढ़ाते हैं।
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।