Saturday, February 22, 2025
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दलित-आदिवासी साहित्य और साहित्यकारों से दिल्ली विश्वविद्यालय को क्यों है चिढ़?

चाहे सरकार हो या संस्थान, जब सत्ता बदलती है तो व्यवस्था के रंग भी बदलने लगते हैं। सत्ताधारी हर चीज अपने हिसाब से चलाना चाहता है, फिर चाहे वह सही हो या फिर गलत। दिल्ली युनिवर्सिटी ने हाल ही में एक ऐसा फैसला लिया है, जिससे एकेडमिक जगत में हंगामा खड़ा हो गया है। बुद्धिजीवि वर्ग दिल्ली विश्वविद्यालय को लानत भेज रहा है। हुआ यह है कि डीयू की ओवरसाइट कमेटी ने जानी-मानी लेखिका महाश्वेता देवी की शार्ट स्टोरी को अंग्रेजी के सिलेबस से हटा दिया गया है। इसके साथ ही दलित समाज के भी दो लेखकों की रचनाओं को सिलेबस से हटा दिया गया है।
ओवरसीज कमेटी (ओसी) निगरानी समिति ने जिन दो दलित लेखकों की रचनाओं को सिलेबस से हटाया है, उनके नाम बामा और सुखरथारिनी हैं, जबकि इनकी जगह “उच्च जाति की लेखिका रमाबाई” की रचनाओं को शामिल किया गया है। जबकि महाश्वेता देवी की जिस रचना को सिलेबस से हटाया गया है, उस रचना का नाम द्रौपदी है, जो कि एक आदिवासी महिला की कहानी है। यह स्टोरी सिलेबस में 1999 से ही पढ़ाई जा रही थी।

बुधवार 25 अगस्त को एकेडमिक काउंसिल की हुई मीटिंग में काउंसिल के 15 सदस्यों ने इसको लेकर अपना विरोध दर्ज कराया है। इन सदस्यों ने ओवरसीज कमेटी के काम करने के तरीके पर असहमति दर्ज कराई। साथ ही आरोप लगाया है कि सेमेस्टर फाइव में अंग्रेजी पाठ्यक्रमों को लेकर काफी बर्बरता बरती गई है। एकेडमिक काउंसिल के सदस्यों ने आरोप लगाया कि अचानक ही अंग्रेजी विभाग को इन लेखकों की रचनाओं को हटाने को कहा और इसकी कोई वजह भी नहीं बताई। ऐसा तब है जब महाश्वेता देवी को साहित्य एकेडमी अवार्ड, ज्ञानपीठ अवार्ड औऱ पद्म विभूषण अवार्ड मिल चुका है।

 एकेडमिक काउंसिल के सदस्यों ने आरोप लगाया है कि ओसी यानी निगरानी समिति ने हमेशा से दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और यौन अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के खिलाफ पूर्वाग्रह दिखाया है। पाठ्यक्रम से ऐसी सभी आवाजों को हटाने के ओवरसीज कमेटी के प्रयासों से यह स्पष्ट है। दरअसल ओवरसीज कमेटी में दलित या आदिवासी समुदाय से कोई सदस्य नहीं है। जो इस मुद्दे पर कुछ संवेदनशीलता ला सकते हैं।

इस पूरे विवाद पर ओसी यानी ओवरसीज कमेटी के अध्यक्ष एम के पंडित का तर्क है कि जब भी पाठ्यक्रमों में से कुछ हटता है तो हमेशा असहमति होती है। यह एक प्रक्रिया है। हमारे यहां सिर्फ एक लेखक नहीं है; ऐसे कई लेखक हैं जिन्हें पढ़ाया जाना चाहिए। जातिवाद के आरोपों पर उन्होंने कहा कि “मैं लेखकों की जाति नहीं जानता। मैं जातिवाद में विश्वास नहीं करता। मैं भारतीयों को अलग-अलग जातियों के रूप में नहीं देखता।”

निश्चित तौर पर एम के पंडित से इसी तर्क की उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि न तो वह भेदभाव के आरोप को स्वीकार करेंगे, और न ही जातिवाद के, लेकिन एकेडमिक काउंसिल के जिन 15 सदस्यों ने यह तमाम आरोप लगाए हैं, आखिर उसे कैसे खारिज किया जा सकता है? एम के पंडित चाहें जो कहें, दलित-पिछड़े समाज को लेकर दिल्ली युनिवर्सिटी का जातिवादी रवैया कई मौकों पर सामने आ चुका है। दिल्ली युनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में विभागाध्यक्ष के पद पर दलित समाज के प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन की नियुक्ति को लेकर दलित समाज को आंदोलन तक करना पड़ा था। यह तब था जब वो इस पद के सही हकदार थे। सवाल है कि आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय को दलित शोषित समाज के शिक्षकों और उनके विषयों को उठाने वाले पाठ्यक्रम से क्या दिक्कत है?

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